
किस प्रकार की तरक्की के तलबगार हम Publish Date : 20/07/2025
किस प्रकार की तरक्की के तलबगार हम
प्रोफसर आर. एस. सेंगर एवं अन्य
शहरों में किसी को अब कोई सौदा वगैरह लेने के लिए बाजार जाने की जरूरत नहीं रही। हां, अगर ऊबे मन को खरीदारी करने के बहाने वहां मन को बहलाने के लिए जाना हो तो यह एक अलग बात है।
क्या हो, अगर जो मन में आए, जिस चीज के लिए हम अड़ जाएं कि उसके बिना अब काम नहीं चल पाएगा, लेकिन उसे लाने भी न जा पाएं, ऐसी स्थिति बन जाए? और तब सारी जरूरी और मनचाही चीजें घर बैठे हमारे सामने हाजिर कर दी जाएं? यह कोई ख्याली पुलाव नहीं, बल्कि वर्तमान समय की एक यह हकीकत है। इसके लिए आपको मोबाइल पर एक बटन दबाने भर की आवश्यकता होती है और आपका काम बन जाता है।
लाखों की तादाद में उपलब्ध वस्तुओं में सें अपनी पसंद और पॉकेट के वजन के हिसाब से वस्तु चुनकर मंगाइए, वस्तु आपके पास पहुंच जाएगी। यह एक आधुनिक तकनीकी सुविधा है।
घर पहुंच की सेवा प्रदान करने वाली इस सेवा-सुविधा का नाम है ऑनलाइन डिलीवरी साइट्स। वस्तुओं के प्रकार के वितरण के आधार पर ऑनलाइन डिलीवरी साइट्स के कई ब्रांड हैं। ऑनलाइन डिलीवरियां न हुईं, कोई अलादीन का चिराग हो गया। हाथ घुमाया और जिन्न प्रकट- ‘क्या हुक्म है मेरे आका’।
हम शहर के चाहे किसी कोने में हम बैठे हों, कहीं से हमने अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए गुहार लगाई हो, ये सिर के बल वहां पहुंचकर हमारी आवश्यकताएं पूरी करने को आतुर बैठे हैं। चौतरफा आलम ऐसा बना हुआ है, मानो ये हरदम इस फिराक में ही बैठे हों कि इधर कोई कुछ कहे और उधर हम तपाक से अपना जादू दिखाएं। इनकी वजह से शहरों में किसी को अब सौदा वगैरह लेने हाट-बाजार जाने की जरूरत नहीं रही। हां, अगर ऊबे मन को खरीदारी करने के बहाने वहां मन बहलाने के लिए जाना हो तो यह एक अलग बात है।
आखिर बला क्या है ये?
वस्तुतः सारी ऑनलाइन एप्लीकेशन्स वे वर्चुअल प्लेटफॉर्म हैं, जो हमारे घरेलू जीवन के किसी भी पहलू से जुड़ी आवश्यकता की कोई भी वस्तु हमें घर बैठे उपलब्ध कराने का प्रण किए बैठे हैं। हफ्ते के किसी भी दिन, चौबीस घंटों में से किसी भी समय, कोई भी सामान अपनी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस में डाउनलोडेड इन ऑनलाइन साइट्स या एप्लीकेशन से ऑर्डर कर दीजिए, ठीक दस से तीस मिनट बाद ‘एवरीथिंग डिलीवर्ड इन टेन टू थर्टी मिनिट्स’ या ‘दो से तीन दिनों के भीतर गारंटीड डिलीवरी’ के ध्येय वाक्य के अनुसार उनके डिलीवरी बॉय आपके दरवाजे की घंटी बजा देंगे। एकदम टनाटन पैकिंग में मंगाया गया सारा साज-ओ-सामान बाजार के मुकाबले रियायती दरों पर और थोड़े से डिलीवरी चार्ज के साथ आपके घर की देहरी पर ही देंगे।
एक हो या फिर सौ सामान, दूध-दही हो, फल-सब्जी हो, किराना हो, दवा हो या झाड़न-साबुन, कपड़े, सोफा-पलंग या एसी-फ्रीज, यहां तक कि दाल-भात और चाय-पकौड़े तक सबकुछ उपलब्ध है मात्र एक क्लिक पर। मानो कि दुनिया की कोई चीज, जिनके फितूर के बीज बैठे-ठाले दिमाग में बोए जाएं, उनकी पकी और लहलहाती खेती इनकी बदौलत तुरंत ही काटी जा सकती है।
दरअसल, ’काम कौड़ी का नहीं, फुर्सत घेले की नहीं’, ऐसी हो गई है आम आदमी की चाल। उसकी इसी कमजोर नस का फायदा उठाकर ऐसी साइट्स की बल्ले-बल्ले हो रही है। उनसे जुड़े बंदे रास्ते किनारे लगे छोटे-छोटे ठेलों, गुमटियों और स्थानीय बाजारों की ऊंघती पुश्तैनी दुकानों को अंगूठा दिखाते हुए अपने बड़े-बड़े गोदामों से स्टाइलिश बैगों में सामान लादे मोटर साइकिलों और वैन्स पर तेज रफ्तार से निकलकर लोगों की अस्त-व्यस्त और पस्त जिंदगी के पार्किंग स्थलों पर अपनी गाड़ियों के ब्रेक लगा रहे हैं। ये ऑनलाइन डिलीवरी साइट्स लोगों के समय की कमी और अतिव्यस्तता के रुदाली विलाप को भुनाकर जमकर पैसा कमाने में लगी हुई हैं। सस्ता, सुगम और तेज इस रणनीति के सहारे हर मिनट कहीं न कहीं से कोई न कोई ऑर्डर मिलते रहने से इधर इनका बैंक बैलेंस निरंतर बढ़ता जा रहा है और उधर मामूली से मामूली लोग भी बैठे बिठाए राजा बनते जा रहे हैं, जिनके एक इशारा करते ही ये साइट्स चुटकी बजाने जितनी देर में उनकी हर इच्छा पूरी करती जा रही हैं।
दो तरफा फायदे का यह खेल लेकिन है बहुत गड़बड़। नियत समय-सीमा में निर्धारित जगह पहुंचने के दबाव में फरटि से रास्तों पर बाइक दौड़ाते जान हथेली पर लिए और राह चलते दूसरे लोगों की जान आफत में डालते इन डिलीवरी बॉयज की तरफ देखते भी डर लगता है। ऐसी दो-चार नहीं, सैकड़ों बाइक और वैन हैं, जो रास्तों पर दौड़ती हुई उनको जाम कर रही हैं और दुर्घटनाओं को खुलेआम न्योता भी दे रही हैं।
पेट्रोल की कीमतों का रोना क्या रोइए, जब पांच-पचास रुपयों की चीजों के लिए भी लोग ऑर्डर कर रहे हैं और उनकी डिलीवरी के लिए रोबोट जैसे ये बंदे अनगिनत मोटर साइकिलों पर सवार धड़धड़ा यहां से वहां जाने कितनी फेरियां लगा रहे हैं। पेट्रोल-डीजल की कितनी खपत फालतू में हो रही है। अगर ऐसा कहा जाए तो यह वाक्य कितना हास्यास्पद लगेगा इन लोगों को। क्या उन्हें याद आएगा कि अभी कुछ साल पहले ही इनके बिना भी यह सारी प्रक्रिया होती रही है, बिना किसी कवायद के, बड़ी सरलता से। प्रदूषण लेन-देन के इस ठाठसी व्यापार में तो यह शब्द ही चुटकुला बन जाएगा। एक समय था, जब घर के लोग आस-पास की दुकानों से छोटी-मोटी चीजें लेने घर से निकल जाते थे।
इस तरह वे थोड़ा-बहुत चल-फिर लेते थे, लेकिन वह मंजर तो गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गया है। चलिए, इसे भी रहने ही देते हैं, क्योंकि ये सब कहना अपना पिछड़ापन ही उघाड़ना है कि जमाने की नई चाल के साथ चलने का सलीका नहीं है। सेहत के प्रति जागरूक हम वैसे भी कभी नहीं रहे। आरामतलबी की आदत में आराम की खुराक आसानी से और मिल रही हो तो किसे पसंद न आएगी।
इस सबसे मंजर यह बनता है कि शाम हो या सुबह, सड़कों पर चारो तरफ नियत समय पर गंतव्य स्थल पहुंचने की होड़ से त्रस्त लोग दिखाई पड़ते हैं। तनावग्रस्त हो बार-बार गाड़ियों का एक्सीलेटर दबाते, ब्रेक लगाते, चिड़चिड़ाते लोग। आगे निकलने की होड़ में एक-दूसरे को घूरते हुए ओवरटेक करते, हॉर्न का कानफोडू शोर मचाते. झोंकते-झिड़कते, सारे माहौल को अवसादग्रस्त करते जा रहे हैं। वहीं सब कुछ मिल जाने के सुख से घर में औंधे पड़े लोग अपने थुलथुलेपन और बीमारियों से ग्रस्त हो भावी पीड़ियों के लिए कैसी भुरभुरी और भोथरी जमीन तैयार कर रहे हैं, इसका भान ही नहीं है उन्हें। यह अनवरत सिलसिला न जाने कहां जाकर ठहरेगा? अपने विकास-क्रम में ऐसी तरक्की के तलबगार तो हम न थे। ऐसे में क्या हमें एक बार पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए?
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।