
अन्तः फसलीय खेती की आवश्यकता एवं उसकी उपयोगिता Publish Date : 04/04/2025
अन्तः फसलीय खेती की आवश्यकता एवं उसकी उपयोगिता
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु
देश की जनसंख्या में अबाध गति से होती वृद्धि तथा शहरीकरण के कारण दिन-प्रति-दिन फसलोत्पादन के योग्य भूमि भी तेजी से कम होती जा रही है, जिसके चलते अब एकल फसल विधि उपयोगी नही रह गयी है। एकल फसल पद्वति में प्राकृतिक आपदाओं का भी भय रहता है। मुख्य फसल के मध्य सहायक फसल का उगाना ही सह-सफली खेती कहलाता है।
मुख्य रूप से बागानों में पेड़ों के बीच अन्तःशस्य विधि अधिक लाभदायक तथा आवश्यक भी होती है। बागानों व पेड़ों के रोपण से आमतौर पर 3-4 वर्ष तक कोई आय नहीं होती है और फलदार वृक्षों की देख-रेख में पर्याप्त धन व्यय करना पड़ता है। इस व्यय की भरपाई केवल उस क्षेत्र में अन्तःशस्य विधि का प्रयोग करके प्राप्त आय से की जा सकती है। अन्तःशस्य कृषि क्रिया में गौण फसल की देख-रेख की लागत से मुख्य फसल पर भी अच्छा प्रभाव दिखता है।
अब कौन सी फसल किस फसल के साथ उगायी जाए, यह क्षेत्र विशेष की भूमि, जलवायु व कृषि संसाधानों की उपलब्धता पर आधारित रहता है। पहाड़ी क्षेत्रों में सेब, नाशपाती, आडू आदि के उद्यानों में आलू की फसल की भरपूर पैदावार होती है। आलू की फसल खोदने के उपरान्त मक्का व राजमा तथा कभी-कभी मटर की फसल लेते हैं। इससे एक निश्चित क्षेत्रफल से अन्तःशस्य के रूप में उगाई फसल से अच्छी आय प्राप्त हो जाती है तथा प्रयोग होने वाले उर्वरको और कीटनाशकों व जल का पूर्ण उपयोग हो जाता है।
सह-फसली खेती की विधियाँ
समानान्तर खेती
समानान्तर खेती विधि के अंतर्गत दो ऐसी फसलें साथ उगाई जाती हैं, जिनका विकास अलग-अलग ढंग से होता है
और उनके बीच प्रतियोगिता शून्य होती है और यह फसलें एक-दूसरे पर प्रतिकूल असर नहीं डालती हैं। दोनों फसलो की कतार में बुआई करते है। इसके प्रमुख उदाहरण अरहर के साथ उड़द और मक्के के साथ उड़द / मूंग / सोयाबीन की सहफसली खेती की जाती है।
सहचर खेती
खेती की इस श्रेणी में ऐसी फसलों को रखा जाता है जिसमें मुख्य व गौण फसल के उत्पादन में किसी प्रकार की कमी न आने पाए- जैसे यदि पॉपलर के साथ उगाई फसल और उसी की एकल फसल विधि मे उत्पादन में कोई अन्तर नहीं आता है, तो उसे सहचर खेती प्रणाली कहते हैं। इसी प्रकार गन्ने के साथ रबी व जायद की फसलें ली जा सकती हैं।
बहुखण्डी फसलें
विभिन्न ऊँचाइयों की फसलों को एक साथ उगाए जाने की प्रक्रिया को बहुखण्डी खेती प्रक्रिया कहते हैं। इस प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य एक निश्चित क्षेत्रफल से अधिक उत्पादन प्राप्त करना होता है जैसे केरल मे नारियल टेपियाका + हरा चारा आदि की खेती की जाती है। यह विधि ज्यादातर बगीचों/पेडों के लिए उपयोगी होती है। अब इस विधि का फसलों में प्रयोग किया जाने लगा है जैसे- गन्ना, आलू, प्याज और गन्ना, सरसों, आलू आदि की खेती की जाती हैं।
सह-क्रियात्मक खेती
खेती की इस विधा में फसलों को एक साथ उगाने पर उनकी अलग-अलग पैदावार बढ़ जाती है। जैसे गन्ना, आलू और पॉपलर में हल्दी की खेती करने से लाभ प्राप्त होता है।
अन्तःशस्य खेती की प्रमुख सिद्धान्त
अन्तःशस्य कृषि पद्वति को अपनाने के लिए कुछ मूलभूत सिद्धान्तों का पालन किया जाना बहुत आवश्यक है। यदि सिद्धान्तों का सही तरीके से पालन नही किया गया तो कभी-कभी लाभ की अपेक्षा हानि भी उठानी पड़ सकती है। अन्तःशस्य के कुछ सिद्धान्त निम्न प्रकार है:-
बागानों / पेड़ों के साथ अन्तःफसल के रूप में जो फसल ली जा रही है उसको आरम्भिक स्तर पर मुख्य फसल के अनुरूप कृषि क्रियाएँ करनी चाहिए।
कुछ अन्तःफसलों को अधिक पोषक तत्व, सिचाई व कृषि क्रियाओं की आवश्यकता होती है। उस समय कुछ लागत बढ़ा देनी चाहिए जिससे उत्पादन अच्छा प्राप्त हो सके। जैसे पहाड़ी क्षेत्र में सेब, नाशपाती के साथ आलु की अन्तःफसल ली जाती है। इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि अन्तःफसले अधिक फैलने वाली नहीं होनी चाहिए, जैसे- कद्दू वर्गीय सब्जियों को अन्तःशस्य के रूप में नही लेना चाहिए।
अन्तःफसलों का चुनाव करते समय मुख्य फसल का ध्यान रखना आवश्यक है। जिस प्रकार मुख्य फसल को पानी आवश्यकता होती है, उसी प्रकार की पानी की आवश्यकता वाली अन्तःफसल का चुनाव करना चाहिए। कम पानी चाहने वाली फसल के साथ बरसीम की फसल (अधिक पानी चाहने वाली) को नही लगाना चाहिए। इससे प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जो अन्तःफसले अधिक पोषक तत्वों को अवशोषित करती है, उन्हें अन्तःशस्य में बहुत कम प्रयोग करना चाहिए।
- बागनों / पेडो की आयु 7 या 8 वर्ष हो जाए शस्य फसल लेनी बन्द कर देनी चाहिए। अधिक पूर्ण छाया मिलने पर भी अन्तःफसल का उत्पादन कम हो जाता है, जो लाभप्रद नही होता है।
- अन्तःफसल के रूप में जो भी फसले उगाई जाएं व बहुवर्षीय फसले नही होनी चाहिए। जहां तक सम्भव हो, अवधि वाली, वार्षिक या 4-6 माह वालों फसलें होनी चाहिए।
- वृक्षों के साथ अन्तःफसल लेते समय उनके पतझड़ आदि का ध्यान रखना चाहिए जिससे उस फसल पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
- अन्तःफसल जल्दी आय देने वाली होनी चाहिए।
- इसी क्रम में बन्थरा अनुसंधान केन्द्र पर कुछ अन्तःफसल पर प्रयोग किए गए, जिनके परिणाम उत्साहनक रहे। मुख्य फसल पापॅलर के वृक्षों के नीचे मसाले, लगाई गई। जिस वर्ष पॉपलर लगाए गए। उस वर्ष से लेकर 5 वर्षों तक फसलों के उत्पादन में कोई खास अन्तर नहीं पाया गया। उसके उपरान्त अन्तःफसल का उत्पादन घटा लेकिन जिन अन्तःफसलों को छाया की आवश्यकता होती है, उनके उत्पादन में बढता प्राप्त हो गई। हल्दी को पॉपलर की फसल के साथ लगाने से मृदा सुधार बहुत अच्छा होता है तथा जीवांश की मात्रा बढ़ जाती है। इसकी पत्तियां बहुत जल्दी सड़ जाती है। बंथरा अनुसंधान केन्द्र पर अन्तःशस्य के रूप में धनिया, सौफ, कलौंजी, मेथीं, गेहूँ, मटर, सरसों, अदरक आदि को सफलता पूर्वक उगाया गया है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।