
छत्तीसगढ़ में उतेरा खेती की पहल Publish Date : 20/07/2025
छत्तीसगढ़ में उतेरा खेती की पहल
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जता है। छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल धान है। धान की फसल जब खड़ी रहती है, जब उसमें फूल आने लगते हैं और फसलों में लगभग पचास प्रतिशत फूल आ जाते हैं, तब उसी खेत में दूसरी फसलें बोई जाती हैं। यह समय अक्टूबर आखिर में या नवंबर के पहले हफ्ते का समय होता है।
छत्तीसगढ़ के जीसगढ़ में पारंपरिक खेती काफी समृद्ध रही है। यहां खेती में काफी विविधता है। यह इलाका, न केवल धान की खेती के लिए जाना जाता है, बल्कि विविध तरह की खेती के सम्बन्ध में भी इसकी अपनी अलग ही पहचान है। आजके अपने इस कॉलम में मैं इसी पर चर्चा करना चाहूंगा, जिससे यहां की खेती के साथ पशुपालन, खान-पान की संस्कृक्ति को भी समझा जा सके।
छत्तीसगढ़ में परंपरागत रूप से उतेरा खेती की जाती है। उत्तेरा खेती में एक फसल कटने से पहले ही दूसरी फसल को बोया जाता है। यानी दूसरी फसलों की बुआई पहली फसल कटने के पहले ही कर दी जाती है। इस विधि के तहत की जाने वाली खेती को ही उतेरा खेती कहते हैं।
बारिश की नमी में धान की फसल के बीच तिवड़ा (खेसरी दाल), बटरी, अलसी, उड़द, सरसों व चना आदि के बीज छिडककर बो दिए जाते हैं। इसमें यह सावधानी रखनी होती है कि खेत का पानी सूख जाए तभी बीजों का छिड़काव किया जाता है। इन फसलों के बीज को अलग-अलग नमी के हिसाब से छिड़कते हैं, या बोते हैं, एक साथ नहीं। इस क्षेत्र के किसानों को इसका पारंपरिक ज्ञान है। इसके बाद फसलें धीरे धीरे उग आती हैं।
धान कटाई बहुत ही सावधानी से की जाती है जिससे कि दूसरी फसलों को नुकसान न पहुंचे। खेत में धान के डंठलों के बीच से तिबड़ा उग जाता है, जिसके पौधे को ठंडलों से मदद भी मिलती है।
मार्च के आसपास यह फसलें पककर तैयार है जाती हैं और फिर काट ली जाती हैं। वहीं बारिश की नमी में ही दूसरी फसलें भी पक जाती हैं। यह छत्तीसगढ़ के किसानों का खेती करने का यह अपना एक परंपरागत तरीका है।
इसी प्रकार, यहां किसान खेतों की मेड़ों पर भी अरहर, तिली, गजा, मूंग, अमाड़ी, भिंडी, बरबटी, झुरगा (बरवटी की तरह), चुट्चुटिया (ग्वारफली) आदि को भी लगाते हैं। यानी खेत में धान, उतेरा में तिवद्ध, अलसी, बटरी, सरसों, उड़द, चना आदि की फसल लगाते हैं और मेड़ पर भी अरहर, तिली और हरी सब्जियां भी लगाते हैं।
एक खेत में धान यानी चावल, दलहन व तिलहन आदि सब कुछ हो जाता है। छत्तीसगढ़ की खान-पान की संस्कृति, तीज-त्यौहार भी खेती से जुड़े हैं। यहां का प्रमुख भोजन चावल है, यानी भात और दाल है। सब कुछ किसान अपने खेतों में ही उगा लेते हैं। अतिरिक्त फसलें होने से आर्थिक लाभ भी होता है और भोजन में भी पोषण मिलता है। यह मिश्रित फसलों की खेती करने का एक परंपरागत तरीका है।
पशुपालन भी यहां खेती से ही जुड़ा है। धान का पैरा (ठंडल) मवेशियों को चराने के काम आता है। पहले बैल खेतों में जुताई किया करते थे। यह सब एक दूसरे से जुड़ा है। फसलों की कटाई हाथ से हसिए की सहायता से की जाती है। ठंडल बहुत छोटे होते हैं और उन्हें जलाने की जरूरत नहीं पड़ती।
इससे मिट्टी की सेहत भी अच्छी होती है। इसके फसलों के ठंडल भूमि में सड़कर जैविक खाद बनाते हैं, मिट्टी को उर्वर बनाते हैं। इसके साथ, फली वाली फसलों की पत्तियां मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में सहायक हैं। यह छत्तीसगढ़ के किसानों का जाना-माना तरीका रहा है। मिट्टी को उर्वर बनाने के लिए मिश्रित खेती की पद्धतियां मददगार रहती हैं। इस तरह की खेती देश के कई इलाकों में प्रचलित रही है।
उतेरा की फसलों का भूसा भी काफी पौष्टिक होता है, जिसे पशु खाना बहुत अधिक पसंद करते हैं। यहां की संस्कृति में पशुपालन का काफी महत्व था। हालांकि इसमें ट्रेक्टर की खेती से कमी दिखाई देती है। लेकिन बिलासपुर जिले में जन स्वास्थ्य सहयोग ने कुछ गांवों में खेती में सामूहिक फार्मिंग की पहल भी की है, जिससे आवारा पशुओं व जंगली जानवरों से फसलों को नुकसान न पहुंचे।
बिलासपुर जिले के कोत विकासखंड के करका, मानपुर और छपरखा गांव में सामूहिक तारबंदी का काम हुआ है, जिससे किसानों को अकेले खेत की रखवाली नहीं करनी पड़ती। इसके लिए सबसे पहले गांव में सामूहिक एकता बनाई गई। गांव में घर-घर से चंदा एकत्र किया गया। कुछ मदद सरकार से ली गई। श्रमदान किया गया। तब जाकर समूहिक फैसिंग का काम पूरा हुआ।
सामूहिक फैसिंग की जरूरत इसलिए भी पड़ी, अगर हर किसान अपने खेत की तारबंदी करेगा तो बहुत खर्च आएगा, फिर इससे किसानों के खेतों में आवाजाही में भी बाधा आएगी। इस समस्या का यह कोई व्यावहारिक हल भी नहीं है। इसलिए संस्था ने गांव की जन-भागीदारी से यह पहल की है, जिससे खेतों में फसल सुरक्षा भी हो सके और लोगों के खान-पान में पौष्टिकता के साथ ही उसमें विविधता भी आ सके।
किसानों ने इस वजह से उतेग की फसलें बोनी शुरू कर दी हैं। इससे भोजन में पौष्टिकता बढ़ेगी, हरी पत्नीदार सब्जियां (तिवड़ा) मिलेगी, पशुओं को चारा मिलेगा और मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ेगी।
इसके साथ, संस्था ने पौष्टिक अनाजों की खेती व देसी बीजों की खेती को भी बढ़ावा दिया है। संस्था के परिसर में मंडिया, कांग, कोदी, कुटकी, सांवा जैसी फसलें उगाई जाती है और किसानों को इन फसलों को बोने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
चूंकि संस्था स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करती है। यहां के डॉक्टरों का मानना है कि बीमारी का इलाज करने के साथ उसकी रोकथाम भी जरूरी है। उसके लिए पौष्टिक भोजन भी जरूरी है। संस्था ने इसके लिए कृषि व पशु स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाया है, जिसके तहत पौष्टिक व देसी धान की खेती व पशुओं का इलाज किया जाता है। इसी के तहत यह अनूठी पहल की जा रही है।
परंपरागत खेती में अच्छी बात यह है कि इसमें लागत कम है या लागत नहीं के बराबर होती है। देसी बीजों के संरक्षण पर इसमें जोर दिया जाता है। पहले किसानों के पास धान व अन्य फसलों के देसी बीज उपलब्ध होते थे। अब इसमें कमी आई है, इसलिए संस्था ने इसके लिए बीज बैंक भी बनाया है, जिसके तहत किसानों को देसी बीज दिए जाते हैं और फसलों की तकनीक का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। जिससे नई तकनीकें भी शामिल हैं।
परंपरागत खेती में आत्मनिर्भरता होती है। किसानों का अपना देसी बीज, गोबर खाद और मेहनत होती है और इसमें पीढ़ियों के पारंपरिक ज्ञान का उपयोग किया जाता है। यह प्रक्रिया पूरी तरह से स्वावलंबी होती है, जबकि आधुनिक रासायनिक खेती में बीज, खाद और कीटनाशक सभी कुछ बाजार से ही खरीदा जाता है। इसमें किसान की लागत बढ़ती है, किसान परावलंबी होता है औी अंततः किसान की आय भी कम होती है।
लेकिन पिछले कुछ समय से इसमें कमी आई है। अब बैलों की जगह ट्रैक्टर से जुताई व फसलों की कटाई हारवेस्टर से होने लगी है। इसमें ठंडल बड़े रह जाते हैं और इसे दूसरी फसल बोने के लिए किसान इन ठंडलों को जलाना पड़ता हैं। इससे प्रदूषण होता है और गर्मी की धान की फसल बोने से भूजल में कमी आती है।
कुल मिलाकर, उतेरा की फसल बहुत ही उपयोगी है। हालांकि यह पहल छोटी है, पर इससे काफी कुछ सीखा जा सकता है। इससे किसानों को धान के साथ दलहन, तिलहन और अतिरिक्त उपज मिल जाती है। बारिश की नमी का उपयोग भी उचित तरीके से हो जाता है। दलहन व फली वाली फसलों से खेतों को नत्रजन भी मिलती है। भोजन के लिए चावल, दाल और सब्जियां मिल जाती हैं, जो छत्तीसगढ़ की खान-पान की संस्कृति भी है। यह खेती मिट्टी पानी के संरक्षण वाली है, जैव-विविधता व पर्यावरण का संक्षण भी इससे होता है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।