पौधों के उपयोग से जोड़ों के दर्द में आराम      Publish Date : 06/08/2025

            पौधों के उपयोग से जोड़ों के दर्द में आराम

                                                                                                                                               डॉ0 सुशील शर्मा एवं मुकेश शर्मा  

विश्व में शारीरिक अक्षमता: सन्धिवात रोग मुख्यतः जोड़ों में होने वाली सूजन को कहा जाता है, जिससे विश्व के अनेक भू-भागों तथा विभिन्न सामाजिक स्तर के लोग बुरी तरह से प्रभावित हैं। सन्धिवात का मुख्य लक्षण पीड़ित के जौड़ों में दर्द, जकड़न तथा सूजन है तथा इस रोग से प्रभावित व्यक्ति को अपने हाथ और पैरों को गति देना भी कठिन हो जाता है। मुख्य रूप से सन्धिवात चार प्रकार का होता है, जैसे अस्थि-सन्धि शोथ, गठिया, संक्रामक सन्धिवात और गठिया जैसा सन्धिवाताभ। सन्धिवात रोगों में जोड़ों की मुलायम हड्डियाँ नष्ट हो जाती है तथा कभी-कभी मुड़कर पर्वत प्रक्षेप का रूप ग्रहण कर लेती हैं। आयु के बढ़ने के साथ, मोटापा, चोट लगने पर या बार-बार जोड़ों पर पड़ने से सन्धिवात का प्रकोप होता है।

                                                         

संक्रामक सन्धिवात मुख्यतः बैक्टीरिया तथा अन्य संक्रमक जीवाणुओं के माध्यम से होता है। इस रोग का एक उदाहरण ‘लाइम रोग’ है। वहीं दूसरी ओर, गठिया मुख्य रूप से शरीर में उपापचयात्मक (मेटाबोलिक) प्रक्रिया के विकृत हो जाने के चलते होता है, जिसके परिणामस्वरूप प्यूरिन नामक तत्व का उत्पादन अधिक होने लगता है और यह तत्व पूर्णतया शरीर से बाहर नहीं निकल पाता, जिससे शरीर में प्लाज्मा यूरेट का स्तर बढ़ने लगता है। इसके अतिरिक्त प्यूरिन के अपापचय से उत्पन्न सोडियम यूरेट के कणों का जमाव व्यक्ति के जोड़ों में होने लगता है जिससे गठिया रोग कष्टकारी रूप ले लेता है।

सन्धिवात रोग एक दीर्घकालिक रोग होता है और इस रोग में रोगी के जोड़ों में सूजन, दर्द और जकड़न बनी रहती है। इस रोग में शरीर के रक्षा प्रणाली की सफेद कोशिकाएँ पीड़ित व्यक्ति के जोड़ों के सिनोविकल झिल्ी में बढ़ने लगती है और रोग के लक्षण उत्पन्न होने लगते हैं। जब यह सफेद कोशिकाएँ अधिक हो जाती हैं तो धरे-धरे हड्डियों का क्षण शुरू हो जाता है। सन्धिवाताभ रोग मुखतः रक्षा प्रणाली के दोषपूर्ण होने पर ही होता है, जिसे ऑटोइम्यून रोग कहते हैं। सन्धिवाताभ रोग में सूजन के लिए जिम्मेदार साइटोकाइन्स आई. एल.-1, आई. एल.-6 तथा टी. एन. एफ. अल्फा आदि होते हैं।

सान्धिवाताभ रोगों का उपचार साधारणतः लक्षणों के आधार पर किया जाता है, जिसमें कुछ औषधियाँ जैसे सल्फासैलाजिन, मियोट्रेक्सेट, पेनिसिलामिन, एजोप्रिन, इनफ्लिक्सीमैव और इटानेरसेप्ट आदि है जो मुख्यतः रोग को बदलने वाली औष्धियों के वर्ग में आती हैं, का प्रयोग किया जाता है। इस वर्ग की औषधियाँ धीरे-धीरे काम करती हैं जिससे रोग के लक्षणों में कुछ सुधार होता है और यह रोग के स्तर को कम तो करती हैं, परन्तु रोग को मूल रूप से नहीं हटा पाती हैं।

दूसरे वर्ग वर्ग की औषधियों में स्टीरॉयड निहीन दवाएं होती है, जो सूजन को कम करती है। परन्तु इनके विपरीत प्रभाव शरीर के अन्य क्रियाओं पर होती हैं। अतः सन्धिवाताभ रोग में पूरक एवं वैकल्पिक औषधियाँ महत्वपूर्ण हो जाती है, जिन्हें सामान्यतः ‘‘सी.ए.एम.’’ या कैम कहा जाता है।

कैम एक प्रकार से विभिन्न दवाओं का समूह जो स्वास्थ्य रक्षा में आमतौर पर प्रमुख औषधियों का एक हिस्सा है। ‘कैम’ औषधियां विभिन्न स्रोतों से होती है जैसे वानस्पतिक, खान-पान सम्बन्घी, एक्यूपन्कचर, जल-उपचार, सुगंध उपचार, होम्योपैथी एवं आयुर्वेद आदि।

वनस्पतिः सन्धिवात रोग में अनेक वनस्पति औषधियों का प्रयोग किया जाता है अदरक (जिन्जिवर ऑफिफसिनेल), हल्दी (करकूमा लान्गा) और वास्वेलिया इत्यादि। इसके अतिरिक्त थन्डर गाड वाइन (ट्रिप्टेजियम विलफोर्डामा) वनस्पति तत्वों में ओमेगा-फैटी एसिड (गामा लिनोलिनिक एसिड) का उपयोग सूजन के उपचार में किया जाता है। यह तत्व अनेक पौधों जैसे- इवनिंग प्राइमरोज (ओइनोथेरा वाइनिस), बोरेज करण्ट (राइब्स नाइग्रम) आदि।

खान-पान सम्बन्धीः खान-पान से सम्बन्धित कुछ सामग्रियाँ जैसे सफेद आलू, बैगन और मिर्च, दुग्ध उत्पाद, नींबू, मिठाई, कॉफी तथा मांस इत्यादि का सेवन करने से सन्धिवात से पीड़ित मरीजों की समस्याएं बढ़ जाती है, अतः इसके मरीजों को इन सामग्रियों का सेवन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार से मक्का, सूरमुखी का तेल एवं जन्तु-जनित वसा/तेल का सेवन करने से सूजन की समस्या बढ़ जाती है। हालांकि उपरोक्त कथन का कोई ठोस वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है, बावजूद इसके सन्धिवात की समस्या से पीड़ित मरीजों को इनका सेवन करने से यथा सम्भव बचना चाहिए और उन्हें संतुलित आहार का ही सेवन करना चाहिए।

एक्यूपंक्चरः एक्यूपंक्चर का विकास चीन में हुआ था, जहाँ पर इसे रोग उपचार पद्वति का एक अंग माना जाता है। सन्धिवात दर्द के उपचार में कुछ लोगों के द्वारा इस पद्वति का भी प्रयोग किया जाता है। अस्थि-सन्धि रोग में एक्यूपंक्चर के द्वारा किए गए उपचार के वैज्ञानिक प्रमाण भी उपलब्ध है, परन्तु सन्धिवाताभ के उपचार में इस पद्वति के प्रभावों के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। एक्युपंक्चर पद्वति से उपचार के अन्तर्गत किसी प्रकार के अन्य दुष्प्रभाव की सम्भावना नगण्य होती हैं।

जल-उपचारः जल उपचार की प्रक्रिया को बेलिनोथिरेजीन भी कहते हैं। इस प्रक्रया से उपचार के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं- गरम पानी से स्नान, मिनरल स्नान, वाटर-जेट मसॉज आदि हैं। उचित तरीके से इस पद्वति का प्रयोग करने से मरीज को कोई हानि नहीं होती है।

सगंध उपचार- सगंध उपचार पद्वित अपने आप में एक सम्पूर्ण उपचारात्मक पद्वति है जिसके अन्तर्गत मरीज को शारीरिक संतुष्टि के साथ ही मानसिक संतुष्टि भी प्राप्त होती है। इस उपचार के अंतर्गत तेलों का उपयोग किया जाता है। हालांकि आजकल सगंध तेलों के अतिरिक्त हाइड्रसॉल और फाइवल का प्रयोग भी किया जाता है। इन तत्वों का त्वचा पर प्रयोग करने के लिए इन्हें विभिन्न वानस्पतिक तेलों मिलया जात है अथवा क्रीम के रूप में भी प्रयुक्त किए जा सकते हैं। सगंध तेलों का मिश्रण वनस्पति तेल अथवा क्रीम में मिलाने के लिए 3ः97 का अनुपात सुरक्षित और प्रभावी रहता है। सगंध तेलों का सही मिश्रण अनुपात शारीरिक और मानसिक सन्तुष्टि प्रदान करता है जिससे तनाव में कमी आती है। सन्धिवात के लिए प्रभावी तेलों में लेवेन्डर, जूनियर, थाईम, रोजमेरी, बेन्जोम, कपूर, एन्जेलिका की जड़, अदरक, आरिगैनम, काली मिर्च और लैमन आदि हैं।

सगंध तेलों का त्वचा पर प्रयोग सर्वाधिक प्रभावली रहता है, क्योंकि यह तेल त्वचा के द्वारा सोख लिए जाते हैं और यह शीघ्र रक्त के साथ शरीर में प्रवाहित होने लगते हैं। सन्धिवात में इस प्रकार के उपचार उत्तम रहते हैं और तुरंत ही दर्द और तनाव के स्तर को कम कर देते हैं।

                                                      

होम्योपैथीः होम्योपैथी चिकित्सा पद्वति में औषधियों का प्रयोग बहुत ही अल्प मात्रा में किया जाता है, जिसे रेमेडी कहते हैं और औषधि की यह अल्प मात्रा ही रोग विशिष्ट का निदान करती है। यदि यही औषधि मरीज को यदि अधिक मात्रा में दी जायेगी तो उसी रोग विशिष्ट के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। 

चिकित्सा की इस पद्वति में रेमिडी की साँद्रता को इतना कम कर दिया जाता है कि कभी-कभी उस घोल में मूल तत्व की मात्रा बिलकुल नगण्य हो जाती है। सन्धिवाताभ में होम्योपैथिक उपचार पर बहुत कम अनुसंधान किए गए हैं और इसमें अधिक वैज्ञानिक प्रमाणिकता की आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा है।

आयुर्वेदः आयुर्वेदिक उपचार में मुख्य रूप से त्रिदोष अर्थात वात, पित्त और कफ का निवारण किया जाता है। आयुर्वेद का मानना है कि इन्हीं तत्वों में असंतुलन होने पर रोग उत्पन्न होते हैं। मनुष्य के शरीर में जब वात (वायु) का प्रकोप बढ़ जाता है तो हमें दर्द की अनुभूति होती है। इसी प्रकार से शरीर में एकत्र अपाच्य विषाक्त पदार्थों को ‘‘आंव’’कहते हैं। सन्धिवात की समस्या में शरीर में ‘‘आंव’’ एकत्र होने लगता है और इसके फलस्वरूप वात प्रकोप बढ़ जाता है। ‘‘आंव’’ मुख्य रूप से शरीर के जोड़, पेट, छाती और मस्तिष्क आदि में जमा होने लगता है और यह सामान्य शारीरिक प्रक्रिया को बाधित कर देता है। जब ‘‘आंव’’ का जमाव जोड़ों में होता है और इसके वात वात का प्रकोप भी बढ़ जाता है, इसी अवस्था को ‘‘आमवात’’ अथवा सन्धिवात कहा जाता है।

अतः सन्धिवात के आयुर्वेदिक उपचार में ‘‘आंव’’ के पाचन पर और वात के स्तर को कम करने पर जोर दिया जाता है। आमवात के प्रमुख लक्षण बुखार, शारीरिक शक्ति में कमीं, भूख न लगना और कमजोरी आदि हैं। इसके अतिरिक्त शरीर के दर्द, भोज्य पदार्थों में कोई स्वाद नहीं, प्यास और अपच आदि की शिकायत की जाती है।

आयुर्वेद में सन्धिवात का उपचारः सन्धिवात के आयुर्वेदिक उपचार के दौरान शरीर में अग्नि तत्व को बढ़ाया जाता है? जिससे कि आम का बनना बन्द हो सके। अग्नि को बढ़ाने में चित्रक, पिपली मूल, यव क्षारा, सुन्ठी और मरिच आदि का उपयोग किया जाता है।यह वनस्पतियां पहले से ही बने हुए आम (हरितकी, विभितक और आमलकी) को शरीर से बाहर निकालने में मदद करती है और जोड़ों के दर्द से राहत प्रदान करती हैं।

आयुर्वेद के अनुसार, सन्धिवात के मरीजों के लिए दही, मछली, दूध, उड़द की दाल, गुड़, कब्ज बनाने वाले भोज्य पदार्थ, चना, अदरक और करेला आदि का सेवन करना निषिद्व है। ऐसे मरीजों को गर्म जल से स्नान करना चाहिए और देर रात्री तक जागरण और दोपहर को सोना आदि भी वर्जित है।

सन्धिवात की कुछ अवस्थाओं में जहां प्रभावशाली और सुरक्षित औषधियाँ उपलब्ध्या नहीं हैं, यी.ए.एम. (कैम) की भी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। परन्तु कैम आधारित उपचार वैज्ञानिक प्रमाणिकता वाले ही होने चाहिए, इसके उपरांत ही यह सन्धिवात के सामान्य उपचार में सहयोगी भूमिका निभा सकते हैं।

लेखकः डॉ0 सुशील शर्मा, जिला मेरठ के कंकर खेड़ा क्षेत्र में पिछले तीस वर्षों से अधिक समय से एक सफल आयुर्वेदिक चिकित्सक के रूप में प्रक्टिस कर रहे हैं।