दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर होता भारत      Publish Date : 05/08/2025

             दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर होता भारत

                                                                                                                               प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता

संयुक्त राष्ट्र के द्वारा प्रत्येक वर्ष 10 फरवरी को विश्व स्तर पर विश्व दलहन दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization) के द्वारा वैश्विक भोजन के रूप में दालों (सूखी बीन्स, दाल, सूखी मटर, छोले और लूपिन) के महत्व को चिन्हित करने के लिए आरम्भ किया गया है।

वर्ष 2016 में इसकी थीम "Nutritious Seeds for a Sustainable Future" के तौर पर मनाए जाने का निर्णय लिया गया था, जिस वर्ष को अंतर्राष्ट्रीय दलहन के रूप में मनाया गया था। तब से, 2019 से 2021 तक एक ही विषय रहा है।

                                                 

विश्व दलहन दिवस का इतिहास

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2018 में, 10 फरवरी को विश्व दलहन दिवस के रूप में चिह्नित करने का निर्णय लिया। पहला WPD 10 फरवरी, 2019 को आयोजित किया गया था। 20 दिसंबर 2013 को, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2016 को अंतर्राष्ट्रीय दलहन (IYP) के रूप में घोषित करते हुए एक प्रस्ताव अपनाया गया था। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की अगुवाई में साल के जश्न ने टिकाऊ खाद्य उत्पादन के हिस्से के रूप में दालों के पोषण और पर्यावरणीय लाभों के बारे में सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाई।

पल्स क्या हैं?

दलहन (Pulses), जिसे फलियां भी कहा जाता है, खाए जाने वाले फलदार पौधे के खाद्य बीज हैं। सूखे बीन्स, दाल और मटर सबसे अधिक खाए जाने वाले च्नसेमे हैं। आइए, हम आपको विश्व दलहन दिवस के अवसर पर भारत में दलहनी फसलों के उत्पादन, निर्यात व खपत के बारे में विस्तारपूर्वक बताते हैं। हर भारतीय रसोई में दाल का तड़का भारतीय आहार की एक विशिष्ट पहचान है, जो अनाज के पूरक के साथ एक उच्च स्तरीय प्रोटीन का आदर्श मिश्रण प्रस्तुत करती है। दालों में विभिन्न अमीनो एसिड की उपस्थिति वाले शरीर निर्माण गुणों के कारण इनका सेवन किया जाता है। इनमें औषधीय गुण भी होते हैं।

दलहन के उत्पाद जैसे पत्ते, पॉड कोट और चोकर आदि पशुओं को सूखे चारे के रूप में दिए जाते हैं। कुछ दलहनी फसलें जैसे चना, लोबिया, उड़द, बीन और मूंग को हरे चारे के रूप में पशुओं को खिलाया जाता है। मूंग के पौधों का उपयोग हरी खाद के रूप में भी किया जाता है जो मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार करता है और मिट्टी में पोषक तत्व जोड़ता है। भारत और दुनिया में कई दलहनी फसलें उगाई जाती हैं। इन फसलों में प्रमुख हैं चना, अरहर, मसूर, मटर आदि। अखिल भारतीय मेडिकल काउंसिल की रिपोर्ट के मुताबिक खुराक में विभिन्न रंगो के खाद्य पदार्थों का बड़ा महत्व है। 5 वर्ष तक के आयु के बच्चों को तीन रंग का खाना (तिरंगा खाना) और व्यस्कों को सात रंग (सतरंगी खाना) जो हमें इन्द्रधनुष की याद दिलाता है, दालों का इसमें अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है।

कोई आश्चर्य नहीं कि भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता देश है। दालों की आपूर्ति अधिकतर योजनावधि में, मांग की तुलना में कम रही है, जिससे देश को बड़ी मात्रा में दालों का आयात करना पड़ता है। मगर अब दलहन उत्पादन को लेकर पिछले कुछ वर्षों में स्थितियां बदली हैं। दलहन उत्पादन में तेजी से बढ़ता रकबा भारत को आत्मनिर्भरता की ओर ले जा रहा है। अब भारत दुनिया में दालों के वैश्विक उत्पादन में लगभग 24 प्रतिशत का योगदान करने लगा है जो दलहनों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता देश बना चुका है।

देश में दालों का उत्पादन पिछले पांच-छह वर्षों में 1.4 करोड़ टन (140 लाख टन) से बढ़कर 2.4 करोड़ टन (240 लाख टन) हो गया है। हालांकि वर्ष 2019-20 में, भारत ने दो करोड़ 31.5 लाख टन दालों का उत्पादन किया, जो कि वैश्विक उत्पादन का 23.62 प्रतिशत हिस्सा है। ऐसा करके भारत दालों के उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भर बन चुुका है। निसंदेह यह देश के किसानों के लिए अत्यंत ही सुखद बात है, मगर आज भी दलहन उत्पादन के मामले में कई चुनौतियां खड़ी हैं जिनका सरकार के स्तर पर समाधान जरूरी है।

अगर वर्ष 1950-51 से 2018-19 तक कृषि उत्पादन की प्रवृत्ति अनाज और दाल का तुलनात्मक अध्ययन करें तो जहाँ इस दौरान अनाज में गेहूं का इंडेक्स 64 से बढ़कर 991 तक पहुंच गया तो वहीं दालों का इंडेक्स 84 से बढ़कर महज 240 स्तर तक ही पहुंच पाया है।

मांग-आपूर्ति का अंतर कीमतों पर दबाव डालता है और शाकाहारी प्रोटीन को सीमांत लोगों की पहुंच से बाहर कर देता है। योजनावधि में दालों के प्रति नीतिगत उपेक्षा कम और अनिश्चित पैदावार का चक्र प्रति हेक्टेयर उत्पादकता और जन-वितरण प्रणाली के दायरे में न आना जैसे कारणों ने किसानों को दाल उगाने की वरीयता क्रम को दोयम दर्जे पर ही रहने दिया।

वर्ष 2050 तक 39 मिलियन टन दाल की आवश्यकता

भारत में दालों की आवश्यकता पर नजर डालें तो वर्ष 2050 तक देश में 39 मिलियन टन दाल की आवश्यकता होगी। इस दृष्टिकोण से दालों की उत्पादन में 2.2 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि की आवश्यकता है। इसे ध्यान में रखते हुए वर्ष 2007 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन की शुरुआत की गई, जिसमें दाल उत्पादन के लिए 16 राज्यों को इसमें शामिल किया गया। इस मिशन का उद्देश्य कृषि व समबद्ध क्षेत्र की वृद्धि दर 4 प्रतिशत लाना था जो राष्ट्रीय कृषि नीति 2000 के उद्देश्यों को ही दोहराया गया।

दालों उत्पादन में अगर बाधाओं की बात करें तो भारतीय कृषि अपने उत्पादन के लिए काफ़ी हद तक वर्षा पर निर्भर है और कुछ विशिष्ट दलहन फसलें केवल वर्षा आधारित क्षेत्रों में ही उगाई जाती हैं, जो दालों की खेती को तुलनात्मक रूप से हतोत्साहित करता है। हरित क्रांति में उन्नत बीज और उर्वरक पर सिंचाई की तुलना में अधिक निवेश किया गया, जिसका सुखद परिणाम प्राप्त हुआ है और अब धीरे-धीरे ही सही काफी हद तक भारत दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बन चुका है। यही कारण है कि गंगा के मैदानों में अनाज व नकदी फसलें फल-फूल रही हैं व दालों को मध्यप्रदेश, राजस्थान के इलाकों की कम बंजर व कम सिंचाई सुविधा वाली जमीन पर उपजाया जा रहा है, जो किसानों में दालों के प्रति आत्मविश्वास पैदा कर रहा है।

इसके अलावा दालें कभी भी जन वितरण प्रणाली का हिस्सा नहीं रही हैं, लिहाजा इनके बफर स्टाक की ओर सरकार का ध्यान ही नहीं गया। कीमत निर्धारण की अवस्था में राज्य हस्तक्षेप से न्यूनतम समर्थन मूल्य की जो व्यवस्था लागू की गई, उसका फायदा कुल 24 में से सीमित फसलों विशेषतौर पर गेहूं/चावल को मिला या यूं कहें कि इसका फायदा भी समृद्ध राज्य पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को ही मिला। मगर विगत चार-पांच वर्षों में दलहन उत्पादन को लेकर केंद्र सरकार ने जिस तेजी से काम किया उससे मांग व आपूर्ति के इस असंतुलन को समाप्त कर दिया और देश की दालों के आयात पर निर्भरता खत्म कर दी है।

प्राप्त आंकड़ों के अनुसार जहां वर्ष 1980-81 में 0.7 मिलियन टन दालों का आयात किया जा रहा था। वह वर्ष 2016-17 में यह बढ़कर 5.19 मिलियन टन हो गया। इसके बाद तेजी से स्थितियां बदली और वर्ष 2019-20 में भारत ने दो करोड़ 31.5 लाख टन दालों का उत्पादन किया, जो कि वैश्विक उत्पादन का 23.62 प्रतिशत हिस्सा है।

अब भी नहीं मिल रहा संतुलित आहार

वर्ष 1976 के राष्ट्रीय कृषि आयोग की सिफारिश ने संतुलित आहार में रोजाना 70 ग्राम दाल प्रति व्यक्ति उपलब्ध होने की सिफारिश की थी, लेकिन इसे आज तक पूरा नहीं किया जा सका है। वर्तमान में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दालों की उपलब्धता महज 55 ग्राम है। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत दुनिया में दाल उत्पादन में 25 फीसदी (22-25 मिलियन टन), उपभोग में 27 फीसदी और आयात में सबसे बड़ी हिस्सेदारी करता है, इसके बावजूद वर्ष 1975 की किसान आयोग की सिफारिश के आसपास दाल की उपलब्धता नहीं पहुंच पाई है।

कानपुर स्थित भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान (आईआईपीआर) के वैज्ञानिक डॉ0 आई. पी. सिंह ने कहा कि उत्तर भारत के प्रमुख दाल उत्पादक राज्य (उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब) के किसानों ने पानी और सिंचाई का बेहतर इंतजाम होते ही दूसरी फसलों की ओर रुख कर लिया, जिसकी वजह से दालों की खेती मध्य और दक्षिण भारत की तरफ कूच कर गई। हालांकि, उत्तर प्रदेश में नीलगायों और जानवरों की वजह से भी किसानों ने दलहन की खेती छोड़ी, क्योंकि जानवर दलहनों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं।

उपज और रकबा स्थिर

                                                    

वर्तमान में दालों के प्रमुख उत्पादक छह राज्य मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश है। इन राज्यों की दालों के कुल उत्पादन में 80 फीसदी की हिस्सेदारी है। दालों में चने (करीब 50 फीसदी) के बाद सबसे ज्यादा हिस्सेदारी खरीफ में अरहर और उड़द की है। मूंग और मसूर की उपज देश में बेहद कम है। दालों के रकबे, उत्पादन और पैदावार के आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि दालों के क्षेत्र और उपज की स्थिति कई दशकों तक स्थिर रही है और बीते पांच-छह वर्षों से न्यूनतम समर्थन मूल्य और प्रमाणित बीजों के लेन-देन को प्रोत्साहित किए जाने के बाद तालाब में कंकड़ फेंकने के बाद उठने वाली तरंगों जैसी गति उपज को मिली है।

मसलन वर्ष 1951 में कुल दालों की उपज 441 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी जो करीब 70 वर्षों बाद 757 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पहुंच पाई है। कन्फेडेरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीसीआई) की वर्ष 2010 में जारी रिपोर्ट ओवरकमिंग द पल्सेस क्राइसिस में कहा गया है कि वर्ष 1951 से वर्ष 2008 तक दालों के उत्पादन में केवल 45 प्रतिशत तक ही वृद्धि हुई। दालों पर नीति आयोग की ओर से फरवरी, 2018 में तैयार वर्किंग ग्रुप रिपोर्ट के अनुसार, दालों में खरीफ दाल (प्रमुख अरहर, उड़द, मूंग) के क्षेत्र में वर्ष 1980 में विकास दर 8 फीसदी थी जो वर्ष 1990 तक 8 फीसदी हो गई।

वहीं, वर्ष 2000 के दशक तक यह स्थिर ही रही। जबकि उत्पादन के मामले में वर्ष 1980 में विकास दर 8.7 फीसदी थी जो वर्ष 1990 में घटकर -6.6 फीसदी हो गई। इसके बाद किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पैदावार की दर बढ़ने के कारण वर्ष 2000 तक उत्पादन में कुछ बढ़ोतरी हुई। रबी फसलों में भी इसी तरह का अनुभव रहा। वर्ष 1980 में 5.5 फीसदी की विकास दर 1990 तक घटकर 3.2 फीसदी हो गई। स्कीम ऑफ ऑयलसीड, पल्सेस, ऑयल पॉम एंड मेज (आईएसोपीओएम) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम) जैसे कार्यक्रमों के कारण रबी दलहनों के क्षेत्र और उपज बढ़ने से 4.2 फीसदी का विकास हुआ। हालांकि, दलहनी फसलों के मुकाबले तिलहन व व्यवसायिक फसलों (कॉटन, बीटी कॉटन, गन्ना, सोयाबीन) का इस अवधि में विकास अच्छा रहा।

दलहन के इतिहास में 2017-18 ऐसा वर्ष है जब सर्वाधिक 254.1 लाख (25.41 मिलियन) टन दालों का उत्पादन हुआ था और अब वर्ष 2020-21 में भी तृतीय अग्रिम अनुमान के अनुसार, यह 255.7 लाख टन (25.5 मिलियन) रिकॉर्ड उत्पादन हो सकता है। लेकिन यहां ध्यान देने लायक है कि कुल आंकड़ों में यह बढ़त रबी सीजन में चना की वजह से दिखाई देती है। यदि दलहनों में दूसरी सबसे ज्यादा हिस्सेदारी करने वाली अरहर के उत्पादन की स्थिति देखें तो उसमें बढ़त की जगह गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2017-18 रिकॉर्ड उत्पादन वर्ष में 113.8 लाख टन की हिस्सेदारी चना की थी जबकि 42.9 लाख टन उत्पादन अरहर का था। यदि वर्ष 2020-21 के तीसरे अग्रिम अनुमान को देखें तो चना की हिस्सेदारी 126.1 लाख टन है, जो वर्ष 2017-18 से अधिक है। वहीं, अरहर की हिस्सेदारी 41.4 लाख टन ही है, जो कि वर्ष 2017-18 के मुकाबले कम है।

छह राज्यों में कम हुई बुवाई

जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ने वाली चरम घटनाएं और अत्यधिक वर्षा कृषि के फसल चक्र को प्रभावित कर रही है। यही कारण है कि दालों के क्षेत्र, उत्पादन और उपज के इस लंबी दशकीय संघर्ष की दुखांत कहानी अभी रुकी नहीं है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय की ओर से 16 जुलाई, 2021 को जारी किए गए आंकड़े खरीफ सीजन में बीते छह वर्षों के बुवाई की स्थिति स्पष्ट करते हैं कि खरीफ सीजन में छह प्रमुख दलहन राज्यों (मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान) में बुआई 12-14 जुलाई, 2021 तक सामान्य रकबे से कम ही रह गई है। 12-14 जुलाई तक खरीफ सीजन का सामान्य रकबा 135.294 लाख हेक्टेयर क्षेत्र है। वर्ष 2017-18 में खरीफ सीजन में रिकॉर्ड बुवाई 100.044 लाख हेक्टेयर हुई थी, जिसका परिणाम रिकॉर्ड उत्पादन के रूप में हुआ था।

वर्ष 2021-22 में खरीफ सीजन में बुवाई 70.643 लाख हेक्टेयर ही रह गई है। सभी प्रमुख दाल उत्पादक छह राज्यों में बुवाई में बीते वर्षों के मुकाबले गिरावट आई है। सबसे ज्यादा कमी राजस्थान में रही जहां वर्ष 2017 में इस अवधि तक 27.228 लाख हेक्टेयर बुवाई थी, वहीं इस वर्ष महज 9.198 लाख हेक्टेयर ही बुवाई हो सकी है।

कानून, आयात और कीमतें

खरीफ बुवाई में कमी एक बार फिर से उत्पादन आंकड़ों को नुकसान पहुंचा सकती है और प्रमुख दाल तुअर और उड़द, मूंग का उत्पादन और कम कर सकती है। यह न सिर्फ आयात बल्कि कीमतों के लिए भी निराशाजनक सबित होता है।

इन दलहनों के उत्पादन की कमी सीधा कीमतों में उछाल और आयात निर्भरता और कानूनी फेरबदल के तौर पर दिखाई देती है। सरकार दाल की कीमतों पर नियंत्रण रखने के नाम पर लगातार यही रास्ता अपनाती रही है। वर्ष 2015 से लेकर अब तक सरकार ने आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित करने के नाम पर आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के विरुद्ध जाकर दाल के भंडारण के लिए दो बार सीमा तय की है। 2 जुलाई, 2021 को जारी अधिसूचना का इस बार थोक विक्रेताओं, खुदरा विक्रेताओं, मिल मालिकों और आयातकों ने खूब विरोध किया। इसके चलते सरकार को दोबारा विचार करना पड़ा और भंडारण सीमा को फिर से बढ़ाना पड़ा है।

कन्फेडेरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स एसोसिएशन के रमणीक छेड़ा ने कहा कि 200 मीट्रिक टन की भंडारण सीमा वर्ष 1955 में लगाई गई थी, जब जनसंख्या महज 25 करोड़ थी। इस वक्त 2,000 मीट्रिक टन की सीमा होनी चाहिए।

हालांकि, सरकार ने विशिष्ट खाद्य पदार्थों पर लाइसेंसी अपेक्षाएं, स्टॉक सीमाएं और संचलन प्रतिबंध हटाना (संशोधन) आदेश, 2021 को संशोधित करते हुए 19 जुलाई को कहा है कि अब सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के लिए तुअर, उड़द सहित सभी दालों के लिए 31 अक्टूबर 2021 तक के लिए स्टॉक सीमा निर्धारित की। इसके तहत थोक विक्रेताओं के लिए ये स्टॉक सीमा 200 मीट्रिक टन के बजाए अब 500 मीट्रिक टन (बशर्ते एक किस्म की दाल 100 मीट्रिक टन के बजाए अब 200 मीट्रिक टन से ज्यादा नहीं होनी चाहिए)। खुदरा विक्रेताओं के लिए 5 मीट्रिक टन और मिल मालिकों के लिए ये सीमा उत्पादन के अंतिम 3 महीनों के बजाए अब 6 महीनों या वार्षिक स्थापित क्षमता का 25 प्रतिशत के बजाए अब 50 फीसदी, जो भी ज्यादा हो, वो होगी।

नए बदलाव में आयातकों को इस भंडारण सीमा से बाहर कर दिया है। इसका आशय है कि सरकार अभी दलहन आयात को लेकर उदार भी बने रहना चाहती है। हर वर्ष दलहन की मांग और आपूर्ति का अनुपात ठीक करने के लिए करीब 30 लाख टन तक दालों को आयात करना पड़ता है।

आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम, वर्ष 1955 से अलग जाकर किए गए इस आदेशों पर ऑल इंडिया दाल मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेंद्र अग्रवाल ने कहा कि खाद्य महंगाई दलहन में नहीं चल रही है। किसानों को अरहर और उड़द में तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम दाम मिल रहे हैं। ऐसे में सरकार के द्वारा दालों की भंडारण की सीमा को लेकर उठाया गया कदम उन्हें हतोत्साहित करेगा। तीन कृषि कानूनों के साथ भंडारण सीमा की शक्ति के लिए केंद्र सरकार ने आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम, 1955 में बदलाव किया था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने दो वर्षों के लिए रोक दिया है। इसके बाद सरकार ऐसे आदेशों का सहारा ले रही है।

किसान संगठन से जुड़े किरण कुमार विस्सा बताते हैं कि आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में किया गया संशोधन केंद्र सरकार को यह शक्ति देता है कि वह आवश्यक वस्तुओं पर तत्काल प्रभाव से भंडारण सीमा (स्टॉक लिमिट) को तय कर सके। दरअसल यह शक्ति   कृषि व्यवसाय से जुड़े कारोबारियों को फायदा दिलाने के लिए है। इसमें किसानों की आय को कोई फायदा नहीं होने वाला। उनका कहना है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में बदलाव नाजायज है। इसी कानून की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन के समय में खाद्यान महंगाई ठहरी रही थी। सरकार यह बात अच्छी तरह जानती है लेकिन लगता है कि भंडारण सीमा को लेकर उसकी मंशा कारोबारी हितों की है।

दाल भंडारण सीमा को लेकर अचानक जारी होने वाली इस अधिसूचना से पहले वर्ष 2020 में सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के संशोधन में कहा था कि आवश्यक वस्तु अधिनियम या स्टॉक सीमा तभी लागू होगी जब दालों की कीमत या तो एमएसपी से 50 फीसदी अधिक होंगी या देश में कोई आपातकालीन स्थिति होगी। ऐसी कोई स्थिति नहीं होने के बावजूद सरकार ने भंडारण सीमा का इस्तेमाल किया।

कीमतें और किसान

खुदरा महंगाई ग्रामीण और मध्यम वर्गीय उपभोक्ताओं को अधिक परेशान करती है। जून, 2016 में तुअर 170 रुपए किलो और 196 रुपए किलो उड़द बेची गई थी। इस वर्ष 2021 में तुअर की खुदरा कीमतें 100 रुपए तक पहुंची हैं। जबकि चना, मूंग और उड़द की कीमतें 80 रुपए प्रति किलो से अधिक हैं। 2020-21 में रिटेल कीमतों को स्थिर रखने के लिए सरकार ने दालों के बफर का इस्तेमाल किया। मसलन मूंग, उड़द, तुअर राज्यों की छूट के साथ दिया गया। आपूर्ति का खर्च विभागों पर छोड़ा गया है। ऐसे में 2.3 लाख टन दालों को रिटेल हस्तक्षेप के तौर पर ओपन मार्केट बिक्री के तहत जारी किया गया है।

इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) के अनुसार, दलहनों की बड़ी खरीद करने वाली नेफेड ने वर्ष 2014-2015 से वर्ष 2019-20 तक 38 लाख किसानों से 76.3 लाख टन दाल खरीदी है और बफर स्टॉक को ओपन मार्केट सेल स्कीम के तहत घाटे पर बेचा है। यह न सिर्फ बाजार में कीमतों को प्रभावित करता है बल्कि प्राइवेट उद्यमों को सीधा किसानों से दलहन खरीदने की प्रक्रिया को हतोत्साहित भी करता है।

प्रोटीन का अहम स्रोत्र हैं दालें

                                                  

पौष्टिक खाद्यान्न व प्रोटीन से भरपूर होने से दलहन फूड बास्केट के लिए महत्वपूर्ण हैं, विशेष रूप से हमारी भारतीय संस्कृति के लिए आहम हैं, क्योंकि हम मुख्यत शाकाहारी हैं और भोजन में दालों को प्रमुख रूप से शामिल करते हैं। दलहन में पानी की कम खपत होती है. सूखे वाले क्षेत्रों और बां सिंचित क्षेत्रों में दलहन उगाई जा सकती हैं। यह मृदा में नाइट्रोजन संरक्षित करके मृदा की उर्वरता में सुधार करती है, इससे उर्वरकों की आवश्यकता कम होती है और इसलिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम होता है।

पीली मूंग दाल में प्रोटीन, आयरन और फाइबर बहुत ज्यादा मात्रा में पाया जाता है। पोटेशियम, कैल्शियम और विटामिन बी कॉम्पलेक्स वाली इस दाल में फैट बिल्कुल नहीं होता। अन्य दालों की अपेक्षा पोली मूंग दाल आसानी से पच जाती है। इसमें मौजूद फाइबर शरीर के फालतू कोलेस्ट्रॉल को कम करते हैं।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।