पशुओं में खुरपका और मुंहपका रोगः लक्षण एव उपचार      Publish Date : 17/07/2025

    पशुओं में खुरपका और मुंहपका रोगः लक्षण एव उपचार

                                                                                                                                                           प्रोफेसर डी. के. सिंह एवं अन्य

पशुओं में होने वाला खुरपका और मुंहपका रोग (एफएमडी) एक बेहद संक्रामक वायरल रोग है। यह हमारे मवेशियों गाय-भैंसों, बकरियों, भेड़ों, सुअरों और जुगाली करने वाले जंगली पशुओं को प्रभावित करता है। इस रोग के कारण पशु के थूथन, मसूड़ों, अयन और अन्य बालों से रहित शरीर के भागों में छालें या घाव बन जाते हैं। इसके साथ ही यह रोग सभी उम्र के पशुओं को प्रभावित करता है।

रोग के कारणः

                                                      

पशुओं में यह रोग एक विशेष प्रकार के एफएमडी वायरस के कारण होता है। एफएमडी वायरस के सात अलग-अलग प्रकार होते हैं। भारत में एफएमडी ओ, ए और सी प्रकारों के कारण से होता है। यह बहुत कठोर वायरस है जो महीनों ते दूषित चारा, कपड़ा और वतावरण आदि में जीवित रहता है।

एफएमडी वायरस सभी उम्र के पशुओं को प्रभावित करता है और 100 फीसदी रोगकारक होता है। इस वायरस से प्रभावित वयस्कों की मृत्यु दर तो कम है लेकिन बच्चों में सौ फीसदी होती है। इस रोग का प्रकोप मुख्य रूप से मानसून के आगमन के दौरान होता है। सुअर एफएमडी वायरस के गुणक के रूप में कार्य करता है और जुगाली करने वाले पशुओं में आसानी से फैल सकता है।

किस प्रकार से फैलता है यह रोग

रोगग्रस्त पशुओं की आवाजाही, संक्रमित जानवरों के साथ सम्पर्क और दूषित निर्जीव वस्तुओं जैसे जूते, कपड़े और वाहन आदि के सम्पर्क में आने से यह रोग फैल सकता है।

संक्रमित सांड़ से गर्भित कराने से, बच्चों के द्वारा संक्रति दूध पीने से, प्रभावित पशुओं के वायु संचरण से और रोगग्रस्त पशुओं के साथ काम कर रहे श्रमिकों के माध्यम से यह रोग स्वस्थ पशुओं में भी फैल सकता है।

संक्रमित जानवर के सभी स्राव और उत्सर्जन जैसे दूध, मूत्र, लार, मल और वीर्य इत्यादि के माध्यम से भी यह रोग फैल सकता है।

रोग के लक्षण

  • एफएमडी रोग के लक्षण पशुओं में संक्रमण के 2 से 8 दिन के अंदर दिखाई देने लगते हैं।
  • इस रोग के चलते पशु को तेज बुखार (103 से 105 डिग्री सेल्सियस), भूख नहीं लगती और पशु सुस्त बना रहता है। पशु के थूथन, दंत पैड, मसूडे, नाक, तालू, अयन, खुर एवं चमड़ी के जोड़ों के साथ ही बाल रहित शरीर के अन्य भागों में छाले और घाव बन जाते हैं।
  • रोग के दौरान पशु की लार अधिक निकलती है, लार रस्सी की तरह से लम्बाई में गिरती है और पशु की नाक से शलेष्म निकलता रहता है।
  • खुरपका-मुहपका रोग में पशु पैर पटकता है या ठोर मारता रहता है। इसके साथ ही पशु के खुरों में घाव बन जाने के कारण वह लंगड़ाने लगता है।
  • इस रोग में पशु अपने होठों को चटकाता है और दांतों को घिसता है। जीभ के पार्श्व पृयठीय भागों में अल्सर हो जाता है। शरीर की त्वचा भी मोटी एवं खुरदरी हो जाती है।
  • इस रोग के कारण पशुओं में गर्भपात भी हो जाता है और पशु के दुग्ध उत्पादन में भी कमी आ जाती है।
  • इस रोग से पशु के बच्चों की मौत हो जाती है। बछड़ों में रोगकारक 100 प्रतिशत होने के साथ ही उनकी मृत्यु दर भी अधिक होती है।

रोग का उपचार

                                                 

  • एफएमडी एक वायरल रोग है, फिलहाल इस रोग का कोई विशेष उपचार उपलब्ध नहीं है। परोक्ष संक्रमण को रोकने और लक्षणों को कम करने के लिए ही दवाईयाँ दी जाती है।
  • खुर व मुंह के घावों के लिए लाल दवा (पोटेशियम परमैग्नेट) के हल्के (एक फीसदी) घोल अथवा फिटकरी के 2 फीसदी घोल से दिन में दो बार धोएं और पशु के खुरों पर बीटाडीन लगाकर पट्टी बांधें।
  • धोने के बाद छालों पर बोरोग्लिसरीन का लेप करना लाभदायक रहता है।
  • रोगी पशु को मुलायम चारा ही खाने को दिया जाए।
  • तापरोधी, विटामिन बी कॉम्पलेक्स का इंजेक्शन और एंटीबायोटिक दवाएं डॉक्टर के बताए अनुसार ही दें।

रोग नियंत्रण एवं रोकथाम

  • सूचित अधिकारियों के द्वारा जल्द से जल्द रोग नियंत्रण के उपायों को आरम्भ किया जाना चाहिए, जिससे रोग के प्रसार को रोकने में मदद मिलेगी।
  • संक्रमित क्षेत्रों से पशुओं के स्वस्थ्य क्षेत्रों प्रवेश पर रोक लगा देनी चाहिए।
  • स्वस्थ पशुओं को रोगी पशु के सम्पर्क में आने से बचाकर रखना चाहिए।
  • संक्रमित पशु के शवों की उचित व्यवस्था करनी चाहिए।
  • रोग के प्रसार को सीमित करने के लिए प्रभावित क्षेत्रों के चारों ओर रिंग टीकाकरण कराना चाहिए।
  • समस्त दूषित वस्तुओं, परिसर एवं व्यक्तियों का कीटाणु शोधन अवश्य करना चाहिए।
  • इस रोग को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाएं।
  • पशुओं का नियमित रूप से टीकाकरण कराना चाहिए।

इसके लिए प्रथम टीकाकरण 4 माह की उम्र पर, प्रथम टीकाकरण के 6 महीने के बाद बूस्टर डोज और पुनः टीकाकरण वर्ष में दो बार (पहला टीका वर्षा ऋतु के आरम्भ होने से पूर्व और दूसरा टीका शीत ऋतु के आरम्भ होने से पूर्व) लगवाना चाहिए।

लेखकः डी. के. सिंह, सरादार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रोद्योगिक विश्वविद्यालय के पशु चिकित्सा महाविद्यालय में प्रोफेसर हैं।