
लइकेन के उपयोग एवं लाभ Publish Date : 08/08/2025
लइकेन के उपयोग एवं लाभ
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता
बड़े उपयोगी होते हैं और लाइकेन एंटीबायोटिक दवाओं के निर्माण में भी उपयोग किया जाता रहा है-
लाइकेन, अल्गी (शैवाल) और फफूंद से मिलकर बने तत्व होते हैं। मतलब यह कि अल्गी, शैवाल और फफूंद को मिलाकर एक इकाई के रूप में एक साथ रहते हैं। सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में अल्गी फोटोसिंथेसिस के जरिए भोजन तैयार करते हैं, जबकि फफूंद भोजन बनाने में असमर्थ होते हैं। लेकिन फफूंद पानी के अवशोषण का काम जल्दी और बड़े पैमाने पर करता है।
अब तक के अध्ययनों से पता चला है कि पृथ्वी पर लाइकेन की करीब 20 हजार प्रजातियां पाई जाती हैं। जिनमें से कुछ मिट्टी पर पाए जाते हैं तो कुछ बर्फीले क्षेत्रों में। कुछ चट्टानों पर तो कुछ पेड़ को टहनियों पर ही अपना बसेरा बना लेते हैं।
लाइकेन ऐसे इलाकों में भी पाए जाते हैं जहां कोई पौधा तक जीवित नहीं रह सकता है। रेगिस्तानी इलाकों में भी लाइकेन दिखते हैं। आर्कटिक के बर्फ से ढके क्षेत्रों में भी लाइकेन की उपस्थिति है। पर्वत शिखरों पर भी लाइकेन देखने को मिलते हैं।
लाइकेन में जड़ें नहीं पाई जातीं। इनकी ऊपरी सतह फफूंद कोशिकाओं से बनी होती है जिसका रंग हरा, पीला, भूरा आदि हो सकता है। यह सुरक्षात्मक परत होती है और इसे अपर कॉर्टेक्स कहते हैं। इसके भीतर हरे या नीले रंग की शैवाल कोशिकाएं होती हैं।
शैवाल कोशिकाओं के नीचे भोजन भंडार क्षेत्र स्थित होता है और इसे मेड्यूला कहते हैं। इसके निकट ही एक और सुरक्षात्मक परत होती है जिसे लोअर कॉर्टक्स कहते हैं। ज्यादातर लाइकेन में राइनाइन्स मिलते हैं जो लाइकेन की निचली सतह को किसी चट्टान या पेड़ या किसी ठोस सतह से चिपकाए रखते हैं।
वनस्पति विज्ञानियों ने अब तक लाइकेन के तीन समूहों का पता लगाया है। फुटिकोज लाइकेन, फोलिओज और क्रस्टोज लाइकेन। फुटिकोज लाइकेन झाड़ियों से दिखते हैं और मात्र आधार या जड़ के स्थान पर ही किसी ठोस सतह से चिपके रहते हैं। दूसरी और फोलिओज लाइकेन दिखने में पत्तियों-सरीखे होते हैं। क्रस्टोज लाइकेन क्रस्त या परत सरीखे होते हैं। ये किसी ठोस सतह से पूरे के पूरे चिपके होते हैं।
चूंकि लाइकेन जड़-रहित होते हैं, अतः वे ओस या वातावरण की नमी के सहारे ही बढ्ते हैं। जब नमी से भरपूर लाइकेन सूर्य की रौशनी अवशोषित करता है, तो लाइकेन का शैवालयुक्त हिस्सा फोटोसिंथेसिस (पौधों की भोजन बनाने की प्रक्रिया) के जरिए शुगर तैयार कर लेता है। तैयार शुगर फफूंदयुक्त हिस्से को चला जाता है और वहीं उसका उपयोग होता है। इससे प्राप्त ऊर्जा ही लाइकेन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सूखे लाइकेन नहीं बढ़ते हैं। लेकिन ये बहुत अधिक तापक्रम पर भी जीवित रह जाते हैं जबकि अधिक तापक्रम पर हरे लाइकेन मर जाते हैं।
महत्व लाइकेन जीव-जंतुओं के लिए काफी उपयोगी साबित होते आए हैं। आर्कटिक क्षेत्र में लाइकेन बड़े पैमाने पर उग आते हैं। इससे वहां के जीव-जंतुओं को आहार उपलब्ध होता है। रेनडीयर का प्रिय खाद्य भी ये लाइकेन ही होते हैं। ये बर्फ के नीचे उगते हैं और रेनडीयर अपने मुंह से बर्फ हटाकर इन्हें चाट कर जाता है। अनुमान है कि आर्कटिक क्षेत्र में पाए जाने वाले कुछ लाइकेन लगभग 4000 साल पुराने हैं।
दूसरे क्षेत्रों में भी छोटे जीव लाइकेन के आहार पर खुद को जिंदा रखते हैं। पुराने समय में मानव साइकेन से कई तरह के भोजन भी तैयार करता था। अकाल और सुखा के दौरान लोग, लाइकेन का आहार करके जीवित बच जाते थे। दया और हाइ के रूप में भी इनका इस्तेमाल होता है। एक तरह का लाइकेन जिसे कैनरी पीड कहते हैं. लिटमस बनाने के काम आता है। स्कैनडिनेविया, जर्मनी, पूर्व सोवियत रूस आदि देशों में लाइकेन से एंटीबायोटिक दवाएं भी तैयार की जाती रही हैं।
लेकिन अब सस्ते में फफूंद से ही के दवाएं बना ली जाती हैं। वैज्ञानिक प्रदूष्ण से संबंधित शोधों में लाइकेन का उपयोग करते हैं। सल्फर डाइआक्साइड के संपर्क में आते ही लाइकेन मर जाते हैं। इस तरह हवा में सल्फर डाइआक्साइड की कितनी मात्रा है, यह पता लगाने केलिए लाइकेन का प्रयोग किया जाता है। लाइकेन धातुओं को अवशोषित करने का गुण भी रखते हैं। इसलिए कल-कारखानों के आस-पास उगे लाइकेन के परीक्षण से पता लगाया जा सकता है कि कारखाने के दूषित उत्सर्जी पदार्थों में क्या-क्या धातुई अवशेष शेष हैं।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।