राई-सरसों के प्रमुख रोग और उनका प्रबन्धन      Publish Date : 08/10/2025

              राई-सरसों के प्रमुख रोग और उनका प्रबन्धन

                                                                                                                                                            प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता

पर्ण चित्ती काला धब्बाः यह बीमारी पौधों की निचली पत्तियों पर छोटे-छोटे गहरे भूरे रंग के बिन्दु के रूप में प्रकट होती है, जो कि तेजी से बढ़कर एक सेण्टीमीटर तक के वृत्ताकार बड़े धब्बों का रूप ले लेती है और इन्हीं धब्बों पर संकेन्द्रीय वलय भी बन जाते हैं। यह रोग तीव्र गति से बढ़कर ऊपर की पत्तियों, तनों व फलियों को ग्रसित करता है। ग्रसित फलियों का बीज भी प्रभावित होकर सिकुड़ कर छोटा हो जाता है और अधिक उग्रता होने पर बीज सड़ भी जाता है।

रोग के अनुकूल परिस्थितियों में पत्तियों के धब्बे आपस में मिलकर अंगमारी के लक्षण प्रकट करते हैं और पत्तियां मुरझाकर गिरने लगती हैं। नम (7 0 प्रतिशत से अधिक आर्द्रता) व गर्म (12-15 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान) जलवायु का रोग फैलाव के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। इसके अलावा रुक-रुक कर होने वाली वर्षा भी रोग फैलाव में सहायक होती है।

                                                                    

रोग का प्रबंधनः स्वस्थ व प्रमाणित बीज प्रयोग में लाएं। रोग-ग्रसित फसल अवशेषों को जलाकर नष्ट कर दें तथा खरपतवार की नियमित सफाई करें। इसके अतिरिक्त आईप्रोडियॉन (रोवरॉल)/मैंनकोजेब (डाइथेन एम 45) फफूंदीनाशक के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव फसल पर रोग के दिखाई देते ही 15-15 दिन के अन्तर से अधिकतम तीन छिड़काव करें।

सफेद रतुवा या श्वेत किट्ट रोग:

रोग के लक्षणः रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर 1-2 मिमी. व्यास के स्वच्छ व सफेद रंग के छोटे-छोटे फफोले (विस्फोट) बनते हैं जो कि बाद में आपस में मिलकर अनियमित आकार ग्रहण करते हैं। इन फफोलों के ठीक ऊपर पत्ती की ऊपरी सतह पर गहरे भूरे/कत्थई रंग के धब्बे दिखने लगते हैं। रोग के पूर्ण विकसित हो जाने पर फफोले फट जाते हैं और सफेद/भूरे चूर्ण के रूप में बीजाणुधानियां फैल जाती हैं। रोग की उग्रावस्था में तना व फलियों पर भी ऐसे फफोले बन जाते हैं।

रोग का प्रबंधनः समय से बुवाई करें (10-25 अक्टूबर के मध्य)। स्वस्थ व प्रमाणित बीज का ही उपयोग करें। रोग ग्रसित फसल अवशेषों को जला कर या जमीन में गाड़ कर नष्ट कर दें। फसल को खरपतवार से मुक्त बनाकर रखें। मेटालेक्जिल (एप्रॉन 35 एस.डी.) से बीजोपचार 6 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करने से बीज द्वारा पनपने वाले रोगों को रोका जा सकता है। फसल पर रोग के लक्षण दिखते ही मेन्कोजेब (डाइथेन एम 45)/रिडोमिल एमजेड-72 डब्ल्यू.पी. फफूंदनाशक के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव 15-15 दिन के अन्तर पर करने से सफेद रतुवा से बचाया जा सकता है। अधिकतम तीन छिड़काव ही आर्थिक दृष्टिकोण से उचित होते हैं।

फसल की सिंचाई आवश्यकता से अधिक न करें। रोग के लक्षण प्रकट होने पर तना काफी लम्बाई तक सूज सा जाता है, जिससे तना झुक जाता है। पत्तियों व अन्य पुष्पांगों पर सूजन बहुत स्पष्ट नहीं होती, किन्तु अंडाशय मुड़ाकर एवं बढ़कर फैल जाता है। इससे कलियां कमजोर हो जाती हैं व पुष्प के सभी भाग छितरा से जाते हैं।

सूजे हुए पुष्पांगों पर मृदुरोमिल आसिता व सफेद रतुवा के मिश्रित लक्षण भी दिखाई देते हैं। नम (90 प्रतिशत से अधिक आर्द्रता) व ठण्डी (10-20 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान) जलवायु इस रोग के फैलाव हेतु अति उपयुक्त होता है।

रोग का प्रबंधनः सफेद रतुआ रोग के प्रबंधन इस रोग के प्रबन्धन के लिए भी उपयुक्त रहते है।

चूर्ण आसिता रोगः रोग से ग्रसित पौधों की वृद्धि रुकने से पौधे बौने रह जाते हैं और उन पर फलियां भी कम बनती हैं। ग्रसित फलियों में बीज सिकुड़ें, छोटे व सीमित मात्रा में केवल आधार भाग पर ही बन पाते हैं, जबकि ऊपर का हिस्सा मुड़ा हुआ व खाली रहता है। रोग का प्रकोप शुष्क मौसम में अत्यधिक होता है।

उच्च तापमान (15-28 डिग्री सेन्टीग्रेड) निम्न आर्द्रता (60 प्रतिशत से कम आर्द्रता) बहुत कम/नगण्य वर्षा एवं थोड़ा पवन वेग आदि रोग फैलाव हेतु महत्वपूर्ण कारक हैं।

रोग का प्रबंधनः फसल की बुआई समय बीजोपचार करें। रोगग्रसित फसल अवशेषों को जला कर या गाड़कर नष्ट कर दें। घुलनशील गंधक (0.2 प्रतिशत) या डिनोकाप (0.1 प्रतिशत) की वांछित मात्रा का घोल बनाकर रोग के प्रारंभ होते ही छिड़काव करें। आवश्यकता होने पर 15 दिन के बाद पुनः छिड़काव करें।

तना गलन रोग (स्कलेरोटीनिया तना सड़न): रोग ग्रसित तने की सतह पर या मज्जा में भूरी सफेद या काली काली गोल आकृति की संरचनाएं (स्कलेरोशिया) पाई जाती है। अत्यधिक आर्द्रता (90-95 प्रतिशत आर्द्रता), औसत तापमान (18-25 डिग्री सेन्टीग्रेट) और पवनीय बहाव इस रोग के फैलाव के प्रमुख कारक होते हैं।

रोग का प्रबंधनः स्वस्थ, स्वच्छ व रोग रहित बीज के उपयोग को ही प्राथमिकता प्रदान करें। रोग से ग्रसित फसल अवशेषों को जला कर या जमीन में गाड़ कर नष्ट कर दें। गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें। गेहूँ, जौ, धान व मक्का इत्यादि फसलों की बुआई करें जो रोग ग्राही न हो और समुचित फसल चक्र अपनाएं। कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत) फफूंदीनाशक का छिड़काव दो बार फूल आने के समय 20 दिन के अन्तराल, (बुआई के 50वें व 70वें दिन) पर करने से रोग से प्रभावी बचाव किया जा सकता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।