
कर्म की गुणवत्ता Publish Date : 09/07/2025
कर्म की गुणवत्ता
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
सामान्यतः समाज द्वारा निषिद्ध एवं आपराधिक कृत्य अशुभ कर्मों में गिन लिए जाते हैं। जबकि धर्म केवल प्रत्यक्ष हिंसा अथवा आचरण की कठोरता से ही नहीं, बल्कि चित्त की प्रवृत्तियों से भी कर्म की गुणवत्ता का निर्धारण करता है। जो मनुष्य प्रत्यक्ष दुष्कृत्यों से स्वयं को विरत रखता है, तो भी ऐसा आवश्यक नहीं कि वह पुण्यात्मा की श्रेणी में प्रतिष्ठित हो जाए। कर्म का शुभत्व केवल निषेधात्मक शुद्धता में नहीं, अपितु कर्तव्यनिष्ठा एवं भाव की निर्मलता और शुद्वता में निहित होता है।
यदि आप अपने दायित्वों से विमुख हैं, यदि आपकी वाणी मधुर नहीं, किसी को आहत करती है, यदि आपका दान परमार्थ नहीं, उपकार की आकांक्षा से प्रेरित है या यदि आपकी विनम्रता आत्मप्रदर्शन की अभिलाषा में रूपांतरित हो चुकी है तो यह सभी कर्म भले ही लौकिक रूप से दोषरहित प्रतीत हों, परन्तु यह आध्यात्मिक मर्म में शुभ नहीं माने जा सकते हैं।
कर्म की शुभता बाह्य आचरण में नहीं, उसके अंतर्निहित संकल्प में बसती है। एक मुस्कान भी अशुभ हो सकती है, यदि वह व्यंग्य से युक्त हो। एक कठोर वाक्य भी शुभ हो सकता है. यदि वह किसी की पतन से रक्षा करता हो। धर्म चित्तवृत्तियों की परख है। अतः जो अपने अहंकार की तुष्टि के लिए पुण्य का व्यापार करता है, वह भी उतना ही अशुभ कर्म करता है, जितना, वह व्यक्ति जो क्रोध में अपशब्द उच्चारित करता है।
यदि मनुष्य जीवन की नैतिक समीक्षा मात्र इस आधार पर करे कि उसने किसी की हत्या नहीं की, चोरी नहीं की, भ्रष्टाचार में संलिप्त नहीं रहा तो वह आत्मिक उन्नयन के पथ पर एक भ्रांत धारणा के साथ आगे बढ़ रहा है। मनुष्य जब अपने अनिवार्य कर्तव्यों से विमुख हो जाता है चाहे वह परिवार के प्रति हो, समाज के प्रति हो या अपने - अंतःकरण के प्रति, तब वह प्रच्छन्न पाप का संचय करता है। यह पाप उस प्रकार का नहीं होता जो विधि की दृष्टि में दंडनीय हो, परंतु आत्मा की उन्नति में वह एक अदृश्य अवरोध बन जाता है।
लेखकः लेखक सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, मेरठ के प्रोफेसर हैं।