जीआई पंजीकरण से बढ़ाएं अपने कृषि उत्पादों की अहमियत      Publish Date : 26/07/2025

जीआई पंजीकरण से बढ़ाएं अपने कृषि उत्पादों की अहमियत

                                                                                                                                           प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं अन्य

हमारे देश में कृषि से जुड़ी फल, फूल और अनाज की ऐसी कई किस्में हैं, जो केवल क्षेत्र विशेष में ही उगाई जाती हैं। अगर इन किस्मों को उक्त क्षेत्र से इतर हट कर उगाने की कोशिश भी की गई, तो उन में वह क्वालिटी नहीं आ पाती है, जो उस क्षेत्र विशेष में उगाए जाने पर पाई जाती है।

कृषि से जुड़ी ऐसी किस्मों के विशेष भौगोलिक क्षेत्र में पैदा होने के चलते यह मान लिया जाना है कि उक्त किस्मों की मूल उत्पत्ति का स्थान यही भौगोलिक क्षेत्र है, जिसमें उगाए जाने पर उक्त कृषि उत्पाद में विशेष प्रकार के गुण आते हैं।

सरकार ऐसे विशेष भौगोलिक क्षेत्रों में विशेष रूप से उगाए जाने वाले फल, फूल, अनाज की किस्मों को जीआई टैग यानी भौगोलिक संकेत टैग प्रदान करने का काम करती है। इस से उक्त क्षेत्र को उस विशेष किस्म के लिए निर्यात के लिए एकाधिकार प्राप्त हो जाता है।

किसी भी कृषि उत्पाद को जीआई टैग मिल जाने से खेती से जुड़े इन खास किस्मों को एक अलग पहचान मिलने के साथ ही उस क्षेत्र के किसानों को विदेशों में निर्यात करने का विशेषाधिकार मिल जाता है यानी जिस क्षेत्र विशेष के लिए जीआई टैग प्रदान किया जाता है, केवल उसी क्षेत्र के लोग ही कानूनी रूप से इस का इस्तेमाल कर सकते हैं।

अभी तक भारत में जीआई टैग यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशन कृषि, प्राकृतिक निर्मित वस्तु, कपड़ा, हस्तशिल्प, खाद्य सामग्री आदि कैटेगरी के सैकड़ों उत्पादों को प्रदान किया गया है।

जीआई टैग प्रदान करने का खास उद्देश्य किसी खास गुणवत्ता वाले उत्पाद को विलुप्त होने से बचाने के साथ ही उस के उत्पादन को बढ़ाना भी है, ताकि निर्यात को बढ़ावा मिल सके और संबंधित क्षेत्र में लोगों के लिए रोजगार के अवसर पैदा हो सकें। अगर किसी वस्तु को एक बार जीआई टैग मिल जाता है, तो वह अगले 10 साल तक के लिए मान्य होता है, जिसे बाद में रीन्यू यानी उस का नवीनीकरण भी किया जा सकता है।

ऐसे हुई जीआई टैग पंजीयन की शुरुआत

वर्ष 1999 में भारत में भौगोलिक संकेतों की सुरक्षा के लिए संसद द्वारा एक विशिष्ट अधिनियम पारित किया गया, जो विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के एक सदस्य के रूप में बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधित पहलुओं पर समझौते का पालन करने के लिए पास किया गया था।

भारत में भौगोलिक संकेतक (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999 के अनुसार जीआई टैग प्रदान किया जाता है जीआई टैग उद्योग संवर्धन और आंतरिक व्यापार विभाग, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के तहत भौगोलिक संकेत रजिस्ट्री द्वारा जारी किए जाते हैं।

इतनी संख्या में दिया गया जीआई सर्टिफिकेट

वर्ष 2003 में इस कानून के प्रभाव में आने के बाद वर्ष 2004-05 में जीआई का पंजीकरण शुरू हुआ था। जुलाई, 2024 तक भारत ने 643 जीआई उत्पाद पंजीकृत किए थे।

पश्चिम बंगाल की दार्जिलिंग चाय भारत में जीआई टैग प्राप्त करने वाला पहला उत्पाद था। इस के तहत उत्पाद और लोगो दोनों को जीआई टैग दिया जाता है। पहले वर्ष में दार्जिलिग चाय के अलावा जीआई टैग प्राप्त करने वाले अन्य उत्पादों में अरनमुला कन्नाड़ी केरल की एक हस्तकला, पोचमपल्ली इकत तेलंगाना की एक हस्तकला थी।

जुलाई, 2024 में गुजरात में कच्छ क्षेत्र के 400 साल पुराने पारंपरिक हस्तकला टैक्सटाइल क्राफ्ट ‘कच्छ अजरक’ के पारंपरिक कारीगरों को 643वां जीआई यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशन सर्टिफिकेट प्रदान किया गया। भारत में पंजीकृत जीआई उत्पादों में से 15 उत्पाद 9 विभिन्न देशों इटली, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, आयरलैंड, मैक्सिको, थाईलैंड, पेरू, पुर्तगाल से संबंध रखते हैं।

जीआई टैग पंजीकरण की प्रक्रिया

अगर किसी क्षेत्र विशेष में खास पहचान रखने वाली वस्तुओं, कृषि उत्पादों इत्यादि का जीआई टैग लेना है, तो इस के लिए कोई भी व्यक्ति, उत्पादक संघ या किसी भी कानून द्वारा स्थापित संगठन भौगोलिक संकेतक के रजिस्ट्रार के समक्ष पंजीकरण के लिए आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। आवेदन एक निर्धारित प्रारूप में किया जाता है, जिसमें उस वस्तु की खासीयत, क्वालिटी सहित उस की अन्य विशेषताओं का विवरण अनिवार्य रूप से भौगोलिक क्षेत्र, उगाने या निर्माण करने की प्रक्रिया, प्राकृतिक और मानवीय कारकों, उत्पादन के क्षेत्र के मानचित्र सहित खेती करने वाले या निर्माताओं की सूची सहित निर्धारित शुल्क के साथ किया जाता है।

आवेदन करने के बाद भौगोलिक संकेतक के रजिस्ट्रार द्वारा आवेदन की प्रारंभिक जांच की जाती है। अगर आवेदन में कोई कमी पाई जाती है, तो भौगोलिक संकेतक के रजिस्ट्रार द्वारा आवेदन प्रस्तुत करने की तारीख से एक महीने की अवधि के अंदर आवेदक को सुधार कराने का मौका दिया जाता है।

जीआई टैग के लिए प्रस्तुत किए गए आवेदन को भौगोलिक संकेतक का रजिस्ट्रार स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है। अगर इस के लिए दिए गए आवेदन को अस्वीकार किया जाता है, तो रजिस्ट्रार द्वारा अस्वीकृति के लिए लिखित में उचित कारण बताना होग। अस्वीकृत होने के बाद आवेदक को 2 महीने के अंदर अपना जवाब दाखिल करना होता है। अगर पंजीकरण के लिए फिर से इनकार किया जाता है, तो आवेदक इस तरह के फैसले में एक महीने के भीतर वहां अपील कर सकता है।

भौगोलिक संकेतक के रजिस्ट्रार द्वारा आवेदन स्वीकृति के 3 महीने के भीतर रजिस्ट्रार, जीआई जर्नल में आवेदन को विज्ञापित करता है। इस के बाद अगर आवेदन का किसी के द्वारा कोई विरोध नहीं किया जाता है, तो रजिस्ट्रार आवेदक और अधिकृत उपयोगकर्ताओं को जीआई टैग पंजीकरण का प्रमाणपत्र प्रदान कर देते हैं।

इन बातों का रखें खास खयाल

जीआई टैग के लिए अप्लाई करने वालों को यह बताना होगा कि उन्हें टैग क्यों दिया जाए। इस के साथ ही उन्हें किसी उत्पाद के उस क्षेत्र में पैदा होने या बनने के संबंध में प्रूफ भी देने होते हैं। इस के लिए अप्लाई करने वाले को प्रोडक्ट की यूनिकलैस और उस की ऐतिहासिक विरासत के बारे में भी जरूरी जानकारी साझा करनी होती है।

अगर उसी खास उत्पाद पर कोई दूसरा दावा करता है, तो यह कैसे मौलिक है, यह भी साबित करना होगा। इस के बाद संस्था साक्ष्यों और संबंधित तर्कों का परीक्षण करती है। अगर संबंधित उत्पाद उनके मानकों पर खरा उतरता है, तो उसे जीआई टैग दिया जाता है।

यहां करना होगा अप्लाई

जीआई टैग के लिए पेटेंट, डिजाइन और व्यापार चिह्नों के नियंत्रक के ऑफिस में अप्लाई करना होता है। इस संस्था का हैडक्वार्टर चेन्नई में है। इस के बाद संस्था द्वारा आवेदन की जांच की जाती है और देखा जाता है कि संबंधित उत्पाद के बारे में आवेदक का दावा कितना सही है। पूरी छानबीन करने और संतुष्ट होने के बाद ही उस प्रोडक्ट को जीआई टैग दिया जाता है।

10 साल के लिए मिलता है टैग

भौगोलिक संकेत यानी जीआई टैग का सर्टिफिकेट मिलने के बाद इस का उपयोग केवल संबंधित संस्था या समुदाय द्वारा ही किया जा सकता है। भारत में जीआई टैग 10 साल के लिए दिया जाता है, हालांकि 10 साल के बाद इसे रीन्यू कराया जा सकता है।

जीआई टैग मिलने से बढ़ जाती है अहमियत

जीआई टैग मिलने के बाद उस प्रोडक्ट का मूल्य और उसके लोगो की अहमियत ज्यादा बढ़ जाती है। इससे मार्केट में आने वाले नकली प्रोडक्ट को रोकने में भी मदद मिलती है। वहीं, इससे संबंधित व्यवसाय से जुड़े लोगों को माली फायदा भी मिलता है।

जीआई टैग से मिली खास पहचान

खास खुशबू और पोषक तत्त्वों की प्रचुरता के लिए पहचान रखने वाले धान काला नमक की खेती पूर्वी उत्तर प्रदेश के 11 तराई जिलों में की जाती है। इस क्षेत्र में उगाए जाने बाले काला नमक धान में एक खास तरह की खुशबू पाई जाती है, जो दूसरे जिलों में उगाने पर नहीं आती है, इसीलिए काला नमक धान को इन्हीं 11 जिलों की उत्पत्ति मानते हुए इन्हें जीआई टैग प्रदान किया गया है।

इसी तरह दार्जिलिंग की चाय, बैंगलुरु के नीले अंगूर, मालाबार की काली मिर्च सहित कांचीपुरम की रेशमी साड़ी, सोलापुरी की चादर, बाग प्रिंट और मधुबनी पेंटिंग को भी जीआई टैगिंग प्राप्त है। इस के अलावा मैसूर की सुपारी, बिहार का मखाना और कश्मीर का केसर भी इस सूची में जुड़ते चले गए हैं। आंध्र प्रदेश में कृषि कैटेगरी के लिए बनगनपल्ले का आम और गुंटूर की सन्नम मिर्च को भी जीआई टैग दिया गया है।

अरुणाचल प्रदेश के अरुणाचल संतरा को कृषि कैटेगरी का जीआई टैग का खिताब दिया गया है। असम में कृषि कैटेगरी में असम करबी आंग्लोंगलों अदरक, असम की चाय बोका चौल, असम के जोहा चावल, काजी नेमो (नीबू) और तेजपुर लीची शामिल हैं। बिहार में  कृषि कैटेगरी में मिथिला मखाना, भागलपुरी जर्दालू, कतरनी चावल, मघई पान और बिहार की शाही लीची शामिल है।

दिल्ली के बासमती चावल को भी कृषि कैटेगरी के लिए जीआई टैग का खिताब मिला हुआ है। गोवा की खोला मिर्च ने आज देश-दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाई है। इस की बढ़ती लोकप्रियता के चलते जीआई टैग दिया गया है।

गुजरात में कृषि कैटेगरी में भालिया गेहूं और गिर केसर आम शामिल है। हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा की चाय, हिमाचली मिर्च का तेल और हिमाचली काला जीरा शामिल है। जम्मू-कश्मीर के गुच्छी मशरूम और कश्मीरी केसर को जीआई टैग दिया गया है। मणिपुर के चकहाओ चावल और कचई नीबू शामिल है।

मेघालय में खासी मंदारिन और मैमोंगनारंग को कृषि कैटेगरी के लिए जीआई टैग मिला हुआ है। मिजोरम की मिजो मिर्च को भी जीआई रंग की कषि कैटेगरी में शामिल किया गया है। नागालैंड की नागा मिर्च और नामा पेड टमाटर को जीआई टैग दिया गया है। ओडिशा का गंजम केवड़ा फूल और कंधमाल हल्दी भी जीआई टैग की कृषि कैटेगरी में सिक्किम की बड़ी इलायची को जीआई वाली में पहाड़ी केला शामिल हैं।

त्रिपुरा की रानी अनानास को जीआई टैग दिया गया है। उत्तर प्रदेश का इलाहाबाद सुरखा अमरूद, काला नमक धान, मलीहाबादी दशहरी आम को जीआई टैग का खिताब प्राप्त है, जबकि उत्तराखंड के उत्तराखंडी तेजपत्ता को जीआई टैग प्राप्त है।

पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग की चाय, फाजली आम, गोविंद भोग चावल, खिरसापति (हिमसागर) आम और लक्ष्मण भोग आम, 6 तुलाईपंजी चावल को भी जीआई टैग मिला है। कर्नाटक में जीआई टैग वाली सूची में अप्पेमिडी आम, बाबाबुदनगिरी अरेबिका कौफी, बैंगलुरु नीले अंगूर, बैंगलुरु गुलाब प्याज, व्यादगी मिर्च, चिकमंगलूर अरेविका कौफी, कुर्ग अरेबिका कॉफी, कुर्ग हरी इलायची, कुर्ग संतरा, देवनहल्ली पोमेलो, हदगली मल्लिगे (चमेली), कमलापुर लाल केला, मालाबार काली मिर्च, मैसूर सुपारा, मैसूर चमेली, नंजनगड केला, सिरसी सुपारी, उडुपीकेरल में एलेप्पी हरी इलायची, सेंट्रल त्रावणकोर गुड़हल कोट नेट्रम केला. कैपाल चावल, मालाबारी काली मिर्च, नवारा चावल, नीलांबुर सागौन, पलक्कड़ मट्टा चावल पोक्कली चावल निरुर सुपारी, वजह कलम अनानास, वायनाड जीरकशाला चावल, वायनाड गंधकशाला चावल शामिल हैं।

महाराष्ट्र से अजारा घनसाल चावल, अल्फांसी, अंबेमोहर चावल, बीड कस्टर्ड सेब, भिवापुर मिर्च, जलगांव केला, जलगांव भरित बैगन, जालना मीठा संतरा, कोल्हापूर और महावलेश्वर स्ट्राबेरी, मराठवाड़ा कंसक अंगूर मंगलवेधा ज्वार, नागपुर संतरा, नासिक आगला नवापुर तुअर दाल, पुरंदर अंजीर, सांगली किशमिश, सांगली हल्दी, सोलापुर अनार, वेंगुर्ला काजू, वाच्या घेवड़ा, वैगांव हलदी को जीआई टैग मिल चुका है।

इन राज्यों को सब से ज्यादा जीआई सर्टिफिकेट

जुलाई, 2024 तक दिए गए 643 जीआई सर्टिफिकेट में सब से ज्यादा उत्तर प्रदेश में प्रदान किए गए हैं, जिसमें 11 कृषि उत्पाद, खाने-पीने की वस्तुएं, 55 हैंडीक्राफ्ट और विनिर्माण क्षेत्र की वस्तुएं शामिल हैं। इसी तरह दूसरे स्थान पर तमिलनाडु है, जिसमें 15 कृषि उत्पाद, 8 खाने-पीने की वस्तुएं, 35 हैंडीक्राफ्ट और 2 विनिर्माण शामिल हैं। तीसरे नंबर पर महाराष्ट्र है, जिसमें 35 कृषि उत्पाद, 2 खाने-पीने की वस्तुएं, 12 हैंडीक्राफ्ट और 1 विनिर्माण शामिल है।

इस के अलावा कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड, राजस्थान, ओडिशा, केरल, मध्य प्रदेश, जम्मूकश्मीर, गुजरात, असम और अरुणाचल प्रदेश में जीआई टैग प्राप्त वस्तुओं की संख्या अच्छी खासी है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।