
हिंदी का सबसे ज्यादा प्रभाव उत्तर भारत में है- Publish Date : 17/09/2025
हिंदी का सबसे ज्यादा प्रभाव उत्तर भारत में है-
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
भाषा और हमारा समाज
हजारों आदिवासी भाषाएं जो अपनी ज़ड़ों से जुड़ी हैं। सदियों के जीवन अनुभवों से उपजी ये भाषाएं पर्यावरण के गहरे सरोकारों में रची-बसी हैं। इनमें ज्ञान की अथाह राशि सन्निहित हैं। आधुनिक विकास की होड़ ने परंपरागत ज्ञान के उस अगाध भंडार को विकास की होड़ में दफना दिया है। विकास के नाम पर जंगलों का सफाया, उन आदिवासी भाषाओं और संस्कृतियों का भी सफाया कर रहा है जो देशज और मौलिक ज्ञान के अजस्र स्रोत थे।
इन आदिवासी भाषाओं में ज्ञान की जो विशिष्टता निहित है उसका संरक्षण और संवर्द्धन नव-सृजन के स्फुरण की क्षमता रखता है। ऐसे ज्ञान-बीज की विलुप्ति एक पूरी भाषाई सभ्यता और संस्कृति की समाप्ति है जो बहुत सारे सामाजिक-सांस्कतिक जीन विश्व को मुहैया करा सकती थी।
भाषा शिक्षा का माध्यम है, वह माध्यम अपनी मातृभाषा भी हो सकती है और कोई दूसरी भाषा भी। इसलिए भाषा किसी-न-किसी उद्देश्य या प्रयोजन के संदर्भ में सीखी अथवा सिखाई जाती है। लेकिन मातृभाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में विकसित करने का मतलब है अपने समाज और देश की संप्रेषण प्रक्रिया को सुदृढ़, व्यापक और सशक्त बनाना, क्योंकि मातृभाषा वह सामाजिक वास्तविकता है जो व्यक्ति को अपने भाषायी समाज के विभिन्न सामाजिक संदर्भों से जोड़ती है और उसकी सामाजिक अस्मिता का निर्धारण करती है। इसी के आधार पर व्यक्ति अपने समाज और संस्कृति से जुड़ा रह सकता है।
भाषा ही समाज में संस्कृति और संस्कारों की संवाहक होती है। भाषा व्यक्ति को अपनी सौंधी गंध में समाजीकृत करती है उसे सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान प्रदान करती है। व्यक्ति के बौद्धिक विकास के साथ-साथ उसकी संवेदनाओं और अनुभूतियों की सहज-स्वाभाविक अभिव्यक्ति अपनी भाषा में ही होती है।
मातृ भाषाई माध्यम विभिन्न विषयों के ज्ञान को स्वाभाविक और सरल व सहज ढंग से हमारे व्यक्तित्व में उतारता है। मातृभाषा विद्यार्थी में बोलने, समझने, पढ़ने और लिखने जैसे सभी चारों कौशलों के विकास के साथ-साथ साहित्यिक रसास्वादन के क्षमतावर्द्धन में भी योग करती है। हर कोई अपनी भाषा की सूक्ष्मताओं और विशिष्टताओं से परिचित भी होता है। इससे लिखित साहित्य तक उसकी पहुंच आसान हो ही जाती है।
परिणामतः उसकी सर्जनात्मक क्षमता और तार्किक शक्ति का विकास होता है। सर्जनात्मक प्रतिभा से उसकी साहित्यिक रचना की रुचि बढ़ती है जिससे समाज में समाजोपयोगी कार्य करने की भाषिक क्षमता भी विकासोन्नमुख दिशा में सक्रिय होना चाहती है। भाषा की यह शक्ति उसके प्रयोग पर निर्भर रहती है। नए-नए प्रयोग ही उसकी मारक क्षमता का विकास करते हैं और किसी भाषा के सशक्त भाषा बनने में प्रेरक की भूमिका निभाते हैं।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।