
एक देशी गाय और 10-30 एकड़ खेती Publish Date : 14/07/2025
एक देशी गाय और 10-30 एकड़ खेती
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं रेशु चौधरी
भारत में हरित क्रान्ति के नाम पर अन्धाधुन्ध रासायनिक उर्वरकों, हानिकारक कीटनाशकों, हाइब्रिज बीजों एवं अधिकाधिक भूजल उपयोग से, भूमि की उर्वरा शक्ति, उत्पादन, भूजल स्तर और मानव स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट आयी है। किसान, बढ़ती लागत एवं बाजार पर निर्भरता के कारण खेती छोड़ रहे हैं और आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो रहे हैं। बाद में आयी विदेशी तकनीक जैविक खेती (बर्मी कम्पोस्ट, कम्पोस्ट बायोडायनामिक) भी जटिल होने के कारण अन्ततः किसान को बाजार पर ही निर्भर बनाती है। अतः आवश्यकता है ऐसी कृषि पद्धति की जिसमें किसान को बार-बार बाजार न जाना पड़े, उत्पादन न घटे, खेत उपजाऊ बने रहें व मानव रोगी न बने। ऐसी ही है सुभाष पालेकर की प्राकृतिक खेती, जिसमें खेत के लिये कुछ भी बाजार से नहीं खरीदना होता, केवल एक देशी गाय को पालना होता है।
ध्यान देने योग्य कुछ बातें
- प्राकृतिक कृषि में देशी बीज ही प्रयोग ही किया जाता है। हाइब्रिड बीजों के अच्छे परिणाम नहीं मिल पाते हैं।
- प्राकृतिक कृषि पद्वति में भारतीय नस्ल का देशी गोवंश ही उपयोग किया जाता है। जबकि गाय की जर्सी या होलस्टीन नस्लें हानिकारक होती है।
- पौधों व फसल की पंक्ति की दिशा उत्तर दक्षिण रखनी चाहिए। दलहन फसलों की सह फसली खेती करनी चाहिये।
- वर्मी कम्पोस्ट बनाने में जो आयसेनिया फीटिडा नामक जन्तु प्रयोग होता है, वह केंचुआ नहीं है।
- यदि किसी दूसरे स्थान पर बनाकर खाद (कम्पोस्ट) लाकर खेतों में डाला जायेगा तो मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवाणु निष्क्रिय हो जाते हैं। पौधों का भोजन जड़ के निकट ही बनना चाहिये जब भोजन लेने के लिए जड़ें दूर तक जायेंगी तो वह लम्बी व मजबूत बनेंगी परिणाम स्वरूप पौधा भी लम्बा व मजबूत बनेगा।
सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती का आधार व प्राकृतिक व्यवस्था
प्रकृति में सभी जीव एवं वनस्पतियों के भोजन की एक स्वालम्बी व्यवस्था है जिसका प्रमाण है बिना किसी मानवीय सहायता (खाद, कीटनाशक आदि) के जंगलों में खड़े हरे भरे पेड़ व उनके साथ रहने वाले लाखों जीव जन्तु।
पौधों के पोषण के लिये आवश्यक सभी 16 तत्व प्रकृति में उपलब्ध रहते हैं, उन्हें पौधे के भोजन रुप (Available Form) में बदलने का कार्य मिट्टी में पाये जाने वाले करोड़ो सूक्ष्म जीवाणु करते हैं। इस पद्धति में पौधों को भोजन न देकर भोजन बनाने वाले सुक्ष्म जीवाणु की उपलब्धता पर जोर दिया जाता है (जीवामृत, घनजीवामृत आदि के माध्यम से)।
पौधों के पोषण की प्रकृति में चक्रीय व्यवस्था है। पौधा अपने पोषण के लिये मिट्टी से सभी तत्व लेता है। फसल के पकने के बाद काष्ठ प्रदार्थ (कूड़ा-करकट) के रुप में मिट्टी में मिलकर, अपघटित (Decompose) होकर मिट्टी को उर्वरा शक्ति के रूप में लौटाता है।
कृषि में देशी गाय का महत्व
एक ग्राम देशी गाय के गोबर में 300-500 करोड़ उपरोक्त सूक्ष्म जीवाणु पाये जाते हैं। गाय के गोबर में गुड़ एवं अन्य पदार्थ डालकर किण्वन (Fermentation) से सूक्ष्म जीवाणु बढ़ा कर तैयार किया जीवामृत/घनजीवामृत जब खेत में पड़ता है, तो करोड़ो सूक्ष्म जीवाणु भूमि में उपलब्ध तत्वों से पौधो के लिए भोजन का निर्माण करते हैं।
कृषि में देशी केंचुओं का महत्व
केंचुआ मिट्टी, बालू पत्थर (कच्चा व चूना) खाता हुआ 15 फुट गहराई तक भूमि के नीचे जाता है। नीचे से पोषक तत्वों को उपर लाता है तथा पौधे की जड़ के पास अपनी विष्टा के रूप में छोड़ता है जिसमें सभी आवश्यक तत्वों का भण्डार होता है। केंचुआ जिस छेद से नीचे जाता है कभी उससे ऊपर नहीं आता है। भूमि में दिन रात करोड़ो छिद्र कर भूमि की जुताई कर मुलायम बनाता है इन्हीं छिद्रों से पूरा वर्षा जल भूमि में संग्रहित होता है।
सुभाष पालेकर प्राकृतिक कृषि के प्रयोग
1- बीजामृत (बीज शोधन)
5 किलो गोबर, 5 ली० गौमूत्र, 50 ग्राम चूना, एक मुट्ठी मिट्टी, 20 ली० पानी में मिलाकर 24 घंटे रखें। दिन में दो बार लकड़ी से घोलें। इस घोल से 100 किलो बीजों का उपचार करें और छांया में सुखाकर बोयें।
2- जीवामृत
जीवामृत सूक्ष्म जीवाणुओं का महासागर है, जो पेड़ पौधों के लिए कच्चे पोषक तत्वों को पकाकर पौधों के लिये भोजन तैयार करते हैं। गौमूत्र 5-10 लीटर, गोबर 10 किलो, गुड़ 1-2 किलो, दलहन आटा 1-2 किलो, एक मुट्ठी जीवाणुयुक्त मिट्टी (100 ग्राम), पानी 200 लीटर, मिलाकर, ड्रम को जूट की बोरी से ढककर छाया में रखें। सुबह- शाम डंडा से घड़ी की सुई की दिशा में घोलें। 48 घंटे बाद छानकर सात दिन के अन्दर ही प्रयोग करें।
जीवामृत प्रयोग विधिः
1 एकड़ में 200 लीटर जीवामृत पानी के साथ टपक विधि से या धीमे-धीमे बहा दें। छिड़काव विधि से पहला छिड़काव बुवाई के 1 माह बाद 1 एकड़ में 100 लीटर पानी 5 लीटर जीवामृत मिलाकर करें। दूसरा छिड़काव 21 दिन बाद 1 एकड़ में 150 लीटर पानी व 10 लीटर जीवामृत मिलाकर करें। तीसरा व चौधा छिड़काव 21-21 दिन बाद 1 एकड़ में 200 लीटर पानी व 20 लीटर जीवामृत मिलाकर करें। आखिरी छिड़काव दाने की दूध की अवस्था (Milking Stage) में प्रति एकड़ में 200 लीटर पानी, 5-10 लीटर खट्टी छाछ (मट्ठा) मिलाकर छिड़काव करें।
3- घन जीवामृत:
घन जीवामृत जीवाणुयुक्त सूखा स्वार है जिसे बुवाई के समय या पानी के तीन दिन बाद भी दे सकते हैं। गोबर 100 किलो, गुड़ 1 किलो, आटा दलहन 1 किलो. मिट्टी जीवाणुयुक्त 100 ग्राम उपर्युक्त सामग्री में इतना गौमूत्र (लगभग 5 ली०) मिलायें जिससे हलवा पेस्ट जैसा बन जाये, इसे 48 घंटे छाया में बोरी से ढककर रखें। इसके बाद छाया में ही फैलाकर सुखा लें, बारीक करके बोरी में भरे। इसका 6 माह तक प्रयोग कर सकते हैं। 1 एकड़ में । कुन्तल तैयार घन जीवामृत प्रयोग करना चाहिए।
अच्छादन (Mulching) - भूमि को ढंकना
देशी केंचुओं एवं सूक्ष्म जीवाणुओं के कार्य करने के लिये आवश्यक ‘सूक्ष्म पर्यावरण’ एवं भूमि की नमी को सुरक्षित करने हेतु भूमि को ढंका जाता है। सूक्ष्म पर्यावरण का आशय है पौधों के बीच हवा का तापमान 25-32° नमी 65-72 प्रतिशत व भूमि सतह पर अंधेरा।
जब हम भूमि का काष्ठ प्रदार्थों से या अन्य प्रकार से आच्छादन करते हैं तो सुक्ष्म पर्यावरण का निर्माण होता है व देशी कॅचुओं, सूक्ष्म जीवाणुओं को उपयुक्त वातावरण मिलता है एवं भूमि की नमी का वाष्पन नहीं हो पाता। बाद में काष्ठाच्छादन भूमि में अपघठित होकर उर्वरा शक्ति का निर्माण करता है। सह फसलों द्वारा भी भूमि को सजीव आच्छादन के द्वारा ढका जा सकता है।
बेड व नाली व्यवस्था द्वारा जल की बचत
जड़ें सीधे पानी न लेकर मिट्टी कणों के बीच वाफसा (50 प्रतिशत हवा व 50 प्रतिशत वाष्प) को लेती हैं। ऊँचे तैयार बेड पर फसलो को नालीयों द्वारा पौधों की सिंचाई वाफसा के रुप में उपलब्ध कराने से पानी बहुत कम लगता है। नालीयों को भी आच्छादन से ढक दिया जाता है, जिससे वाष्पन न हो।
बहुफसली पद्धति- फसल चक्र
उचित मिश्रित फसलों को लेने पर फसलों की जड़े सहअस्तित्व के आधार पर रोगों एवं कीटों से बचाव तथा प्राकृतिक संसाधनों (नाइटोजन, प्रकाश, जल, क्षेत्र आदि) का बंटवारा कर लेती हैं। एक दलीय के साथ द्विदलीय दलहन के साथ अनाज व तिलहन, गन्ना के साथ प्याज एवं सब्जियां, पेड़ो की छाया में हल्दी, अदरक, अरखी जैसे प्रयोगों से भूमि को नाइट्रोजन स्वतः प्राप्त हो जाता है।
फफूंद नाशक (फंगीसाइड)
200 लीटर पानी में 5 लीटर खट्टी छाछ/मट्ठा (3 दिन पुरानी) मिलाकर छिड़काव करें। यह विषाणु नाशक भी है।
फसल सुरक्षा (कीट प्रबन्धन)
1. नीमास्त्र (रस चूसने वाले कीड़े, छोटी सुण्डी/इल्लियाँ होने पर नियंत्रक)
(क) 5 किलो नीम की पत्ती/फल।
(ख) देशी गाय का गौमूत्र 5 लीटर।
(ग) 1 किलो देशी गाय का गोबर लें।
(घ) 100 लीटर पानी लें।
नीम की पत्ती और सूखे फलों को कूटकर पानी में मिलायें तत्पश्चात् देशों गाय का गोबर और गौमूत्र मिला लें। मिश्रण को 48 घण्टे बोरे से ढ़ककर छाया में रखें, सुबह शाम लकड़ी से घड़ी की सुई की दिशा में घुमाये। कपड़े से छानकर फसल पर छिड़काव करें।
2. अग्नि अस्त्र (रस चूसने वाले कीड़े, छोटी सुण्डी/इल्लियाँ होने पर नियंत्रक)
(क) 20 लीटर देशी का गाय को गौमूत्र।
(ख) नीम के पत्ते 5 किलोग्राम।
(ग) तम्बाकू पाउडर 500 ग्राम।
(घ) 500 ग्राम तीखी हरी मिर्च की चटनी।
(इ) 500 ग्राम देशी लहसुन की चटनी।
कुटे हुए नीम के पत्ते व अन्य सामग्री गौमूत्र में मिलाकर धीमी आंच पर एक उबाल आने तक उबालें। मिश्रण को 48 घण्टे तक छाया में रखें व सुबह शाम घोलें। इसे कपड़े में छानकर 6 से 8 लीटर घोल 200 लीटर पानी में मिलाकर 1 एकड़ की फसल पर छिड़काव करें। 3 माह के अन्दर ही प्रयोग करें।
3. ब्रह्मास्त्र (बड़ी सुण्डियों/इल्लियों के नियंत्रण हेतु)
(क) 10 लीटर देशी गाय का गौमूत्र।
(ख) नीम के पत्ते 5 किलोग्राम।
(ग) अमरूद, पपीता, आम, अरण्डी की चटनी 2-2 किलोग्राम।
इन वनस्पतियों की चटनी को गौमूत्र में मिलाकर धीमी आंच पर एक उबाल आने तक उबालें। इसके बाद 48 घण्टे तक ठण्डा होने के लिए रख दें। ढाई-तीन लीटर घोल को 100 लीटर पानी में मिलाकर 1 एकड़ की फसल पर छिड़काव करें। घोल का प्रयोग 6 माह तक किया जा सकता है।
4. दशपर्णी अर्क (सभी प्रकार की सुण्डी/इल्लियों के नियंत्रण हेतु)
(क) 200 लीटर पानी।
(ख) देशी गाय का गोबर 2 किलोग्राम।
(ग) वनस्पतियाँ-
नीम/करंज/अरण्डी/सीताफल/बेल/गेंदा/तुलसी/धतूरा/आम/मदार/अमरूद/ अनार/कड़वा/करेला/गुड़हल/कनेर/अर्जुन/हल्दी/अदरक/पवाड़/पपीता इनमें से किन्हीं 10 के 2-2 किलोग्राम पत्ते।
(घ) 500 ग्राम हल्दी पाउडर।
(ड़) 500 ग्राम अदरक की चटनी।
(च) 10 ग्राम हींग पाउडर।
(छ) 1 किलोग्राम तम्बाकू।
(ज) 1 किलोग्राम हरी मिर्च की चटनी।
(झ) 1 किलोग्राम देशी लहसुन की चटनी।
इन सबको मिलाकर लकड़ी से अच्छे से घोलें, बोरी से ढ़ककर छाया में 30-40 दिन रखें व दिन में 2 बार घोलें। इसके बाद कपड़े से छानकर इसका भण्डारण करें। 6 माह तक इसका प्रयोग कर सकते हैं। प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में 6 लीटर दशपर्णी अर्क मिलाकर प्रयोग करें।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।