
भविष्य की चुनौतियां एवं भारतीय कृषि Publish Date : 09/08/2023
भविष्य की चुनौतियां एवं भारतीय कृषि
डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा
‘‘भारतीय कृषि के समक्ष जो चुनौतियाँ हैं उनका गहराई के साथ विश्लेषण करते हुए कहा जा सकता है कि समकेतिक नीति/कार्यक्रम के द्वारा ही उनका सामना किया जा सकता है। इसमें किसी एक या दो पहलुओं पर ही जोर देने से लक्ष्य की प्राप्ति अधूरी भी रह सकती है।’’
भारतीय अर्थव्यवस्था मूल आधार मुख्य रूप से कृषि ही रहा है, आज भी है और सम्भवतः कल भी रहेगा। कृषि को मात्र सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र के योगदान के रूप में ही नही देखा जाना चाहिए, बल्कि कृषि पर ही एक बडी संख्या में लोगों की निर्भरता है। औद्योगीकीकरण में भी कृषि क्षेत्र की भूमिका के रूप में भी ऐसे ही देखा जाना चाहिए। देश के कई महत्वपूर्ण उद्योग कृषि उत्पाद (उपज) पर ही निर्भर करते हैं जैसे कि वस्त्र उद्योग, चीनी उद्योग या फिर लघु एवं ग्रामीण उद्योग, जिसे अंतर्गत तेल मिलें, दाल मिलें, आटा मिलें और बेकरी उद्योग आदि आते हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारतीय कृषि ने बहुत ही अच्छा प्रदर्शन किया है। वर्ष 1950-51 में खाद्यान्न उत्पादन 5.083 करोड़ टन था जो कि वर्ष 1990-91 में बढ़कर 17.6 करोड़ टन हो गया। इस प्रकार खाद्यान्न के उत्पादन में लगभग 350 प्रतिशत तक की वृद्वि दर्ज की गई। तिलहन, कपास एवं गन्ने के उत्पादन में भी इसी प्रकार की वृद्वि दर्ज की गई, जिसके परिणामस्वरूप जनसंख्या में भारी वृद्वि के उपरांत भी अनेक जिन्सों की प्रति व्यकित् उपलब्धता में अपेक्षित सुधार आया।
विकास प्रक्रिया की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इस बात का प्रमाण हमें इस तथ्य से मिलता है कि हाल ही के वर्षों के अंतर्गत सूखे वाले वर्षों में खाद्यान्न उत्पादन, उससे पहले से अधिक उत्पादन वाले वर्ष का खाद्यान्न का अंतर, 50 और 60 के दशकों की तुलना में कम है। अब हमें कुपोषण या अल्प-पोषण के कारण अकाल और महामारी जैसी स्थितियों का सामना नही करना पड़ा है जैसा कि पिछली सदी के आरम्भिक वर्षों के दौरान करना पड़ता था।
प्रमुख रूप से सिंचाई सुविधाओं के विस्तार के चलते यह स्थिति आई है। वर्तमान समय में कुल बुआई क्षेत्र के 32 प्रतिशत भाग में सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हैं। कृषि विकास की प्रक्रिया में एक बड़ी संख्या में किसानों के द्वारा आधुनिक तौर-तरीकों का अपनाना और सरकारी, निजी एवं सहकारी क्षेत्रों में किसानों कर जरूरतों का ध्यान रखते हुए संस्थाओं का जाल बिछाने के माध्यम से भी पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई है।
चुनौतियां
भारतीय कृषि के समक्ष न केवल अपने मामले अपितु समग्र आर्थिक स्थिति के एक भाग के रूप में भी अनेक बड़ी चुनौतियां हैं। इस बात को भी सदैव ध्यान में रखा जाना आवश्यक है कि भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था, अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों से महत्वपूर्ण रूप से जुड़ी हुई है तथा अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों को भी प्रभावित करती है और उनसे प्रभावित भी होती है।
कृषि अर्थव्यवस्था के अस्तित्व को अब समग्र स्थिति के बाहर देखना असंभव है। ऐसा इसलिए है क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों में कृषि बाजार अब एक दूसरे के साथ जुड़ते जा रहे हैं। कृषि के आधुनिकीकरण से अभिप्राय कृषि आदानों के ऊपर बढ़ती हुई निर्भरता के साथ भी है। यह निर्भरता केवल स्थानीय रूप से उपलब्ध आदानों तक ही सीमित नही है बल्कि औद्योबिक क्षेत्रों के उत्पादन पर भी निर्भर करती है, जैसे कि रसायन उद्योग, ऑटोमोबाइल और मशीन निर्माण से जुड़े उद्योग आदि।
इस क्रम (प्रक्रिया) में देश का कृषि विकास कोई विलक्षण बात नही हैं बल्कि कमोबेस यह उसी प्रवृत्ति की तरह से है जैसी कि विश्व के अन्य भागों, विशेष रूप से विकसित देशों में देखी जा रही है। इस प्रकार से जब हम भारतीय कृषि की चुनौतियों पर दृष्टिपात करते हैं, तो पाते हैं कि कुछ चुनौतियां तो स्वयं ही उस (कृषि) क्षेत्र के लिए विशिष्ट है जबकि अन्य चुनौतियां कमोबेस बाकी सभी गतिविधियों के समान हैं।
देश के सामाजिक-आर्थिक विकास प्रक्रिया क्रम में जो भी बड़ी चुनौतियां उपलब्ध हैं, वे इस प्रकार से हैं-
रोजगार- भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रगति के बावजूद हम बेरोजगार अथवा अल्प बेरोजगारी जैसी बड़ी समस्याओं को हल करने का प्रयास कर रहें है। अन्य देशों की तुलना में भारतीय श्रमिको की गतिशीलता कहीं अधिक सीमित है। इस कारण से कृषि के कार्यकलापों के प्रभावी संचालन हेतु जिस प्रकार दक्ष श्रम-शक्ति आवश्यकता होती है उसमें कमी और अधिकता के फलस्वरूप असंतुलन की स्थिति आती है।
रोटी, कपड़ा और मकान के अतिरिक्त राष्ट्रीय कल्याण के किसी भी प्रयास में प्रत्येक को लाभदायक रोजगार उपलब्ध कराना एक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण बात है। सामाजिक-आर्थिक व्यवसाय में रोजगार न केवल समाज में सद्भाव एवं भाईचारा बनाए रखने के लिए भी उतना ही आवश्यक है। वर्तमान में जो चुनौति हमारे समक्ष मुँह बाये खड़ी है वह यह है कि क्या अर्थव्यवस्था में रोजगार के उचित अवसर उत्पन्न किये जा सकें हैं?
इस क्षेत्र में अनेक मुद्दों पर विचार करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। व्यवसाय संतोषप्रद हो, रहन-सहन के स्तर में सुधार करने लायक आय हो, अपने काम के विकास के साथ दक्षता प्राप्त करने और प्रगति के पर्याप्त अवसर हो आदि जैसी महत्वपूर्ण बाते शामिल हैं।
विकास- देश के समक्ष दूसरी बड़ी चुनौति यह है कि विकास की गति इतनी अधिक नही है कि वह अधिक सम्पत्ति को जुटा सके और उसके न्याय संगत वितरण के माध्यम से एक बेहतर जीवन स्तर उपलब्ध करा सकें। देश की जनसंख्या के 80 के दशक में भी 2.1 प्रतिशत से भी अधिक दर से बढ़ने और आगामी वर्षों में इसमें कोई नाटकीय कमी नही होने की सम्भावना होने से, देशवासियों के सामान्य कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए अर्थव्यवस्था का विकास त्वरित गति से करना अति आवश्यक है।
निर्वहन योग्य विकास- हमारे समक्ष तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हमने विकास की जो प्रक्रिया अपने लिए तय की है क्या वह निर्वहन योग्य है? यह मुद्दा हमारी उस कुशलता के साथ बहुत अधिक संलग्न है, जिससे हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हैं। इन संसाधनों का बड़े पैमाने पर दुरूपयोग करने से न केवल वर्तमान पीढ़ी का ही नुकसान होगा, बल्कि उससे कहीं अधिक नुकसान आने वाली पीढ़ियों का होगा।
हालांकि विज्ञान एवं तकनीकी ने पूर्व में भी मानवीय समस्याओं का समाधान प्रदान किया है। अब हमारे समाज के समक्ष प्रश्न यह है कि थ्या हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने किफायत बरतते हैं और आवश्यक सर्वांगीण जागरूकता के कारण क्या हम उनका दुरूपयोग और बर्बादी को रोक सकते हैं।
उनके उपयोग में कुशलता के बहुआयामी पक्ष हैं। बेहतर कुशलता का निहीत उद्देश्य इन साधनों के उपयोग के स्तर से समाज के लिए अधिक सम्पत्ति पैदा करना है, अथवा दूसरे शब्दों में पूँजी-निवेश के बेहतर लाभों को प्राप्त करना है। पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिकी सुतंलन के दृश्टिकोण से ये बाते और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं। इन पहलुओं पर पूरी अर्थव्यवस्था के लिए ही नही, अपितु विशेषकर कृषि के लिए विचार करने की आवश्यकता है।
माँग
अक्सर यह कहा जाता है कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में हुई प्रगति के कारण विश्व के विभिन्न समाज एक दूसरे के और अधिक निकट आ गये हैं, और हमारी पृथ्वी एक विश्वव्यापी गांव का रूप तीव्रता के साथ ग्रहण करती जा रही है। अधिाधिक जीवन पद्वतियां विश्वव्यापी रूप ग्रहण करती जा रही हैं।
मानव की आवश्यकताएं और आकांक्षाएं भी समान ही होती जा रही हैं। अतः इस परिप्रेक्ष्य में यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि एक ऐसे समाज का निर्माण बहुत ही कठिन है जो कि अन्य सभी समाजों से बिलकुल अलग हो। इन विभिन्न समाजों का आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक दर्शन कुछ मानदण्डों व नियमों की ओर अभिमुख होता नजर आता है।
इसके फलस्वरूप ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं, जिनमें ऐसी वस्तुओं और सेवाओं के आयात की मांग होती है जो केवल देश में ही उत्पन्न नही होती जबकि उनकी मांग पैदा होती है और राज्य किसी एक या दूसरे तरीके से इन मांगों की पूर्ति करते हैं।
ऐसे में यह मान लिया जाता है कि देश उन संसाधनों का आयात करेगा, जो कि स्थानीय स्थानीय स्तर पर उत्पादित ही नही किये जाते हैं अथवा वह समाज की मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नही है। आयात और निर्यात के मध्य संतुलन के बिना भुगतान की समस्या का उत्पन्न होना अवश्यम्भावी है। इस स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था के विश्व अर्थव्यावस्था के साथ एकीकरण की ओर भी ध्यान देना होगा और इस क्रम में निर्यात पर अधिक ध्यान देना होगा।
अतः अर्थव्यवस्था के समस्त क्षेत्रों को इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सहायता प्रदान करनी होगी और विशंष रूप से कृषि क्षेत्र की जिसकी निर्यात क्षमता काफी अधिक है।
अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों की भाँति भारतीय कृषि को भी इसी प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है जो कि प्रमुख रूप से निम्न प्रकार से हैं-
1. खाद्य-सुरक्षा को बनाए रखने की देश की क्षमता।
2. केवल जनसंख्या वृद्वि से उत्पन्न कृषिगत वस्तुओं की बढ़ती मांग को पूरा करने की क्षमता ही न हो बल्कि आय में वृद्वि से उत्पन्न बढ़ती मांग को पूरा करने की क्षमता भी विद्यमान हो। साथ ही समाज के उन तबकों की कृषिगत आवश्यकताओं को भी पूरा करना जिनके पास पहले क्रय शक्ति कम थी।
3. सकल घरेलू उत्पाद में द्वितीयक एवं सेवा क्षेत्र के महत्वपूर्ण योगदान के उपरांत कृषि पर निर्भर जनंख्या में सापेक्षिक गिरावट बहुत कम रही है। कृषि पर ग्रामीण जनसंख्या की निर्भरता में कमी का अनुपात मात्र 17 प्रतिशत ही रहा है अर्थात यह 80 प्रतिशत से घटकर 63 प्रतिशत हो गया है। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी और अलप रोलगार की समस्या अधिक गम्भीर है। कृषि पर अधिक बड़ी जनसंख्या की निर्भरता आश्य है कि हो सकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति आधार पर वृद्वि अन्य क्षेत्रों में हो रही आय वृद्वि से मेल नही खाती हो, इसका शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी अनेक बुनियादी सुविधाएं पाने पर प्रभाव पड़ता है।
जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक तनाव उत्पन्न होता है केवल न्याय संगत आय के पुनर्वितरण मात्र के प्रयासों का अर्थ होगा, सभी वर्गों को निर्बल बनाना। इसके साथ ही, इसका प्रभाव प्रतिकूल भी हो सकता है।
4. पिछले कई वर्षों से कृषि जोतो का औसत आाधार कम हुआ है और साथ ही जोतों के छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटने की समस्या भी उत्पन्न होती है। खेती-बाड़ी से जुड़ा एक बड़ा तबका छोटे आकार की जोतों पर निर्भर रहने के लिए बाध्य है। अधिकाँश छोटे एवं सीमांत किसान अधिक उत्पादकता वाली प्रौद्योगिकी को अपनाने में असमर्थ हैं और वे अपनी ही जमीन पर खेती के कामकाज के लिए जीवनयापन हेतु अनियमित मजदूरी करने को विवश है।
इस सम्बन्ध में छोटे एवं सीमांत किसान उनकी छोटी, सीमित जोत में बागवानी, पशु-पालन जैसे अधिक आय प्रदान करने वाले उद्यमों के लिए सहायता प्रदान कर, देखा जाना चाहिए। दूसरा हमें आर्थिक रूप से व्यवहार्य कृषि जोतों के न्यूनतम आकारों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता पर भी विचार करना चाहिए। जिन चुनौतियों का हम सामना कर रहें हैं उन पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है कि क्या कृषि क्षेत्र के विकास के लिए 50 के दशक में अपानया गया दर्शन (नीति) वर्तमान में भी उतनी ही महत्वपूर्ण होगी।
5. भारतीय कृषि को विशेष रूप से 90 के दशक में जिस बड़ी चुनौति का सामना करना पड़ रहा है, वह है कृषि में पूँजी निर्माण और निवेश में पर्याप्त वृद्वि की आवश्यकता। 80 के दशक में निवेश में सापेक्षिक निष्क्रियता आ जाने से हमारे उत्पादन और उत्पादकता में सुधार लाने की क्षमता भी प्रभावित हुई। कृषि में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश, निजी क्षेत्र के निवेश के लिए काफी कुछ हद तक एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर सकता है।
उदाहरण के लिए सिंचाई सुविधाओं की व्यवस्था के परिणामस्वरूप भूमि के विकास पर निवेश होगा और भू-सम्पत्ति में वृद्वि भी होगी। सिंचाई, खेती और फसल की बुआई में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया जा सकता है। इसके फलस्वरूप किसानों को फलों के बागान लगाने, डेयरी के लिए आवश्यक मशीनों की स्थापना और मुर्गी-पालन जैसे अधिक उत्पादक परिस्थितियों में निवेश करने की आवश्यकता होगी।
निवेश से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण मामला यह है कि क्या कृषि में परिसम्पत्ति निर्माण हेतु परिचालन लागत की तुलना में अर्जित सम्पत्ति पर्यात है। यह तभी सम्भव होगा जब कृषि से किसानों को उनकी उपज से लाभदायक प्रतिफल प्राप्त हो और उन्हें निवेश के लिए अधिक पूँजी प्राप्त हो सके। बाजार व्यवस्थाओं को भी विकसित किया जाना आवश्यक है, जिससे कि किसानों को उनके उत्पाद की ऊच्चतम कीमत प्राप्त हो सके और उनके प्रयासों का उन्हें उचित प्रतिफल प्राप्त हो सके। साथ ही वे चालू खर्चों और परिचालन लगत की पूति हेतु निवेश करने में सक्षम हों।
इस समस्या का एक आयाम यह भी है कि कृषि उत्पादन से लेकर अंतिम उपभोक्ता तक पहुँचने के बीच में होने वाली हानियों को कम किया जाए। कई मामलों में विशेष रूप से खराब हो जाने वाली वस्तुओं में हानि की मात्रा की दर काफी ऊँची होती है। बेहतर बाजार व्यवस्था, फसल कटाई के बाद की सुविधाओं का विस्तार और प्रोसेसिंग सुविधाओं के माध्यम से इन हानियों को कम किया जा सकता है, जिसके फलस्वरूप प्राथमिक उत्पादकों को अधिक ऊँची कीमतें प्राप्त होंगी और साथ ही उन वस्तुओं की मांग को उचित बनाए रखने के लिए उपभोक्ता कीमतों को यथेवित स्तर पर बनाये रखा जा सकता है।
6. लगभग 65-70 प्रतिशत कृषि भूमि असिंचित वर्षा पर ही निर्भर है। अतः वर्षा पर निर्भर रहने वाले किसानों की आर्थिक स्थिति को उचित उत्पादन व्यवस्था के माध्यम से सुधारना भी एक मुख्य चुनौति है। इसके लिए उन्हे इस प्रकार की उत्पादन प्रणाली उपलब्ध करानी होगी जो परम्परागत खेती की तुलना में आर्थिक दृष्टि से अधिक लाभकारी हो और जो पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से भी उचित हो।
वर्षा पर निर्भर रहने वाले किसानों की विकसित प्रौद्योगिकी पर निवेश करने करने की क्षमता कम ही होती है क्योंकि अनिश्चित् वर्षा के कारण उत्पादन में गिरावट का जोखिम बना रहता है। दूसरे, एक ही फसल के उत्पादन करने की स्थिति में कृषिगत क्रियाओं के संचालन में सीमित पूँजी परिसम्पत्ति के कारण किसान, संसाधनों की कमी के कारण उत्पादन व्यवस्था पर्याप्त निवेश करने में समर्थ नही होते हैं।
कृषि क्रियाओं के सामाजिक संचलन के लिए प्रचलित सेवाओं को किराए पर लिए जाने की व्यवस्था को अत्याधिक महत्वपूर्ण माना गया है। वर्षा पर निर्भर रहने वाले किसानों को जिस प्रकार जोखिमों से बचाया जाए तथा उनके लिए सेवाओं की उपलब्धता किस प्रकार से बनाकर रखी जाए, ऐसे मसले नीतिगत महत्व के हैं। अतः किसानों को समर्थन देने के लिए इन सुझाए गए उपायों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है।
क्षमता का उपयोग
उपरोक्त चुनौतियों का सामना करने में हमारी क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि हम भूमि और जल जैसे दुर्लभ प्राकृतिक संसाधनों के सन्दर्भ में उत्पादकता को किस प्रकार अधिक से अधिक बढ़ाया जा सकता है। दूसरा, क्या कृषिगत उत्पादन व्यवस्था मोसमी, वार्षिक और बारहमासी फसलों के बुआई के तरीके पर आधारित हैं या फिर अन्य कृषि व्यवस्था जैसे पशुपालन, कृषि वानिकी, रेशम उत्पादन और मत्स्य पालन पर आधारित हैं जो कि इतनी सुव्यवस्थित हैं कि विभिन्न क्षेत्रों की विभिन्न कृषि जलवायु मानदण्ड़ों में भी अधिक उत्पादकता तथा उत्पादन देने में अति सहायक सिद्व होते हैं।
कुल मिलाकर कुछ विशेष राष्ट्रीय उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक क्षेत्र के लिए इस प्रकार के उत्पादन की व्यवस्था में विशेषता प्राप्त करनी चाहिए और उसका प्राथमिक उद्देश्य किसानों को अधिकतम प्रतिफल देने एवं पर्यावरण की दृष्टि से निर्वाह के योग्य होना चाहिए। अतः यह आवश्यक है कि उत्पादन व्यवस्था में विशेषता के तहत योजन प्रक्रिया में किसानों को केन्द्र बिन्दु बनाया जाना चाहिए न कि किसी विशेष जिन्स को।
भारत में कृषि जलवायु और मृदा के मामले में व्यापक विविधता पाई जाती है। विभिन्न क्षेत्रों व राज्यों की तुलना की बाते करना तब तक बेमानी होगा जब तक कि उत्पादन को प्रभावित करने वाले आधारभूत तत्वों को ध्यान में न रखा जाए। यहाँ तक कि इन विविधताओं को ध्यान में रखने के बाद यह कहने मे कोई हिचकिचाहट नही होनी चाहिए कि एक या दो फसलों को छोड़कर देश की वर्तमान स्थिति समान कृषि जलवायु क्षेत्रों वाले अन्य विकसित देशों की तुलना में अनुकूल नही है।
उत्पादन में अंतर
अन्य देशों की तुलना में भारत की कम पैदावर के अनेक ठोस कारण है। पैदावार में अंतर की व्याख्या काफी हद तक अन्य स्थानों की तुलना में भारत में अपनायी गई प्रौद्योगिकी स्तर के माध्यम से की जा सकती है। यहाँ इस बात का उल्लेख करना भी सुरूचिपूर्ण रहेगा कि देश में कृषि की पैदावार राज्यों एवं लाखों किसानों के निर्भर करती है। यदि देश के कृषि परिदृश्य पर नजर डाली जाए्र तो हम पायेंगे कि कुछ राज्य तो राष्ट्रीय औसत से भी काफी अच्छे परिणाम दे रहे हैं। यदि हम जिलों और उप-जिलो के पैदावार से सम्बन्धित आंकड़ो का अध्ययन करे तो और इसके साथ यहाँ तक कि उन राज्यों में भी जिन स्थानों पर पैदावार का स्तर काफी ऊँचा रहा है तो पायेंगे कि कृषि से सम्बद्व विशेष वर्ग उस जिले/उपजिले के औसत से भी अधिक बेहतर परिणाम दे रहें हैं।
प्रमुख रूप से कृषि से जुड़े विभिन्न वर्गों को ध्यान में रखते हुए उत्पादकता में सुधार करने की चुनौति हमारी क्षमता पर निर्भर करती है। जब तक कृषि से सम्बद्व विभिन्न वर्ग अधिक उत्पादकता के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी को नही अपनाता है, तब तक इस बात की आशा भी नही की जा सकती कि देश की औसत उत्पादकता में संतोषजनक वृद्वि सम्भव होगी।
उत्पादकता में अंतर की चुनौति का सामना करने के लिए अ्रलिखित महत्वपूर्ण तथ्यों पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यतिा है, जिससे कि इसके अंतर्गत अपेक्षित सुधार प्राप्त करने के लिए इन उपयों को अपनाया जा सकेंः
1. क्या विशेष कृषि जलवायु क्षेत्र हेतु उपयुक्त और उचित प्रौद्योगिकी की सिफारिश की गई है और क्या पर्याप्त है?
2. क्या विस्तार मशीनरी इतनी प्रभावी एवं सक्षम है कि वह लाखों किसानों के लिए प्रौद्योगिकी के लिए सिफारिश कर सकें?
3. उद्योग, स्वैच्छिक अभिकरणों, कृषक संगठनों इत्यादि के विस्तार प्रयासों से सार्वजनिक क्षेत्र के बाहर प्रौद्योगिकी के उन्नयन की शुरूआत कर होगी। किसानों की सूचना एवं प्रौद्योगिकी समर्थन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जुटे विभिन्न अभिकरणों के मध्य तालमेल और समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता है।
4. केवल सामान्य जानकारी किसानों के लिए अनुशंसित प्रौद्योगिकी को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करने में समर्थ हैं। प्रौद्योगिकी को व्यवहारिक स्तर पर अपनाने के दौरान निम्नलिखित तथ्य प्रभावित करते हैं-
क. सेवाओं एवं साधनों की उपलब्धता।
ख. बाहर से मिलने वाली सेवाओं और साधनों के प्राप्ति की व्यवस्था करना और उसकी कीमत चुकाने के लिए किसानों के लिए संसाधन आधार तथा पर्याप्त वित्ती की उपलब्धता को सुनिश्चित करना।
ग. खेत को जोतने वाले वास्तविक किसान और उसके स्वामी के मध्य जो कृषि सम्बप्ध है, उन सम्बन्धों को भी अनुसंशित प्रौद्योगिकी की स्वीकार्यता प्रभावित होती है। किसान को उसके खेतों से क्या प्राप्त होता हैं उससे भी उत्पादकता में सुधार लाने के लिए किसान की अतिरिक्त निवेश की क्षमता प्रभावित होती है।
अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारतीय कृषि एकीकृत कार्यक्रमों को अपना कर ही इन चुनौतियों का सामना कर सकती है। कृषि विस्तार, बाजार, साधनों की अप्रभावी आपूर्ति, सेवाऐ या फिर कृषि सम्बन्धों जैसे अनेक पहलुओं में से किसी एक अथवा दो पर ही बल देने से हमारे द्वारा निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति अधूरी ही रहेगी।
कृषि से सम्बद्व विभिन्न वर्गों को कम उत्पादकता, निवेश और विभिन्न प्रयासों के उचित प्रतिफल की प्राप्ति करने जैसी समस्याओं से निपटने के लिए यह आवश्यक है कि किसी विशिष्ट क्षेत्र में अपनाये गये विभिन्न उपयों पर, जो कि एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, पर ध्यान दिया जाना आवाश्यक है और उनके क्रियान्वयन हेतु उचित प्रयास किये जाने भी आवश्यक हैं।
इन चुनौतियों का सामना केवल अभियानों के संचालन के माध्यम से ही नही किया जा सकता अपितु किसानों को मुद्दों पर नजर रखते हुए इनके रास्ते में आने वाली समस्त बाधाओं का निरंतर मूल्यांकन और नीतियों एवं कार्यक्रमों में उपयुक्त एवं अपेक्षित परिवर्तन करके भी किया जा सकता है। इन उपयों को निरंतर चलने वाली प्रक्रिया के रूप में देखा जाना आवश्यक है जिसके तहत किसी विशेष उद्देश्य की पूति हेतु किये गये प्रत्येक उपाय को सुदृढ़ता प्रदान करने की आवश्यकता है।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर के डिविजन ऑफ एग्रीकल्चर बॉयोटैक्नोलॉजी के विभागाध्यक्ष हैं।