
जैविक खेती के अन्तर्गत फसलोत्पादन Publish Date : 25/03/2025
जैविक खेती के अन्तर्गत फसलोत्पादन
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
जैविक खेती प्रबन्धन एक ऐसा समन्वित मार्ग है जहाँ खेती के समस्त अवयव एवं प्रणाली परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध होती है तथा एक दूसरे के लिए कार्य करती है। जैविक रूप से स्वस्थ एक सक्रिय भूमि फसल पोषण का श्रोत है तथा खेत की जैव विविधता द्वारा नाशी जीव नियंत्रण होता है। फसल चक्र तथा बहु फसलीय कृषि प्रणाली मृदा स्वास्थ्य के श्रोतों को बनाये रखते हैं। पशुधन समन्वय, उत्पादकता तथा स्थायित्व सुनिश्चित करता है। जैविक प्रबन्धन स्थानीय श्रोतों के अधिकतम उपयोग तथा उत्पादकता पर बल देता है।
प्रबन्धन सिद्धान्त
जीवंत मृदा जैविक खेती का आधार है। जीवंत मृदा उपयुक्त फसल चक्र, फसल अवशिष्ट प्रबन्ध तथा प्रभावी फसल परिवर्तन के साथ लम्बे समय तक बिना किसी उर्वरता हास के लगातार उच्च उत्पादन सुनिश्चित करती है। जैविक खेती ऐसी प्रबन्धन प्रक्रिया है जिसमें मृदा स्वास्थ्य व पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ उच्च गुणवत्ता के उत्पाद भी प्राप्त होते हैं। इसमें वे सभी कृषि प्रक्रियाएँ शामिल हैं, जिनसे पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ अच्छा खाद्य व रेशे प्राप्त हो सकते हों। इन प्रक्रियाओं में मिट्टी की स्थानीय उर्वरता को सफलता का मूल मंत्र रखते हुए पौधों व पशुओं की प्राकृतिक उत्पादन क्षमता तथा स्थानीय पारिस्थितिकी का सम्मान किया जाता है और कृषि तथा पर्यावरण के सभी कारकों में उपयुक्त गुणवत्ता का ध्यान रखा जाता है। जीवंत मृदा हेतु आवश्यक है कि सभी फसल अवशिष्ट व खरपतवार अवशिष्ट वापस मिट्टी में मिला दिये जायें, पशु गोबर व मूत्र आधारित खादों, जैव वृद्धि कारकों, तरल खादों (जैसे वर्मीवाश व कम्पोस्ट अर्क) इत्यादि का प्रत्येक फसल में भरपूर प्रयोग हो।
जैविक नीति सिद्धान्त के अनुसार समस्त फसल अवशिष्ट (अन्न व चारा निकालकर) सीधे या परोक्ष रूप में मिट्टी को लौटा दिया जाना चाहिये। पशुधन व मूत्र को कम्पोस्ट बनाकर डालें। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि जितना भी जैव अंश मानव खाद्य, रेशे, पशु चारा तथा ईधन हेतु निकाला गया है उतना ही जैव अंश किसी न किसी रूप में मिट्टी को लौटा दिया जाये और इसका वर्षवार पूरा लेखा-जोखा रखना चाहिए ताकि सभी पोषक तत्वों की उपलब्धता बनायी रखी जा सके।
फास्फोरस की कमी या अम्लीय मृदा में खनिज रॉक फास्फेट एवं चूना सीधे रूप में या कम्पोस्ट में मिलाकर डालना चाहिए। कम्पोस्ट को और समृद्ध बनाने के लिए विभिन्न जैव उर्वरक भी कम्पोस्ट में मिलाये जा सकते है। विशिष्ट कम्पोस्ट जैसे बायोडायनोमिक कम्पोस्ट, गौ पिट पैट कम्पोस्ट, बायोडायनोमिक सूत्र जैसे बी.डी. 500 एवं बी.डी.501, विशेष उत्पाद जैसे पंचगव्य, दशगव्य, बायोसोल आदि भी उपयोगी समृद्धि कारक निवेश हैं, जिनके प्रयोग से उत्पादन मे अनुकूल वृद्धि होती है। मृदा को और समृद्ध बनाने व कम्पोस्ट तैयार करने हेतु ई. एम. (प्रभावी सूक्ष्म जीवाणु) का प्रयोग भी उपयोगी हैं, अधिक पोषण मांग वाली फसलों तथा समय-समय पर मिट्टी को समृद्ध करने हेतु खली, कुक्कुट खाद, मिश्रण खाद (खली कुक्कुट खाद और रॉक फास्फेट का मिश्रण) इत्यादि का प्रयोग एक उत्तम व कम खर्च उपाय है।
आवश्यक उपाय
जैविक खेती प्रबन्धन योजना बनाने से पूर्व आवश्यक है कि स्थान विशेष व फसलों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ण जानकारी कर एक दीर्घावधि रणनीति बना ली जाये। देश के अधिकांश भागों में जैव अंश के घटते स्तर तथा सूक्ष्म जीवों की घटती संख्या से मृदा स्वास्थ्य एक गंभीर समस्या बन गया है। घटती जल उपलब्धता तथा बढ़ता तापमान समस्या को जटिल बना रहा है। उद्योग व बाजार आधारित निवेश तथा ऊर्जा श्रोतों पर बढ़ती निर्भरता से कृषि एक ऐसे उद्योग में बदल गई हैं जिसमें लागत लगातार बढ़ रही है और लाभ लगातार घट रहे हैं। जैविक कृषि से हमें इन भी समस्याओं का निदान कर न केवल कम लागत की उत्पादन प्रक्रिया विकसित करनी है बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि यह प्रक्रिया टिकाऊ हो और भविष्य के लिए संसाधनों को सुरक्षित कर रखें। जैविक खेती प्रक्रिया के प्रथम चरण में सबसे पहले हमें निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देकर प्रक्रिया समाधान करना होगा।
1. मृदा समृद्धशीलता
रासायनिक निवेशों के प्रयोग को नकारते हुए अधिकाधिक फसल अवशेष का उपयोग, जैविक तथा खाद का प्रयोग, फसल चक्र तथा बहुफसलीय प्रणाली का अपनाया जाना, अधिक व गहरी जुताई का त्याग तथा मृदा को सदा जैविक पदार्थों या पौध अवशेषों को ढक कर रखना (मल्चिंग)।
2. तापक्रम प्रबन्धन
मृदा को ढक कर रखना तथा खेत की मेड़ों पर वृक्ष तथा झाड़ियाँ लगाना।
3. मृदा, जल को सुरक्षित रखना
जल संधारण गड्ढे खोदना, मेड़ों की सीमा-रेखा का रख-रखाव करना, ढलवॉ भूमि पर कन्टूर खेती करना, खेत में तालाब बनाना तथा मेड़ों पर कम ऊँचाई वाले वृक्षारोपण करना।
4. सूर्य ऊर्जा का उपयोग
विभिन्न फसलों के संयोजन तथा पौध रोपण कार्यक्रम के माध्यम से पूरे वर्ष हरियाली बनाये रखें।
5. निवेशों में आत्मनिर्भरता
अपने बीज का स्वयं विकास करें। कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, वर्मीवाश, तरल खाद तथा पौधों के रस/अर्क का फार्म पर उत्पादन करें।
6. प्राकृतिक चक्र तथा जीव स्वरूपों की रक्षा
पक्षी व पौधों के जीवन यापन हेतु प्राकृतिक स्थान का विकास ।
7. पशुधन समन्वय
जैविक प्रबन्धन में पशु एक महत्वपूर्ण अंग है जो पशु उत्पाद ही उपलब्ध नहीं कराते बल्कि मृदा को समृद्ध करने हेतु पर्याप्त गोबर तथा मूत्र भी उपलब्ध कराते है।
8. प्राकृतिक ऊर्जा उपयोग
सूर्य ऊर्जा, बायोगैस, बैल चलित पंप तथा अन्य यंत्रों का प्रयोग।
जैविक फार्म का विकास
जैविक प्रबन्धन एक समन्वित प्रक्रिया है, जिसमें एक या कुछ बिन्दुओं को अपनाकर आशानुरूप उपलब्धि या परिणाम प्राप्त नहीं किये जा सकते। उपयुक्त उत्पादन हेतु आवश्यक बिन्दुओं के क्रमबद्ध विकास की आवश्यकता है। ये अंग है:-
- आवास विकास
- निवेशों के उत्पादन हेतु फार्म पर सुविधाएँ।
- फसल चक्र एवं फसल परिवर्तन योजना
- 3-4 वर्षीय फसल चक्र नियोजन।
- जलवायु मृदा व क्षेत्रीय उपयुक्तता के आधार पर फसलों का चयन।
सुविधाओं का निर्माण
फार्म के कुल क्षेत्रफल का 3-5% स्थान पशुधन, वर्मी कम्पोस्ट, कम्पोस्ट, वर्मीवाश, कम्पोस्ट अर्क आदि बनाने हेतु सुरक्षित करें। छाया हेतु 6-7 वृक्ष इस स्थान पर लगा दें। पानी के बहाव तथा भूमि के ढलान पर निर्भर करते हुए कुछ जल शोषण टैंक (7x3x3 मी.) वर्षा जल संधारण हेतु (एक टैंक प्रति एकड़ की दर से) उचित स्थानों पर बनायें। यदि संभव हो तो एक 10X10 मी.माप का एक तालाब भी फार्म पर बनायें। तरल खाद हेतु 200 ली. क्षमता के ड्रम तथा कुछ पात्र वानस्पतिक अर्क हेतु तैयार करें। एक एकड़ के फार्म हेतु 1 वर्मी कम्पोस्ट शय्या, 1 वर्मीवाश व 1 कम्पोस्ट अर्क इकाई की आवश्यकता होगी। बायोडायनेमिक सूत्र 500 तथा 501 काफी प्रभावी निवेश है। इन दोनों सूत्रों के उत्पादन हेतु आवश्यक सुविधाएँ भी जुटानी चाहिए। एक एकड़ फार्म हेतु 2 से 3 सींग उत्पाद पर्याप्त होंगे।
आवास एवं जैव विविधता
विभिन्न जीवों स्वरूपों के पालन पोषण के लिए उपयुक्त आवास निर्माण जैविक खेती प्रबन्धन का एक प्रमुख अंग है। इसे उस स्थान की विशिष्ट मौसम अनुकूलतानुसार विभिन्न प्रकार की फसलों, अलग-अलग प्रकार के बहुपयोगी वृक्ष एवं झाड़ियाँ लगाकर प्राप्त किया जा सकता है। ये पेड़ एवं पौधे न केवल जमीन व गहराई व वायु में उपलब्ध पोषक तत्वों को अवशोषित कर मिट्टी की ऊपरी सतह में संग्रहित करते हैं अपितु पक्षियों, परभक्षियों, मित्र कीटों को आश्रय भी सुनिश्चित करते हैं। हो सकता है कि इन वृक्षों व झाड़ियों की छाया से कुछ कम फसलोत्पादन हो पर इस क्षति को कीटों से बचाव करके एवं जैविक कीट नियन्त्रण प्रणाली से होने वाले फायदों द्वारा पूरा किया जा सकता है। एक एकड़ के फार्म पर 1 नीम, 1 गूलर, 2 बेर, एक आँवला व एक से दो सहजन के पेड़ लगाने चाहिए।
अतिविशिष्टता के आधार पर यदि हम क्षेत्रों के आर्द्र एवं सूखे क्षेत्र में विभाजित करें तो गीले या आर्द्रता वाले क्षेत्र में नीम, वुड एप्पल, अमरूद, मुनगा / सहजन, अंजीर एवं शहतूत आदि लगाने चाहिए तथा सूखे क्षेत्रों में नीम, बेल पत्र फल, बेर और सीताफल (शरीफा), आँवला, मुनगा / सहजन, निरगुंडी आदि के पेड़ लगाने चाहिए।
फल उद्यानों में भी समुचित विविधता बनाये रखने के लिए 3 से 5 प्रकार के फलीय पौधे एवं गैर फलीय पौधे उपरोक्तानुसार लगाने चाहिए।
सभी प्रमुख खेतों / भूखण्ड के चारों और लगभग डेढ़ मीटर की मेड़ बनाकर उन पर ग्लिरीसीडिया, सिसबानिया (कैंचा), सुबबूल, केसिया, सीमिया आदि पेड़ लगाने चाहिए। छोटे भूखण्ड मेड़ों पर अरहर, क्रोटोलेरिया, मौसमी सिसबानिया के पौधे आदि लगाने चाहिए। समय-समय पर इन पौधों की पत्तियाँ व टहनियाँ काटकर खेतों में डालने से भरपूर मात्रा में जैविक रूप से स्थिरीकृत नत्रजन की प्राप्ति होती है। ध्यान रहे, मेड़ों पर लगी ये झाड़ियाँ डेढ़ मीटर से अधिक चौड़ी तथा 5.5 फुट से अधिक ऊँची न हो पायें। समय-समय पर इनकी कटाई-छंटाई करें तथा निकाली पत्तियों व टहनियों को उसी खेत में मल्च रूप में फैलाकर डाल दें।
ग्लिरीसीडिया/सिसबानिया पौधों के बीच-बीच में कीटनाशी मूल के पौध जैसे - एडेथोड़ा निर्गुन्डी, ऑक, धतूरा तथा बेशरम / बेहया के पौधे आदि लगाना चाहिए। फार्म या बगीचे के चारों ओर एवं जीवंतता प्रदान करने के लिए बहुपयोगी, गहरी जड़ों वाले पेड़ व झाड़ियाँ लगानी चाहिएं। पारिस्थितिकी जैव विविधता सफल जैविक खेती प्रणाली बनाये रखने का प्रमुख अवयव है।
कम्पोस्ट व पशुधन आरक्षित स्थानों पर बड़े पेड़ों को बढ़ने दिया जाना चाहिए। फार्म के चारों ओर मुख्य मेड़ो पर कम फासले से उपयुक्त बाड़ लगायें और निश्चित अतंराल पर इन्हें काट-छांट कर खेतों में डालते रहें। यह बाड़ मात्र जैविक घेरा बंदी का कार्य ही नहीं करेगी बल्कि जैविक रूप से स्थिरीकृत नत्रजन से खेतों की भूमि को समृद्ध भी करेगी। ग्लिरीसिडिया की 400 मीटर लम्बी पट्टी तीसरे वर्ष से 22.5 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हे० तथा सातवें वर्ष से 77 कि.ग्रा. प्रति हे० प्रतिवर्ष उपलब्ध करा सकती है। यह मात्रा सिंचित दशाओं में 75 से 100 प्रतिशत अधिक हो सकती है। सिंचित दशा में 3-4 बार तथा असिंचित दशा में दो बार कटाई-छंटाई की जा सकती है। छाया का कुप्रभाव रोकने हेतु इन पौधों को 5.50 फुट से अधिक कभी न बढ़ने दें। हर तीसरे / चौथे महीने में छंटाई करते रहें और अवशेषों को हरी खाद के रूप में प्रयोग करें। पत्तियाँ आदि को कटाई के बाद मिट्टी में मिला दें अथवा मल्च के रूप में प्रयोग करें।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।