पर्यावरण प्रदूषण के सन्दर्भ में मानव स्वास्थ्य      Publish Date : 16/08/2025

          पर्यावरण प्रदूषण के सन्दर्भ में मानव स्वास्थ्य

                                                                                                                                               प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

पर्यावरण के संरक्षण में उभरी खामियों का प्रभाव पृथ्वी के समस्त प्राणियों पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा है। पशु-पक्षी हों या मानव अथवाा कोई अन्य प्राणी, हमारे परिवेश के बिगड़ते स्वरूप के दुष्प्रभावों से कोई भी बच नहीं सका है। आज के हमारे प्रस्तुत लेख में पर्यावरण संरक्षण की उपेक्षाओं के चलते मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभावों का एक संतुलित लेखा-जोखा लेखक ने प्रस्तुत किया है।

हम सभी जानते हैं कि मानव जीवन प्राणदायी वायु, शुद्ध पेयजल की उपलब्धता के साथ-साथ मृदा और ध्वनि आदि के प्रदूषण रहित परिवेश पर आधारित है। जहां पिछली शताब्दी के दौरान स्वास्थ्य, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों की अनेक उपलब्धियों ने मानव के रोजमर्रा जीवन को सहज, सुगम बनाया है, वहीं बढ़ते औद्योगिककरण ने मानव स्वास्थ्य को एक बड़े पैमाने पर प्रभावित भी किया है। आज के इस प्रगति के दौर में हमारा संपूर्ण परिवेश एक असंतुलित माहौल का गहरा दंश झेल रहा है।

वायु प्रदूषण

कल-कारखानों तथा परिवहन में प्रयुक्त फॉसिल ईंधनों के बेतहाशा उपयोग के चलते हमारे परिवेश की जीवनदायिनी वायु जानलेवा स्तर तक प्रदूषित हो चुकी है। आज वायु प्रदूषण के चलते अस्थमा और क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिज़ीज़ (सीओपीडी) जैसी अनेक श्वसन समस्याएं निरंतर बढ़ती जा रही हैं। इसके साथ ही फेफड़ों के कैंसर तथा हृदयाघात और स्ट्रोक जैसे हृदय रोगों के पीछे वायु प्रदूषण की एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका पाई गई है। वायु प्रदूषण जहां पार्किंसन रोग और अल्जाइमर रोग जैसी न्यूरोलॉजिकल यानी तंत्रिका संबंधी समस्याओं का कारण बन रहा है, वहीं महिलाओं में गर्भपात और जन्म दोष जैसी प्रजनन से संबंधित समस्याओं में भी इसकी प्रभावी भूमिका देखी जा सकती हैं।

मानव स्वास्थ्य पर प्रदूषण का प्रभाव

प्रदूषित परिवेश में स्वास्थ्य पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव के लिए ज्ञात पीपीएम 2.5 और पीपीएम 10 नामक पार्टीकुलेट मैटर्स के स्तर बहुत अधिक बढ़ जाता हैं। ये पार्टीकुलेट मैटर क्रमशः 2.5 और 10 माइक्रॉन से भी कम व्यास के अतिसूक्ष्म कण होते हैं। वायु प्रदूषण का बच्चों, गर्भवती महिलाओं, वृद्ध लोगों और पहले से रोगग्रस्त व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आज के इस प्रदूषित परिवेश में त्वचा और आंखों में जलन के साथ-साथ तंत्रिका सबंधी, हृदय वाहिकीय यानी कार्डियोवैस्कुलर, श्वसन संबंधी, आदि जैसी अनेक स्वास्थ्य समस्याएं आसानी से देखी जा सकती हैं। संदूषित वायु के प्रभाव में अस्थमा, क्रॉनिक अवरोधी फेफड़ा रोग यानी सीओपीडी, श्वसनी-शोथ यानी ब्रोंकाइटिस, कोरोनरी रोग, ट्यूबरकुलोसिस यानी क्षयरोग, कैंसर, हृदय गति रुकने, आदि जैसी स्थितियां अधिक विकसित हो रही हैं।

प्रदूषित वायु में बड़े आकार के पार्टीकुलेट मैटर्स की तुलना में पीएम 2.5 के अतिसूक्ष्म कण मानव विशेष रूप से बच्चों में ट्रैकिया के माध्यम से फेफड़ों में पहुंच कर रक्त परिसंचरण में फैल जाते हैं। प्रदूषित वायु में पीएम 2.5 की अधिकता से प्रभावित होने पर नाक बहने, खांसी के साथ सांस फूलने, वायुपथ और फेफड़े के कार्यों में गिरावट जैसी समस्याएं उभरती हैं, तथा क्रॉनिक अवस्था में अस्थमा और कोरोनरी धमनी रोग विकसित होने की संभावना भी काफी हद तक बढ़ जाती है। प्रदूषित वायु के प्रभाव में स्ट्रोक यानी आघात, फेफड़े का कैंसर, हृदयघात और श्वसन प्रणाली में तीव्र संक्रमण जैसी स्वास्थ्य समस्याएं सामने आती हैं। वायु प्रदूषण के वैश्विक प्रभाव पर आकलन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 6 लाख से अधिक लोग वायु प्रदूषण के प्रभाव में असामयिक मौत का शिकार हो जाते हैं।

इसके सम्बन्ध में शिकागो विश्वविद्यालय स्थित एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट (ईपीआईसी 2020) द्वारा संपन्न अध्ययन के अनुसार यदि दिल्ली में वायु की गुणवत्ता विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानकों के अनुरूप हो तो वहां आबादी की औसत आयु 9 वर्षों से अधिक बढ़ सकती है। एक अन्य अध्ययन के अनुसार, भारत में वर्ष 2017 में 12.4 लाख मौतों के पीछे वायु प्रदूषण का हाथ पाया गया, जिनमें 67,000 मौतें पार्टीकुलेट मैटर के उत्सर्जनके कारण हुई थीं। यहां तक कि भारत में वायु प्रदूषण के कारण 51 प्रतिशत मौतें 70 वर्ष से कम आयु के लोगों की हुई थीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा परिवेश में पीएम 2.5 के 35 &g/m3 (माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर) के स्तर को सुरक्षित माना गया है, जबकि कृषि अपशिष्टों को जलाने के दौरान इसका स्तर 100mu/g/m3 से अधिक पहुंच जाता है। इसी प्रकार एयर क्वालिटी इंडेक्स (ए क्यू आई) और पार्टीकुलेट मैटर्स हेतु निर्धारित मानक (केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, 2014) दिल्ली, एनसीआर में एक्यूआई की स्थिति गत वर्ष दीपावली त्योहार यानी दिनांक 1 नवंबरए 2024 के बाद दिल्ली के कई क्षेत्रों में एयर क्वालिटी इंडेक्स का आंकड़ा 400 पार कर गया था।

वायु प्रदूषकों के अंतर्गत पीएम 2.5 का स्तर 304 तथा पीएम 10 का स्तर 374 पहुंच गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 24 घंटे की अवधि के लिए वायु गुणवत्ता सूचकांक के अंतर्गत पीएम 2.5 का स्तर 20.3 गुणा अधिक पाया गया। वहीं CO (कार्बन मोनोऑक्साइड) का स्तर 870, ओज़ोन का 6, NO-2À नाइट्रोजन डाइऑक्साइड) का 14, तथा SO-2À (सल्फर डाइऑक्साइड) 6 का स्तर दर्ज किया गया है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार अक्टूबर माह (2024) के आखिरी सप्ताह में दिल्ली के अक्षरधाम क्षेत्र का एयर क्वालिटी इंडेक्स 353 आंका गया। देश की राजधानी में प्रदूषकों की मौजूदगी के अंतर्गत पीएम 2.5 का स्तर 82 mu.g/m3 पीएम 10 का स्तर 176mu.g/m3 CO (कार्बन मोनोऑक्साइड) 918 PPM, ओज़ोन 21 mu.g/ml NO-2À, 19 mu.g/m/3 SO-2À (सल्फर डाइऑक्साइड) 5 डॉवसन यूनिट (DU) तक पहुंच गया था।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा पीएम 2.5 और पीएम 10 प्रदूषकों के लिए सुरक्षित मानक स्तर क्रमशः 60.g/m3 और 100mu.g/m3 निर्धारित किया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार नई दिल्ली का पीएम 2.5 स्तर निश्चित सुरक्षित स्तर (एयर क्वालिटी गाइडलाइंस वैल्यू) से 5 गुना बढ़ा हुआ दर्ज किया गया है।

वायु प्रदूषण और मानव का प्रजनन स्वास्थ्य

औद्योगिक क्रांति के चलते उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण महिला और पुरुष दोनों के प्रजनन स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या, गतिशीलता तथा उनकी गुणवत्ता में कमी, टेस्टीकुलर एवं प्रोस्टेट कैंसर में बढ़ोतरी तथा महिलाओं के मासिक चक्र में अनियमितता, स्तन कैंसर एवं अंतर्गर्भाशय आस्थानता (एंडोमेट्रियोसिस) में बढ़ोतरी जैसी स्थितियां शामिल हैं। प्रदूषण वायु में मौजूद पार्टीकुलेट मैटर (PM2.5, PM 10), नाइट्रोजन ऑक्साइड्स, सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड तथा बोलेटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स प्रजनन स्वास्थ्य से संबंधित तरह-तरह की समस्याएं पैदा कर सकते हैं। वायु प्रदूषित क्षेत्र की महिलाओं के हॉमोंन में असंतुलन पैदा हो सकता है जिसके परिणामस्वरूप गर्भाशय यानी ओवरी में फॉलिकल का विकास तथा डिंब यानी एग की परिपक्वता प्रभावित हो सकती है।

स्वच्छ एवं शुद्ध वायु में रहने वाली महिलाओं की तुलना में अत्यंत प्रदूषित क्षेत्र की महिलाओं की प्रजनन क्षमता में गिरावट आने के करण उनमें गर्भधारण की अवधि 20 से 25 प्रतिशत से अधिक बढ़ सकती है। प्रदूषित वायु में पार्टीकुलेट मैटर 2.5 का स्तर बहुत अधिक होने से गर्भवती महिलाओं में गर्भपात का खतरा 20 प्रतिशत से अधिक बढ़ सकता है। यानी वायु प्रदूषण के प्रभाव में महिलाओं में बांझपन और गर्भपात जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इसके प्रभाव में भ्रूण और नवजात के विकास के बाधित होने तथा जन्म दोष जैसी समस्याएं उत्पन्न होने की संभावना बढ़ जाती है। चीन में संपन्न एक अध्ययन में अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्रों के पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या में लगभग 12 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। वायु प्रदूषण तनाव यानी ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस का कारण बन सकता है, जिससे शुक्राणु यानी स्पर्म के डीएनए के क्षतिग्रस्त होने से उनकी गुणवत्ता में गिरावट आ सकती है।

नवजात शिशुओं के प्रदूषित वायु से प्रभावित होने से उनके वयस्क काल में प्रजनन संबंधी विकास प्रभावित हो सकता है। बिसफिनोल ए (बीपीए) और बैलेट्स नामक औद्योगिक रसायनों का प्रयोग वर्ष 1950 के दशक से कुछ प्लास्टिक और रेसिंस के निर्माण में किया जा रहा है। इन रसायनों के साथ-साथ लेड और मरकरी जैसे तत्व एंडोक्राइन (अंतःस्रावी) प्रणाली को बाधित करके प्रजनन स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। कृषि उपज बढ़ाने के लिए डीडीटी और ऑर्गेनोफॉस्फेट जैसे की कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से भी प्रजनन स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना होती है।

जल स्रोतों का प्रदूषण

हमारी नदियों, झीलों के साथ-साथ भूजल जैसे जल स्रोत गंभीर रूप से प्रदूषित हुए हैं। पहाड़ों से निकलने वाली निर्मल जलधारा वाली नदियों के किनारों पर मानव सभ्यता का विकास संभव हुआ, परंतु पिछली शताब्दी से लेकर आज तक गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, गोदावरी आदि जैसी नदियों के किनारे बसे बड़े-बड़े शहरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल के निपटान की उपयुक्त व्यवस्था न होने के चलते उनका मुख इन नदियों में खोल दिया गया। आज गंगा, यमुना की दयनीय स्थिति से हम सभी भली-भांति परिचित हैं। भारत सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों द्वारा इन नदियों की निर्मलता एवं अविरलता को बनाए रखने के लिए करोड़ों-अरबों रुपए व्यय करने पड़ रहे हैं। हमारी नदियां और जल स्रोत इस हद तक प्रभावित नहीं होते तो इस व्यय का सदुपयोग राष्ट्र के निर्माण में किया जा सकता था। प्रदूषित जल से हेजा और टाइफाइड जैसे रोगों की उच्च व्यापकता के चलते न केवल रोगी का शरीर प्रभावित होता है बल्कि इसका असर परिवार के सदस्यों, उनकी आय के साथ-साथ देश की उत्पादकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

भारत की एक बहुत बड़ी आबादी की विभिन्न मांगलिक कार्यों के दौरान इन नदियों में स्नान करने की परंपरा रही है। परंतु आस्था के चलते, अनेक नदियों का जल स्नान के लिए उपयुक्त नहीं रह गया है। फिर भी आस्था आधारित परंपरा के निर्वहन में प्रदूषित नदियों में स्नान के उपरांत गंभीर त्वचा रोगों का संक्रमण एक आम समस्या हो गई है।

वर्षा का जल भी नहीं अछूता

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग और भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान द्वारा एक दीर्घकालिक अध्ययन से पता चला है कि भारत के कई हिस्सों में अब वर्षा का जल तेजी से अम्लीय यानी एसिडिक हो रहा है। आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम, उत्तर प्रदेश के प्रयागराज और असम के मोदनबाड़ी जैसे शहरों में यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। यदि बढ़ते प्रदूषण पर काबू नहीं पाया गया तो इसके दूरगामी प्रभाव पड़ सकते हैं। वर्ष 1987 से 2021 के बीच लगभग 34 वर्षों के दौरान देश के प्रमुख 10 स्थानों में संपन्न संयुक्त अध्ययन से चौंकाने वाले परिणाम मिले हैं। श्रीनगर, जोधपुर, प्रयागराज, मोहनबाड़ी, पुणे, नागपुर, विशाखापट्टनम, कोडाईकनाल, मिनिकॉय और पोर्ट ब्लेयर में सम्पन्न अध्ययनों से स्थानीय वर्षा के पानी में रसायनों की मात्रा और पीएच स्तर की निगरानी की गई। बरसात के पानी का सामान्य पीएच स्तर लगभग 5.6 होता है। हालांकि, वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मौजूदगी में वर्षा के पानी का थोड़ा अम्लीय होना स्वाभाविक है, परंतु यह स्तर 5.65 से नीचे जाने पर यह अम्लीय वर्षा की श्रेणी में आ जाता है।

इस अध्ययन के अनुसार पिछले तीन दशकों में कई शहरों में वर्षा के पीएच में निरंतर गिरावट देखी जा रही है जो पयर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए एक चिंताजनक स्थिति है। इस संयुक्त अध्ययन के अनुसार प्रयागराज में प्रत्येक दशक में पीएच के स्तर में 0.74 यूनिट की गिरावट दर्ज की गई है। पुणे में प्रत्येक दशक यह गिरावट 0.15 यूनिट देखी गई है। विशाखापट्टनम में वर्षा के पानी में अम्लीयता यानी एसिडिटी के पीछे तेल रिफाइनरी, उर्वरक संयंत्र और शिपिंग यार्ड से निकलने वाले प्रदूषकों की भूमिका की आशंका व्यक्त की गई है।

इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि वाहनों, उद्योगों और कृषि संबंधी कार्यों से निकलने वाले नाइट्रेट और सल्फर डाइऑक्साइड जैसे प्रदूषक अम्लीय वर्षा के लिए जिम्मेदार हैं, इसके साथ ही प्राकृतिक न्यूट्रलाइज़ की मात्रा में गिरावट तथा अमोनियम की सीमित वृद्धि संतुलन बनाए रखने में असमर्थ रही है। भविष्य के लिए चेतावनी, हालांकि, वर्षा जल का वर्तमान पीएच स्तर अभी अत्यधिक खतरनाक नहीं है, परंतु यदि यही स्थिति बनी रही तो यह अम्लीय वर्षा ऐतिहासिक भवनों, कृषि भूमि और जल स्रोतों के साथ-साथ खाद्य श्रृंखला यानी फूड चेन को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है।

खाद्यों में प्रदूषकों की उपस्थिति

वर्तमान दौर में लगभग सभी खाद्य पदार्थों में सूक्ष्म मात्रा में ही सही, रासायनिक अथवा अन्य तत्व पाए जाते हैं। जिनका मुख्य कारण कृषि की उपज को बढ़ाने के लिए रसायनों और कीटनाशकों का अत्यधिक मात्रा में अंधा-धुंध उपयोग करना है। खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने में भी कुछ रसायनों का उपयोग किया जाता है। बाजार से सब्जियों अथवा अन्य खाद्य पदायों को प्लास्टिक निर्मित थैलियों में लाने का चलन विश्व के लगभग सभी देशों में हो गया है। इन थैलियों में अथवा प्लास्टिक के डिब्बों में खाद्य पदार्थों को रखने से प्लास्टिक के अंदर मौजूद हानिकारक रसायन धीरे-धीरे रिसकर उन वस्तुओं में जमा हो सकते हैं जो स्वास्थ्य यहां तक की प्रजनन स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हो सकता है। मौजूदा पेय पदार्थों में भी मौजूद हानिकारक रसायन प्राणियों के प्रजनन स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं।

वर्ष 1995 में सम्पन्न एक अध्ययन में कृषि रसायनों और औद्योगिक कचरों से उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण के चलते पक्षियों के भी प्रजनन स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव देखा गया। पर्यावरण प्रदूषण का स्तर प्रजनन स्वास्थ्य के अंतर्गत भ्रूण के विकास, भ्रूण मृत्यु, कंकाल में असामान्यता तथा तंत्रिका प्रणाली के प्रभावित होने के भी परिणाम स्पष्ट रूप से देखे गए हैं। मांस को लंबी अवधि तक संरक्षित करने के लिए तरह-तरह के रसायनों का उपयोग किया जाता है। ऐसे मांस का लंबी अवधि तक सेवन करने से पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या यानी स्पर्म काउंट में गिरावट आ सकती है।

मृदा प्रदूषण

बढ़ते औद्योगिककरण और शहरीकरण के चलते जहां कृषि लायक जमीन का रकबा दिन-ब-दिन घटता जा रहा है, वहीं, बेतहाशा बढ़ती आबादी की खाद्य जरूरतें पूरी करने के लिए घटते कृषि क्षेत्रों में खाद्यान्नों के अधिकतम उत्पादन की होड़ लग हुई है। मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए सरकार और वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित मानकों के विपरीत रासायनिक उर्वरकों, इंसेक्टीसाइड और पेस्टीसाइड्स के अंधा-धुंध प्रयोग से कृषि भूमि बेहद प्रदूषित हो गई है। प्रदूषित मृदा में उगाई गई फसलों से प्राप्त खाद्यान्नों के सेवन से शरीर में जहरीले पदार्थों का प्रवेश हो सकता है, जिससे कैंसर जैसी तरह-तरह की स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो सकती हैं। हालांकि, भारत सरकार द्वारा परम्परागत कार्बनिक खेती को बढ़ावा देने के विषय में जागरूकता उत्पन्न करने के प्रयास किये जा रहे हैं। मृदा प्रदूषण के चलते जहरीले पदायों के संपर्क में आने से कैंसर जैसी जानलेवा स्थितियों का एक गंभीर खतरा पैदा हो गया है।

प्लास्टिक प्रदूषणः एक ज्वलंत स्वास्थ्य समस्या

प्लास्टिक तेल अथवा गैस से निष्कर्षित मोनोमर्स की पॉलीमेराइज़ेशन प्रक्रिया से प्राप्त सिंथेटिक ऑर्गेनिक पॉलीमर होते हैं। लेंसेट प्लेनेटरी हेल्थ के अक्टूबर 2017 अंक में प्रकाशित संपादकीय के अनुसार वर्ष 2015 में विश्व में 6,300 मिलियन टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन हुआ। जिनमें केवल 9 प्रतिशत कचरे की रीसाइक्लिंग की गई, 12 प्रतिशत कचरे का दहन किया गया, जबकि शेष 79 प्रतिशत प्लास्टिक कचरे का निपटान लैंडफिल अर्थात् खुले परिवेश में किया गया। प्लास्टिक यूरोप 2022 के अनुसार वर्ष 2021 में विश्व में प्लास्टिक का उत्पादन 390 मिलियन टन से अधिक तक पहुंच गया था और अनुमान है कि वर्ष 2050 तक विश्व में प्लास्टिक का उत्पादन 33 बिलियन टन तक पहुंच जाएगा।

क्या होते हैं माइक्रोप्लास्टिक?

माइक्रोप्लास्टिक की रचना प्लास्टिक के अत्यंत सूक्ष्म कणों में खंडित होने से होती है। आज माउंट एवरेस्ट की चोटी से लेकर समुद्र की गहरी सतह तक 5 मिली मीटर (1) इंच का चौथा हिस्सा) से लेकर एक माइकोमीटर (एक मीटर का एक लाखवां हिस्सा अथवा 1 इंच का 1/25,000वां हिस्सा) के आकार के प्लास्टिक कणों की मौजूदगी पाई जाती है। मानव स्वास्थ्य और पारिस्थितिक प्रणाली यानी इकोसिस्टम पर इसके प्रभावों पर स्पष्ट जानकारी का अभी भी अभाव है। पूर्व अध्ययनों से पता चला है कि 1 लीटर बोतल बंद पानी में लगभग 10,000 से अधिक की संख्या में प्लास्टिक के सूक्ष्मकण मौजूद हो सकते हैं, जिनकी माइकोस्कोप के बिना पहचान संभव नहीं है। अलग-अलग अध्ययनों में माइक्रोप्लास्टिक का आकार भिन्न बताया गया है।

माइक्रोप्लास्टिक के लगभग 90 प्रतिशत कणों का आकार एक माइक्रोमीटर से छोटा होने के कारण वे नैनोप्लास्टिक के रूप में जाने जाते हैं। कुछ अध्ययनों में <10-m (माइक्रोमीटर), <5-m, <2-6-m और कुछ में <1-m आकार के प्लास्टिक कणों को माइक्रोप्लास्टिक की श्रेणी में रखा गया है। मीट्रिक प्रणाली में 1-m 0.001 एम एम (मिली मीटर) के बराबर होता है। रासायनिक गुणों के आधार पर माइक्रोप्लास्टिक्स मोनोमर और एडिटिव्स से बने सिंथेटिक पदार्थ होते हैं, जिनका आकार 0.1 से लेकर 5000 -उ तक होता है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ नामक जर्नल के जनवरी 2024 अंक में प्रकाशित शोध-पत्र के अनुसार नवीनतम विकसित लेज़र टेक्नोलॉजी की सहायता से बोतल बंद पानी में सूक्ष्मतम आकार के प्लास्टिक कणों का पता लगाया जा सका। इस अध्ययन में सम्मिलित कोलंबिया के बायोफिजिक्स वैज्ञानिक द्वारा विकसित इस नवीन टेक्नोलॉजी के माध्यम से प्रति लीटर बोतल बंद पानी में औसतन 2,40,000 की संख्या में प्लास्टिक के खण्डों का पता लगाया जा सका। प्लास्टिक की डीग्रेडेशन प्रक्रिया बहुत ही धीमी होने और तेजी से जमा होने के उनके गुणों के कारण प्रकृति में प्लास्टिक की उच्च मात्रा में स्थाई उपलब्धता है। आज दुनिया भर में प्लास्टिक के सूक्ष्म कणों की व्यापक उपस्थिति हो गई है। उन्हें माइकोप्लास्टिक और नैनोप्लास्टिक के रूप में जाना जाता है।

मानव स्वास्थ्य पर माइक्रोप्लास्टिक के दुष्प्रभाव

मानव में नैनोप्लास्टिक का संदूषण मुख्यतः उसके संपर्क में आने अथवा सांस के माध्यम से शरीर में प्रवेश करने के माध्यम से होता है। हाल के अध्ययनों से पेयजल एवं अन्य पेय पदार्थों, सीफूड, पादप उत्पाद, नमक, चीनी, शहद जैसे खाद्यों की गुणवत्ता एवं सुरक्षा पर खतरे की घंटी बज गई है। इन खाद्य-पदार्थों के माध्यम से माइक्रोप्लास्टिक्स मानव शरीर में प्रवेश कर ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस, शोथ यानी सूजन, प्रतिरक्षा विषाक्तता, नियोप्लाजिया का खतरा, कोशिकीय चयापचय में बाधा, तंत्रिका विषाक्तता, जनन प्रणाली में व्यवधान जैसी अनेक स्वास्थ्य समस्याएं पैदा करती हैं। नैनोप्लास्टिक <100 nm (नैनोमीटर) आकार के अति सूक्ष्म कष्ण होते हैं। सांस के माध्यम से नैनोप्लास्टिक के श्वसन प्रणाली में प्रवेश करने पर उनके ऊपरी वायु पथ पर जमा होकर फेफड़ों तक पहुंच कर जमा होने का संभावित खतरा रहता है।

हालांकि, संदूषित पर्यावरण के माध्यम से नैनोप्लास्टिक से प्रभावित होने पर अभी अध्ययन नहीं किए गए है पर माना जाता है कि कारखानों को वायुवाहित (एयरबोन) नैनोप्लास्टिक से पन्न फेफड़ों के रोगों का खतरा अधिक होता है। प्लास्टिक निर्माण के दौरान उसे मजबूती प्रदान करने के लिए बिसफिनॉल ए, बैलेट्स लेमरेटाडेंट्स जैसे रसायनों को मिश्रित किया जाता है जो प्रकृति में मिलकर प्रभावित मनुष्य की एंडोक्राइन प्रणाली को बाधित और कुछ फेफड़ों की बीमारियों का कारण बन सकते हैं। कुछ अध्ययनों के अनुसार खाद्य पदार्थों की पैकेजिंग और बोतल बंद डीआयोनाइज्ड एवं मिनरल वाटर की प्लास्टिक की बोतलों को मजबूती प्रदान करने तथा उनकी पारदर्शिता के लिए प्रयुक्त विसफिनॉल ए नामक रसायन हमारे पर्यावरण के साथ मिलकर स्वास्थ्य के प्रति खतरा बनते हैं। एक अन्य अध्ययन के अनुसार सात संदूषक (एन-हेक्ज़ेन, साइक्लोहेक्ज़ेन, बेंज़ीन, टाल्यूईन, क्लोरोवेंज़ीन, इथाइल बेंज़ोएट, और नैप्थलीन) पी एए पी ई, पी वी सी, और पी एस जैसे माइक्रोप्लास्टिक पर अवशोषित हो जाते हैं। जिससे इन हानिकारक ट्रेस गैसों से नैनो और माइक्रोप्लास्टिक की बढ़ती विषाक्तता का स्पष्ट संकेत मिलता है।

इस प्रकार माइक्रोप्लास्टिक/नैनोप्लास्टिक के संदूषण से प्रजनन विषाक्तता, कैंसरजनकता और उत्परिवर्तन उत्प्रेरक यानी म्यूटाजेनिक जैसी हानिकारक स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न होने की संभावना रहती है।

ध्वनि प्रदूषण

निरर्थक, अवांछनीय अथवा अनुपयोगी ध्वनि शोर प्रदूषण है। ध्वनि प्रदूषण प्राकृतिक स्रोतों अथवा मानवीय क्रियाओं के द्वारा उत्पन्न हो सकता है। प्राकृतिक स्रोतों में बिजली की तेज गर्जना, अधिक तेज वर्षा, आंधी, चक्रवाती शोर प्रदूषण है। ध्वनि प्रदूषण प्राकृतिक स्रोतों अथवा मानवीय क्रियाओं के द्वारा उत्पन्न हो सकता है। तूफान जैसी स्थितियां शामिल हैं। वहीं ध्वनि प्रदूषण के मानवीय स्रोतों में स्वचालित वाहनों, कारखानों, मिलों, वायुयान, लाउडस्पीकर, धार्मिक, वैवाहिक एवं सामाजिक समारोहों के दौरान असहनीय आवाज में बैंड बाजा, आदि जैसी स्थितियां शामिल हैं। ध्वनि प्रदूषण से बुजुर्गों, बच्चों और खासकर अस्पताल में भर्ती मरीजों में श्रवण समस्याएं पैदा कर सकती हैं। यह मनुष्य के स्वास्थ्य, आराम एवं उनकी कुशलता को प्रभावित करता है। बहुत अधिक शोर में रक्त धमनियों के संकुचन से शरीर पीला पड़ सकता है, रक्त प्रवाह में एड्रिनल हॉर्माेस का स्राव अत्यधिक मात्रा में होता है।

इससे तंत्रिकाओं में क्षति पहुंच सकती है। ध्वनि प्रदूषण से प्रभावित व्यक्ति में शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार की विसंगतियां उत्पन्न हो सकती हैं, जिससे कार्यक्षमता पर भी असर पड़ सकता है। अचानक अत्यधिक तीव्र शोर, ध्वनिक धमाका ध्वनिक गरज मस्तिष्क की विकृतियों का कारण बन सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 45 डेसीबल की ध्वनि को आदर्श माना है, जबकि बड़े शहरों में ध्वनि का स्तर 90 डेसीबल पार कर जाता है। 50 से 55 डेसीबल की ध्वनि नींद को बाधित कर सकती है। जबकि 150 से 160 डेसीबल की ध्वनि प्राण घातक हो सकती है। विशेषज्ञों का मानना है कि 150 डेसीबल की ध्वनि एक ही बार में मनुष्य को बहरा बना सकती है, यहां तक की 185 डेसीबल की ध्वनि से मृत्यु की भी संभावना बढ़ सकती है।

ध्वनि प्रदूषण को मापने के लिए आमतौर पर प्रयुक्त मापदंडों में ध्वनि दवाव स्तर, आवृत्ति, अवधि और विशिष्ट शोर के स्रोतों की उपस्थिति शामिल हैं। ध्वनि प्रदूषण तनाव और चिंता के रूप में मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है। इनके अलावा अनिद्रा और नींद में कमी, उच्च रक्तचाप, हृदयाघात एवं प्रजनन संबंधी समस्याएं भी उभर सकती हैं। भारत सरकार द्वारा यातायात, निर्माण कार्यों, औद्योगिक गतिविधियों तथा मनोरंजन के स्थानों में ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित रखने के लिए मानक निर्धारित किए गए हैं, परंतु इनके अनुपालन में नागरिकों की महत्वपूर्ण भूमिका अपेक्षित है।

पर्यावरण संरक्षण के लाभ

पर्यावरण संरक्षण के परिणामस्वरूप स्वच्छ वायु की उपलब्धता सुनिश्चित होती है जिससे श्वसन समस्याओं को कम करने में मदद मिलती है। इसी तरह स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति से जलजनित रोगों से बचा जा सकता है। मृदा संरक्षण से मिट्टी की उर्वरता तो सुनिश्चित होती ही है उसे फसलों की गुणवत्ता और पैदावार भी बढ़ती है। पर्यावरण संरक्षण से जैव विविधता यानी बायोडायवर्सिटी को बढ़ावा मिलने से पारिस्थितिकी तंत्र यानी इकोलॉजिकल सिस्टम सुदृढ़ होता है।

सेहत के लिए पर्यावरण प्रदूषण पर नियंत्रण जरूरी

औद्योगिक संयंत्रों, परिवहन संबंधित क्षेत्र में ऊर्जा के रूप में फॉसिल ईंधनों के स्थान पर सौर ऊर्जा (सोलर एनर्जी), हाइड्रोजन एनर्जी के रूप में हरित ऊर्जा यानी ग्रीन एनर्जी अधिक से अधिक बढ़ावा देने की आवश्यकता है। अपशिष्ट एवं मलजल के उपयुक्त प्रबंधन तथा सरकार के द्वारा निर्धारित नियमों और मानकों का पालन करके प्रदूषण के स्तर को काफी हद तक काम किया जा सकता है। प्रदूषण को कम करने में केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों के साथ-साथ अनेक गैर सरकारी संगठनों द्वारा अनेक योजनाएं संचालित की जा रही हैं। परंतु उनके अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए जन सामान्य में जागरूकता और शिक्षा कार्यक्रमों के आयोजन की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

वायु प्रदूषण के विरुद्ध कानून और नीतियां

भारत में वायु की गुणवत्ता को बेहतर बनाने तथा प्रदूषकों के उत्सर्जन को सीमित करने के उद्देश्य से पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालयय केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड; और इसकी राज्य स्तरीय शाखाएं प्रशासनिक संस्थाएं हैं। भारत में वर्ष 1967 में श्राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता निगरानी योजनाश् के रूप में भारतीय वायु गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम की शुरुआत की गई। देश में वर्ष 1985 में स्थापित इसके 28 केंद्रों की संख्या वर्ष 2016 में बढ़कर 731 हो गई है। भारत में वर्ष 1982 में श्वायु प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण अधिनियमश् स्थापितकिया गया। जिसके अंतर्गत पर्यावरणीय सुरक्षा अधिनियम के साथ मिलकर देश भर में वायु की गुणवत्ता पर निगरानी रखी जाती है। इसके अलावा भारत में पर्यावरण (सुरक्षा) कानून 1986 के अंतर्गत अन्य दिशानिर्देश जारी किए गए हैं। भारत सरकार द्वारा वर्ष 2019 में स्थापित श्राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रमश् का उद्देश्य वर्ष 2024 तक पार्टीकुलेट मैटर के उत्सर्जन में 20 से 30% की गिरावट लाना है।

पर्यावरण संरक्षण में नागरिकों की सहभागिता

बढ़ते शहरीकरण के चलते मानव आवास कंकरीट जंगल का रूप धारण करते जा रहे हैं। भवन निर्माण में प्रयुक्त लकड़ियों के लिए न केवल ग्रामीण क्षेत्रों के बाग बगीचे कटते जा रहे हैं, बल्कि घने जंगलों में वृक्षों की अंधा-धुंध कटाई हमारे पर्यावरण को असंतुलित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। देश के किसानों और सामान्य नागरिकों द्वारा वृक्षारोपण और ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देना आज समय की मांग है। इसी प्रकार ऊर्जा संचयन से ऊर्जा की बचत कर पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। प्लास्टिक के उपयोग में कमी लाकर भी पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में मदद मिलती है। पर्यावरण संरक्षण एक सामूहिक प्रयास है जिसमें हम सभी को अपनी भूमिका निभाने की आवश्यकता है। आज हमारे वैज्ञानिकों को इन हानिकारक कृत्रिम रसायनों के स्थान पर वैकल्पिक उपाय की खोज करने की आवश्यकता है जिससे प्राकृतिक पर्यावरण और प्राणियों दोनों को सुरक्षित रखा जा सके।

माइक्रोप्लास्टिक संदूषण के प्रभाव में उत्पन्न समस्या का समाधान आसान नहीं है। प्लास्टिककी वस्तुओं के निर्माण में इनोवेशन वानी नवाचार लाना, संबंधित उद्योगों की जिम्मेदारी सुनिश्चित करना तथा स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकारों द्वारा कारगर कदम उठाना आज समय की मांग है। माइक्रोप्लास्टिक संदूषित क्षेत्र में रहने वाली आबादी में उमरने वाली स्वास्थ्य समस्याओं, उनकी तीव्रता पर निगरानी रखने की भी आवश्यकता है। अभी तक माइक्रोप्लास्टिक संदूषित आहार अथवा जल के सेवन से मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों पर पर्याप्त अध्ययन नहीं किए गए हैं, जिन्हें बढ़ाने की जरूरत है। माइक्रोप्लास्टिक के प्रदूषण पर काबू पाने के लिए इसके स्रोत पर नियंत्रण, रीसाइक्लिंग, बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक की बढ़ावा, कड़े कानून का प्रावधान और बायोरीमीडिएशन जैसे पहलुओं पर संयुक्त प्रयास आशाजनक और सतत हल हो सकते हैं। पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को बचाने की दिशा में जन सामान्य में शिक्षा में एवं जागरुकता लाना आज समय की मांग है। प्रत्येक वर्ष 5 जून को श्विश्व पर्यावरण दिवसश् के रूप में मनाया जाता है, जिसका उद्देश्यं समुदाय में बढ़ते प्रदूषण के प्रभाव में उत्पन्न विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं के प्रति जागरुकता उत्पन्न करना है। प्रस्तुत आलेख जन सामान्य को इसके प्रभाव से बचने तथा नीति निर्माताओं को वैकल्पिक एवं हितकारी उपायों को सुझाने की दिशा में एक प्रयास है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।