वर्ष 1960 और उसके बाद जन्में लोगों के लिए स्पेशल      Publish Date : 03/09/2025

           वर्ष 1960 और उसके बाद जन्में लोगों के लिए स्पेशल

                                                                                                                                                                          प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा  

जिन लोगों का जन्म वर्ष 1960, 1961, 1962, 1963, 1964, 1965, 1966, 1967, 1968, 1969, 1970, 1971, 1972, 1973, 1974, 1975, 1976, 1977, 1978, 1979 और 1980 में हुआ है, यह  लेख स्पेशल उन्हीं के लिए समर्पित है-

  • यह पीढ़ी अब 45 पार करके 65- 70 वर्ष की आयु की ओर बढ़ रही है।
  • इस पीढ़ी की सबसे बड़ी सफलता यह है कि इसने अपने जीवन में बहुत बड़े-बड़े बदलाव देखे और उन्हें आत्मसात भी किया।
  • 1, 2, 5, 10, 20, 25, 50 पैसे के सिक्के देखने वाली यह पीढ़ी बिना झिझक मेहमानों से पैसे ले लिया करती थी।
  • स्याही कलम/पेंसिल/पेन से शुरुआत कर आज यह पीढ़ी स्मार्टफोन, लैपटॉप, पीसी को भी बखूबी चला रही है।
  • इन लोगों के बचपन में साइकिल भी एक विलासिता की चीज हुआ करती थी, वही लोग आज बखूबी स्कूटर और कार भी उसी अधिकार से चलाते है।
  • कभी चंचल तो कभी गंभीर बहुत सहा और बहुत भोगा, लेकिन संस्कारों में पली-बढ़ी है हमारी यह पीढ़ी।
  • टेप रिकॉर्डर, पॉकेट ट्रांजिस्टर जो कभी बड़ी कमाई का प्रतीक होते थे।
  • मार्कशीट और टीवी के आने से भी जिसका बचपन बरबाद नहीं हुआ, वही यह आखिरी पीढ़ी है।
  • कुकर की रिंग्स, टायर लेकर बचपन में “गाड़ी-गाड़ी खेलना” इन्हें कभी छोटा खेल नहीं लगता था।
  • “सलाई को ज़मीन में गाड़ते जाना” यह भी एक खेल था, जो बहुत मज़ेदार होता था।
  • “कैरी (कच्चे आम) तोड़ना” इनके लिए कोई चोरी करना या कोई अपराध नहीं था।
  • किसी भी वक्त किसी के भी घर की कुंडी खटखटाना गलत नहीं माना जाता था।
  • रास्ते में जाते हुए किसी की डोर बेल बजा कर भाग जाना इनका प्रिय शगल हुआ करता था।
  • “दोस्त की माँ ने खाना खिला दिया” तो इसमें कोई उपकार का भाव नहीं होता था, और “उसके पिताजी ने यदि डांटा” तो इसमें भी कोई गुस्से या बुरा मानने वाली बात भी नहीं की सोच रखने वाली यह आखिरी पीढ़ी है।
  • कक्षा में या स्कूल में अपनी बहन से भी मज़ाक के दौरान उल्टा-सीधा बोल देने वाली थी हमारी यह पीढ़ी।
  • दो दिन अगर कोई दोस्त स्कूल न आया तो स्कूल छूटते ही बस्ता लेकर सीधे उसके घर पहुँच जाने वाली हुआ करती थी हमारी यह पीढ़ी।
  • किसी भी दोस्त के पिताजी अगर अचानक स्कूल में आ जाएँ तो - मित्र कहीं भी खेल रहा हो, दौड़ते हुए जाकर उसे यह खबर देना खूबी थी इस पीढ़ी की।
  • “तेरे पापा आ गए हैं, चल जल्दी” यही उस समय की ब्रेकिंग न्यूज़ भी हुआ करती थी।
  • लेकिन मोहल्ले में किसी भी घर में कोई कार्यक्रम हो तो बिना संकोच, बिना विधि और निषेध के काम करने वाली थी यह पीढ़ी।
  • कपिल देव, सुनील गावस्कर, वेंकट, प्रसन्ना की बल्लेबाजी और गेंदबाज़ी देखी, तो पीट सम्प्रस, महेश भूपति, स्टेफी ग्राफ और आगासी का टेनिस भी देखा, राज, दिलीप, धर्मेंद्र, जितेंद्र, अमिताभ, राजेश खन्ना, आमिर, सलमान, शाहरुख, माधुरी इन सब पर फिदा रहने वाली थी यह पीढ़ी।
  • आपस में पैसे मिलाकर भाड़े पर वीसीआर लाकर एक रात में 4-5 फिल्में एक साथ देखने वाली है यह पीढ़ी।
  • लक्ष्या-अशोक के विनोद पर खिलखिलाकर हँसने वाली, नाना, ओम पुरी, शबाना, स्मिता पाटिल, गोविंदा, जग्गू दादा, सोनाली जैसे कलाकारों को देखने वाली है यह पीढ़ी।
  • “शिक्षक से पिटना” - इसमें कोई बुराई नहीं थी, बस डर यह रहता था कि घर वालों को न पता चले, वरना वहाँ भी पिटाई होगी।
  • शिक्षक पर आवाज़ ऊँची न करने वाली थी हमारी यह पीढ़ी।
  • चाहे जितना भी पिटाई हुई हो, दशहरे पर उन्हें सम्मान अर्पण करने वाली और आज भी कहीं रिटायर्ड शिक्षक दिख जाएँ तो निसंकोच झुककर प्रणाम करने और उनके चरण स्पर्श करने वाली है यह पीढ़ी।
  • कॉलेज में छुट्टी हो तो यादों में सपने बुनने वाली पीढ़ी, न मोबाइल, न एसएमएस और न व्हाट्सऐप वाली है यह पीढ़ी।
  • सिर्फ मिलने को आतुर और प्रतीक्षा करने वाली पीढ़ी।
  • पंकज उधास की ग़ज़ल “तूने पैसा बहुत कमाया, इस पैसे ने देश छुड़ाया” सुनकर आँखें पोंछने वाली है हमारी यह पीढ़ी।
  • दीवाली की पाँच दिन की कहानी जानने वाली।
  • लिव-इन तो छोड़िए, लव मैरिज भी बहुत बड़ा “डेरिंग” समझने वाली थी यह पीढ़ी।
  • स्कूल-कॉलेज में लड़कियों से बात करने वाले लड़के भी एडवांस कहलाते थे।
  • फिर से आँखें मूँदें तो वो दस, बीस, अस्सी, नब्बे, वाली वही सुनहरी यादें।
  • गुज़रे दिन तो फिर लोटकर नहीं आते, लेकिन उनकी यादें हमेशा साथ रहती हैं।
  • यह समझने वाली समझदार पीढ़ी थी कि - आज के दिन भी कल की सुनहरी यादें बनेंगे।

हमारा भी एक ज़माना था

तब बालवाड़ी (प्ले स्कूल) जैसा कोई कॉन्सेप्ट ही उपलब्ध नहीं था।

6-7 साल पूरे होने के बाद ही सीधे स्कूल भेजा जाता था। अगर स्कूल न भी जाएँ तो भी किसी को फर्क नहीं पड़ता था।

न साइकिल से, न बस से भेजने का रिवाज़ था। बच्चे अकेले स्कूल जाएँ, कुछ अनहोनी हो जाएगी- ऐसा डर माता-पिता को कभी नहीं हुआ।

  • पास/फेल बस यही सब चलता था। प्रतिशत (%) से हमारा कोई वास्ता नहीं था।
  • ट्यूशन लगाना शर्मनाक माना जाता था, क्योंकि यह “ढीठ” कहलाता था।
  • किताब में पत्तियाँ और मोरपंख रखकर पढ़ाई में तेज हो जाएँगे-यह हमारा दृढ़ विश्वास था।
  • कपड़े की थैली में किताबें रखना, बाद में टिन के बक्से में किताबें सजाना - यह हमारा क्रिएटिव स्किल हुआ करता था।
  • हर साल नई कक्षा के लिए किताब-कॉपी पर कवर चढ़ाना - यह तो हमारे लिए मानो एक वार्षिक उत्सव हुआ करता था।
  • साल के अंत में पुरानी किताबें बेचना और नई खरीदना - हमें इसमें कभी कोई शर्म भी नहीं आई।
  • दोस्त की साइकिल के डंडे पर एक बैठता, तो उसके कैरियर पर कोई दूसरा - और सड़क-सड़क घूमना, यही हमारी मस्ती हुआ करती थी।
  • स्कूल में सर से पिटाई खाना, पैरों के अंगूठे पकड़कर खड़ा होना, शिक्षक के द्वारा कान को मरोड़कर लाल कर देना - फिर भी हमारा “ईगो” आड़े नहीं आता था।
  • असल में उस समय हमें “ईगो” का मतलब ही नहीं पता था।
  • मार खाना तो रोज़मर्रा का हिस्सा हुआ करता था।
  • मारने वाला और मार खाने वाला - दोनों ही खुश रहा करते थे।
  • मार खाने वाला इसलिए कि “चलो, आज कल से कम मार पड़ी”
  • तो मारने वाला इसलिए कि “आज फिर मौका मिला।”
  • नंगे पाँव, लकड़ी की बैट और किसी भी बॉल से गली-गली में क्रिकेट खेलना - वही असली सुख था।
  • हमने कभी पॉकेट मनी नहीं माँगा, और न ही माता-पिता ने कभी दिया। क्योंकि हमारी ज़रूरतें बहुत छोटी होती थीं, जो परिवार ही पूरा कर देता था। छह महीने में एक बार मुरमुरे या फरसाण मिल जाए - तो हम बेहद खुश हो जाते थे।
  • दिवाली में लवंगी फुलझड़ी की लड़ी खोलकर एक-एक पटाखा फोड़ना - हमें बिल्कुल भी छोटा नहीं लगता था।
  • कोई और पटाखे फोड़ रहा हो तो उसके पीछे-पीछे भागना - बस यही हमारी मौज हुआ करती थी।
  • हमने कभी अपने माता-पिता से कभी यह नहीं कहा कि “हम आपसे बहुत प्यार करते हैं” - क्योंकि हमें “आई लव यू” कहना आता ही नहीं था।

आज हम जीवन में संघर्ष करते हुए

  • दुनिया का हिस्सा बने हैं।
  • कुछ ने वह पाया जो चाहा था, कुछ अब भी सोचते हैं - “क्या पता”
  • स्कूल के बाहर हाफ पैंट वाले गोलियों के ठेले पर दोस्तों की मेहरबानी से जो मिलता - वो आज कहाँ चला गया?

हम दुनिया के किसी भी कोने में रहें, लेकिन सच यह है कि -

  • हमने हकीकत में जीवन जीया और हकीकत में ही बड़े हुए।
  • कपड़ों में सिलवटें न आएँ, रिश्तों में औपचारिकता रहे - यह हमें कभी नहीं आया।
  • रोटी-सब्ज़ी के बिना डिब्बा हो सकता है - यह हमें मालूम ही नहीं था।
  • हमने कभी अपनी किस्मत को दोष नहीं दिया।
  • आज भी हम सपनों में जीते हैं, शायद वही सपने हमें जीने की ताक़त भी देते हैं।
  • हमारा जीवन वर्तमान से कभी तुलना नहीं कर सकता।
  • हम अच्छे हों या बुरे -’ लेकिन हमारा भी एक “ज़माना” हुआ करता था भाई!

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।