
फसल रोग प्रबन्धनः रासायनिक जैवनाशियों के वानस्पातिक विकल्प Publish Date : 28/08/2025
फसल रोग प्रबन्धनः रासायनिक जैवनाशियों के वानस्पातिक विकल्प
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
भारत में फसलों में होने वाले कीटों एवं रोग प्रकोप के चलते प्रतिवर्ष 18-30 प्रतिशत तक फसलें खराब हो जाती हैं, जिसके कारण देश को प्रतिवर्ष लगभग 1,00,000 करोड़ रूपए की आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। ऐसे में रोगों और कीटों के प्रकोप को रोकने के लिए किसानों को रासायनिक कीटनाशक एवं व्याधि नियंत्रक रसायनों का प्रयोग करना पड़ता है।
इसके चलते इन रसायनों की खपत जहाँ वर्ष 1954 में 434 टन थी, वहीं वर्ष 1990 में यह खपत 90 हजार टन तक पहुँच चुकी थी, जो कि वर्तमान में 60 हजार टन के आसपास है।
इस बात में तो तनिक भी सन्देह नहीं है कि अभी तक हम कीटों और रोगों को रोकने के प्रयास में हम काफी हद तक सफल भी रहें हैं। परन्तु इसके साथ ही रासायनिक जीवनाशियों के प्रति कीटों की निरोधक क्षमता, जो कि वर्ष 1954 में केवल 7 नाशीकीटों में विद्यमान थी, आज के समय में 600 से अधिक नाशीकीटों में पाई गई है।
इसी प्रकार से फफूंद की भी ऐसी कई प्रजातियां है, जिनमें रासायनिक फफूंदनाशियों के विरूद्व प्रतिरोधक क्षमता अधिक पाई गई है। यही वह कारण है जिसके चलते वर्तमान समय में पौधों में लगने वाले विभिन्न रोगों की रोकथाम के लिए वैकल्पिक तरीकों की आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा है, जिससे कि रासायनिक जीवनाशियों पर निर्भरता को कम किया जा सके।
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के द्वारा वर्ष 1966 में जारी की गई एक पिोर्ट के अनुसार, बाजार में उपलब्ध लगभग 51 प्रतिशत कृषिगत उत्पादों में हानिकारक रासायनिक जीवनाशियों के अवशेष पाए गए है, जिनमें से लगभग 20 प्रतिशत कृषि के उत्पादों में तो यह मात्रा जीवनाशियों की निर्धारित न्यूनतम सुरक्षित स्तर से भी अधिक थी।
कृषि के अन्तर्गत रासायनिक जीवनाशियों का प्रयोग करने से कृषिगत उत्पादों में इन रसायनों के अवशेषों से युक्त इन उत्पादों का सेवन करने से लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
छुनियाभर में प्रति वर्ष रासायनिक फफूंदनाशियों और कीटनाशियों की तीव विषाक्तता से अनजाने में लगभग 385 मिलियन किसान और अन्य लोग प्रभावित होते हैं और इनमें से लगभग 15,000 लोगों की मृत्यु भी हो जाती है।
इस प्रकार से यदि हम कृषि के लिए प्रयुक्त किए जाने वाल इन कीटनाशियों की विषाक्तता की सीमा का विशलेषण करें तो पाते है कि वैश्विक कृषि भूमि का 64 प्रतिशत भूभाग एक से अधिक प्रकार के कीटनाशी अणुओं के द्वारा प्रदूषण के खतरे की गिरफ्त में है और 31 प्रतिशत भूभाग उच्च जोखिम की श्रेणी में आता है।
यदि इसके सम्बन्ध में भारत की बात करें तो यहाँ वर्ष 2008-18 के दौरान फल और सब्जियों के सहित 2.1 प्रतिशत खाद्य नमूनों में कीटनाशकों के अवशेष न्यूनतम स्तर से अधिक पाए गए।
इस परिप्रेक्ष्य में विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र के द्वारा संचालित पर्यावरण कार्यक्रम के आंकड़ों के अनुसार, कृषि में रासायनिक जीवनाशियों के जहर से विकासशील देशों में प्रति वर्ष 30 लाख से अधिक लोग प्रभावित होते हैं। वहीं भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार बाजार में उपलब्ध 18 प्रतिशत सब्यिों और 12 प्रतिशत फलों के नमूनों रासायनिक कीटनाशियों के अवशेष उपलब्ध पाए गए, जिनमें प्रतिबन्धित रसायन भी शामिल हैं।
इस प्रकार से कृषि उत्पादों में विद्यमान इन हानिकारक रसायनों का सेवन करने से मनुष्य के शरीर में विभिन्न प्रकार के गम्भीर रोग पनपते हैं, जिनमें कैंसर, हृदय रोग, सिरदर्द, बांझपन और आंखों से सम्बन्धित रोग प्रमुख हैं।
कृषि कार्य हेतु प्रयुक्त की जाने वाली भूमि अपने आप में एक सजीव माध्यम है, जिसके अंदर फसलों के लिए उपयोगी विभिन्न प्रकार के जीवाणु विद्यमान होते हैं, जो फसलों की बढ़ोत्तरी और अच्छे उत्पादन में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान करते हैं।
इन रासायनिक जीवनाशियों की फसलों में रोगों एवं नाशीकीटों आदि के प्रबन्धन में इनकी दीर्घकालिक उपयोगिता पर भी एक प्रश्न चिन्ह है, क्योंकि इन रासायनिक जीवनाशियों का एक और बुरा असर हमारे पर्यावरण और भूमण्ड़ल पर मौजूद दूसरे जीव जन्तुओं पर भी पड़ हा है, जिनका जीवनचक्र भी इन रसायनों से प्रभावित हो रहा है। अतः इन रासायनिक जीवनाशियों से जलवायु परिवर्तन के खतरे में भी वृद्वि हो रही है।
ऐसे में हमें स्थानीय तौर पर उपलब्ध पर आधारित जीवनाशियों को विकसित करने की आवश्यकता है, जो पर्यावरण के अनुकूल होने के साथ ही साथ हमे फसलों का दीर्घकालीन रोग प्रबन्धन भी प्रदान कर सके।
हमारा देश इस प्रकार के वानस्पातिक एवं अन्य दूसरे जैविक संसाधनों से सम्पन्न है, जिनका उपयोग कर बेहतर जीवनाशी तैयार किए जा सकते हैं। एक तथ्य के अनुसार भारत में 2 करोड़ के आस पास नीम के वृक्ष उपलब्ध हैं, जिनके माध्यम से लगभग 30 लाख टन बीज का उत्पादन प्राप्त होता है और इस बीज से 7 लाख टन तेल और 20 लाख टन से अधिक खली निकलने की क्षमता होती है।
नीम का तेल और इसकी खली
नीम का तेल और इसकी खली का उपयोग फसलों के रोग प्रबन्धन के लिए किया जा सकता है, भारत में रासायनिक जीवनाशियों की वार्षिक खपत 60,000 टन के आसपास है और अकेले नीम के वृक्ष् में ऐसी क्षमता उपलब्ध होती है, जिसके माध्यम से समस्त प्रकार की फसलों के रोग और नाशीकीटों का प्रबन्धन सफलता पूर्वक किया जा सकता है। इस प्रकार से यदि देखा जाए तो फसलों की तमाम रोगों एवं नाशीजीवों सुरक्षा अकेले नीम से ही की जा सकती है।
भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की कुछ महत्वपूर्ण परियोजनाओं में डॉ0 यशवंत सिंह परमापर औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी, सोलन के पादप रोग विज्ञान विभाग में पौधों की कुछ प्रजातियों और गाय के मूत्र से तैयार किए गए रासायनिक जीवनाशियों के ऐसे विकल्प हैं, जो फलों और सब्जियों के विभिन्न प्रकार के रोगों के विरूद्व काफी प्रभावी पाए गए हैं।
शोधकर्ताओं से प्राप्त आंकड़ें बताते हैं कि हम नीम के द्वारा तैयार किए गए जीवनाशियों से फसलों के 200 से अधिक नाशीकीट तथा 50 से अधिक रोगों की प्रभावी रोकथाम कर सकते हैं।
जैविक कीटनाशियों के साथ गोमूत्र
नीम के अलावा भी 200 से अधिक ऐसे स्थानीय पौधे हैं जिनका उपयोग रोगों और कीटनाशी के रूप में किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त पौधों से प्राप्त इन जैविक कीटनाशियों का प्रयोग गोमूत्र के साथ भी किया जा सकता है।
ऐसे पौधों का चयन उनके कीटनाशी गुणों के आधार पर किया जाता है। पौधों के विभिन्न भागों जैसे बीज और उनसे निकलने वाला तेल, छाल या पत्तों का पाउडर, खली, गौंद और लेटेक्स आदि से बने पदार्थ का उपयोग पौधों की विभिन्न बीमारियां नियंत्रित करने के लिए किया जा रहा है। यह पदार्थ ठंड़े पानी, गरम पानी के अतिरिक्त अन्य रासायनिक घोलों के साथ बनाए जाते हैं।
पौधों से बने यह पदार्थ रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं की रोकथाम विभिन्न तरीको से जैसे पौधों की रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाकर, रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं की पैदावार को रोककर, जीवाणु विरोधी रसायनों का उत्पादन कर और जीवाणुओं में विकृति पैदा कर या उनकी भौतिक क्रियाओं को रोककर आदि के माध्यम से की जा सकती है।
कीटाणुनाशक क्षमता रखने वाले कुछ प्रमुख पौधे
रोगकारक फफूंद और जीवाणुओं के विरूद्व क्षमता रखने वाले कुछ पौधों में पमुख रूप से नीम (अजाडिरैक्टा इंडिका), दरेक (मीलिया अजाडिरैक), कव्या (रोयलिया एलेगंस), लहसुन (एलियम स्टाइवस), फूल बूटी (लेनटाना केमेरा), तुलसी (ओसिमम सेंकटम), अलो बारबैडैनासिस, बोगेनविलिया ग्लाबरा, यूकेलिप्टस ग्लोबूल्स, मैंथा लौंगीॅफोलिया, ओसिमम सैंकअम, रोयालिया ऐलिगंस, क्रिप्टोलैप्सिस बुचानानी, मैंथा पिपरीटा, थूजा चाइनैनसिज, ऑर्टिका डाईवोसिया, विटैक्स निगुंडों, पोगौसटिमोन बैंधलैंन्सिस, ऑटिमिसीया रौक्सबरघियाना, मीलिया अजाडिरैक, धतूरा स्ट्रेमोनियम, लाउसिनिया इनरमिस, गैन्दा (टेजेटस इरेक्टा), यूकेलिप्टस ग्लोबस, विंसा रोसिए और निरियम ओडोरम आदि मुख्य रूप से पौधों के रोग कारकों एवं नाशीकीटों के विरूद्व प्रयोग किए जा सकते हैं।
इसके साथ ही इन पौधों में नीम और दरेक के बीज एवं पत्तों का भी प्रयोग किया जाता है, जबकि अन्य पौधों केवल पत्तों का ही उपयोग किया जाता है।
प्रदूषित फल
पूरी दुनिया में रासायनिक कीटनाशियों के रूप में छिड़काव से सबसे अधिक प्रदूषित होने वाला फल स्ट्राबेरी है। ऐसा इस फल की बाहरी संरचना के चलते होता है, क्योंकि इस पौधें में फल बनने के बाद किया जाने वाले छिड़काव को यह फल अपने अंदर सोख लेता है, जिसके चलते उसमें जीवनाशी रसायनों के अवशेष रह जाते हैं। इसी प्रकार टमाटर, सेब, शिमला मिर्च और गोभी वर्गीय फसलों में भी रोग एवं कीटनाशियों का संक्रमण होने का खतरा अधिक रहता है।
पौधों से प्राप्त प्रभावशाली विकल्प
पादप रोगों के विरूद्व मारक क्षमता रखने वाले पौध मिश्रण की सहायता से रासायनिक फफूंदनाशियों का प्रभावशाली विकल्प तैयार किया जा सकता है। रोगों के विरूद्व मारक क्षमता से युक्त पौधों का विवरण दिया गया है, जिनमें से अधिकतर हमारे देश के अलग-अलग भागों में आसानी से खेतों अथवा आसपास के जंगलों में मिल जाते हैं।
इन पौधों से प्राप्त घोल का छिड़काव करने का तरीका भी बहुत आसान होता है। उपरोक्त पौधों में से हमारे आसपास जितने प्रकार के पौधे भी उपलब्ध हों उनके बीज या पत्ते जितनी मात्रा में उपलब्ध हैं उन्हें एकत्र करलें और उनसे प्राप्त बीजों को अच्छी जरह से कूट-पीस लें तथा पत्तों और कोमल टहनियों को धास काटने वाली मशीन से छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लेना चाहिए। इतना सब कर लेने के बाद 200 लीटर की क्ष्मता वाला एक प्लास्टिक ड्रम, में 100 लीटर गोमूत्र अथवा पानी भर लें और इसके बाद विभिन्न पौधों से एकत्र किए गए 50 किलोग्राम के आसपास पिसे हुए बीज और पत्तों को मिक्स कर दें।
उपरोक्त तैयार मिश्रण को लगभग एक तहीने तक ऐसे ही रहने दिया जाए, जिससे कि इसमें पौधों के बीज और पत्ते अच्छी तरह से गल जाएं, एक महीने के बाद इस मिश्रण को अच्छी तरह से घोल लें जिससे कि बीज एवं पत्तों के तत्व और उनका रस ठीक प्रकार से बाहर निकल आए और इस प्रकार से तैयार किए गए घोल को मलमल के कपड़े से छाान कर अपनी फसल पर इसका स्प्रे करें।
पिसे हुए बीज और पत्तों के मिश्रण को ग्राइंडर से पीस कर भी पानी में मिलाया जा सकता है, इससे यह घोल आसानी आर शीघ्रता से तैयार हो जाता है। इस प्रकार से बनाए गए घोल की सघनता 50 प्रतिशत तक होती है।
विभिन्न फसलों में छिड़काव करने के लिए 10 प्रतिशत सघनता वाले घोल का प्रयोग किया जाता है। वानस्पतिक जीवनाशियों का प्रयोग विभिन्न फसलों में पौधों के ऊपर किया जा सकता है।
दुनियाभर के शोधकर्ताओं के द्वारा इन जीवनाशी घोलों की उपयोगिता फसलों के महत्वपूर्ण रोगों के विरूद्व प्रमाणित की जा चुकी है। पौधों से बने रोगाणुओं के विरूद्व इन जीवनाशियों का प्रयोग करते समय कुछ सावधानियां बरती जानी भी अपेक्षित हैं। रासायनिक जीवनाशियों का छिड़काव करने के बाद जिस तरह से फसल को तोड़ने के लिए इंतजार करना होता है, ऐसा इन जैविक जीवनाशियों का छिड़काव करने के बाद नहीं करना होता है। इसके साथ ही इन जैविक जीवनाशियों का प्रयोग जैविक खेती में भी किया जा सकता है।
इस प्रकार से इन जीवनाशियों के उपयोग से जहाँ एक ओर लाभकारी सूक्ष्म जीवाणुओं और कीटों से सुरक्षा सुनिश्चित् कर सकते हैं, उसी के साथ पर्यावरण की रक्षा भी की जा सकती है और इस प्रकार से इस पृथ्वी पर मौजूद दूसरे जीवों के लिए भी एक अच्छा वातावरण तैयार किया जा सकता है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।