वृक्षारोपण की मियावाकी पद्धति      Publish Date : 27/08/2025

                    वृक्षारोपण की मियावाकी पद्धति

                                                                                                                                   प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता

यह वनरोपण की एक पद्धति है जिसका आविष्कार मियावाकी नामक जापान के एक वनस्पतिशास्त्री ने किया था। अकीरा मियावाकी को यह आइडिया तव आया जब वह 1992 में रियो डी जेनेरियो में आयोजित अर्थ समिट में पहुँचे। उनका अनुभव था कि दुनिया में कहीं भी चले जाए मन्दिर, चर्च एंव अन्य धार्मिक स्थानों पर पनपने वाले पौधे कभी खत्म नही होते हैं। यहाँ लगे वृक्ष बहुत प्राचीन होते हैं परन्तु संख्या मे यह कम होते हैं। यही सें उन्हें प्रेरणा मिली कि किस प्रकार कम भूमि में अधिक पौधे लगाये जा सकते हैं। उनके अध्ययन में पता लगा कि जापान मे सिर्फ 0.6 फीसदी पेड़ ऐसे हैं जिन्हें आबोहवा के हिसाव से कुदरती कहा जा सकता है। इस प्रकार अलग से उगाए जंगल में अनेक पौधे ऐसे लगा दिए जाते हैं वहाँ की मिट्टी के अनुकूल नही होते हैं।

मियावाकी पद्धतिः वनस्पति शास्त्री मियावाकी की इस पद्धति में छोटे-छोटे स्थानों पर छोटे-छोटे पौधे रोपे जाते हैं जो साधारण पौधों की तुलना में दस गुणा तेजी से बढ़ते हैं। इस पद्धति में सर्वप्रथम क्षेत्र की मिट्टी की बनावट जलधारण क्षमता, पैषक तत्त्वों की अवधारण क्षमता आदि का परीक्षण करने की जरूरत होती है। इसी प्रकार मिट्टी की बनावट यथा रेतीली दुमट के बारे मे जानकारी आवश्यक है। दुमट मिट्टी में रेत, मिट्टी गाद एंव कार्बनिक पदार्थों का मिश्रण होता है तथा वे वनीयपौधो को ऑक्सीजन, पानी पोषक तत्त्व एंव जल निकासी का सही संतुलन भी प्रदान करते हैं।

                                                       

गेहू, मूंगफली के छिलके, मकई की भूसी, चावल की भूसी जैसी छिदूक सामग्री से मिट्टी में सुधार के साथ जड़ों को बढ़ने में मदद मिलती है। इसके अतिरिक्त जल को बनाए रखने हेतु जल रिटेनर यथा गन्ने के डंठल एंव कोकोपिटका प्रयोग कर सकते हैं। मिट्टी को पोषक बनाने हेतु वर्मीकम्पोस्ट, गाय की खाद एंव जैव उर्वरक उपयोगी रहते हैं। मिट्टी पर गीली घास की परत लगाने से यह मिट्टी की रक्षा एंव इन्सुलेट का कार्य करता है। यह सूर्य की किरणों को सीधे मिट्टी पर गिरने से रोककर पानी को वाष्पित होने से रोकता है। इसी प्रकार सूखी घास, सूखे पत्ते, जी का डंठल, गेहू काडंटल, चावल का भूसा एंव मकई का डंठल भी इस हेतु उपयुक्त है।

वृक्षारोपण हेतु विभिन्न प्रकार की देशी प्रजातियों को बढ़ावा देते हुए जैव विविधता बढ़ाने, कम दीर्घकालीन रखरखाव की आवश्यकता वाले तथा स्थानीय पर्यावरणीय परिस्थितियों मे अच्छे पनपने वाले पौधो का चयन करना चाहिए। नर्सरी में प्रजातियों की उपलब्धता एंव आदर्श ऊँचाई 60-80 से.मी. हो तथा फूल, औषधीय लकड़ी तथा फलने वाली प्रजातियों के मिश्रण का विकल्प तैयार कर मुख्य प्रजातियों (50 प्रतिशत) एंव सहायक देशी प्रजातियों 25-40 प्रतिशत का चयन करना चाहिए। शेष हिस्सों में छोटी देशी प्रजातियों ले सकते है।

वनीकरण क्षेत्र की डिजाइन हेतु वनीकरण के उपयुक्त क्षेत्र की पहचान करने के साथ पानी की पाइप लाइन का ले-आऊट, ओवरहेड पानी का टैक एंव अन्य सामग्री की खरीद के साथ अन्य कार्या यथा पौधे, उपकरण श्रमिक आदि की व्यवस्था भी महत्त्वपूर्ण है।

                                                           

पौधरोपण की तैयारीः इस पद्धति में सबसे पहले गढ्ढा बनाना होता है जिसका आकार-प्रकार भूमि की उपलब्धता पर निर्भर होता है। गढ्ढा खोदने के पहले तीन प्रजातियों की एक सूची वनानी होती है तथा इस हेतु ऐसे पौधें चुने जाते है जिनकी ऊँचाई पेड़ बनने पर अलग-अलग हो सकती है।

गढ्ढे बनाने हेतु वृक्षारोपण क्षेत्र में 3-4 फीट तक खुदाई कर निकाली मिट्टी को किनारेपर रखना चाहिए। अब इस गढ्ढे में कम्पोस्ट की एक परत डाली जाती है तत्त्पश्चात् सूखी घास, चावल का भूसा, खोपरा जैसे प्राकृतिक कचरे की एक परत लगाते हैं एवं इसके ऊपर मिट्टी की एक परत विछाई जाती है। सामान्यतः 12 इंच चीड़े एवं 12 इंच गहरे गढ्ढे हर 1.5-2 फीट पर त्रिकोणीय आकार मे खोदे जाते हैं। तीनों प्रकार के पौधे एक साथ नहीं रोपकर थोड़े-थोड़े दिन के अन्तराल पर रोप जाते हैं तथा यह वृक्षों की ऊँचाई के आधार परनिर्धारित किए जाते हैं। सम्पूर्ण प्रक्रिया 2-3 सप्ताह में पूरी की जाती है।

पौधे लगाने के लिए जितनी किस्में होती हैं उतने ही ग्रिड बनाते हैं। यदि आपके पास 30 प्रजातियो के पेड़ हैं तो 30 गढ्ढों के आधार पर ग्रिड को चिन्हित करते हैं। पौधों को अपने पॉलीयेग से निकालने से पहले पॉलीवैग को एक वाल्टी में जिसमें 20 भाग पानी, 1 भाग जीवामृत या गी मूत्र या काफी के मिश्रण में डुबोकर व्यवस्थित कर लेते हैं। पॉलीबैग सेपौधे को हटाकर गढ्ढे में रख देते तथा मिट्टी से ढक देते हैं। सामान्यतः दो समान प्रजातियों को आस पास नही लगाते हैं तथा प्रत्येक पौधे के बीच 60 सेमी. की दूरी बनाए रखते हैं। पौधे रोपने के बाद 4-5 फीट बॉस के डडे पौधे के पास मिट्टी में सपोर्ट के लिए लगाते हैं। मिट्टी में गीली घास की 5-7 इंच की परत इस प्रकार लगाते हैं कि प्रति पेड़ कम से कम आधा किलों गीली घास हो जाए। तेज हवाओं के दौरान गीली घास इधर-उधर न उड़े इस हेतु जूट की रस्सी से इसे बाँध देते हैं। इन रस्सियों को बाँस के खुटे पर लगाते हैं। मल्विण एंव मिट्टी जमने के लिए प्रथम बार में पौधों को एक घंटे तक पानी देते हैं। इस प्रकार पौधरोपण कर मौसम अनुसार पानी एंव अन्य प्रवधन 2-3 वर्ष तक करना चाहिए।

इस तकनीक की मदद से 2 फीट चौड़ी एंव 30 फीट पट्टी में 100 से अधिक पौधे रोपे जा सकते हैं। इस पद्धति में बहुत कम खर्च में पौधे को 10 गुणा तेजी से उगाने के साथ 30 गुणा ज्यादा घना बनाया जा सकता है। पौधों को पास-पास लगाने से इन पर खराब मौसम का असर नहीं पड़ता है तथा गर्मी में नमी कम नहीं होती है तथा ये हरे-भरे रहते हैं।

शहरी वानिकी की यह तकनीक बगीचे या आसपास की खुली जगह में भी अपनाई जा सकती है। दुनिया भर में इस तकनीक से 3000 से भी ज्यादा जंगल उगाए जा चुके हैं। भोपाल, केरल, बेंगलुरू, तेलंगाना आदि क्षेत्रों में इससे पौधे सफलतापूर्वक तैयार किए जा रहे हैं।

इस स्मार्ट एंव प्रभावी तकनीक के द्वारा मिट्टी एंव जलवायु जैसे कारकों के बावजूद तेजी से बढ़ने वाले जैविक बनों को तैयार कर सकते है। इस तकनीक में पौधे ऐसे लगाने चाहिए जो वहाँ की आबोहवा के अनुकूल हो। इस पद्धति की तकनीकी को सही ढंग से क्रियान्वित कर कम जगह एवं कम समय में पौधे लगाए जा सकते हैं परन्तु इसकी सम्पूर्ण जानकारी कर ही पौधरोपण करना चाहिए।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।