
स्वास्थ्य के लिए एक नई समस्याः कंटेंट ओबेसिटी Publish Date : 24/04/2025
स्वास्थ्य के लिए एक नई समस्याः कंटेंट ओबेसिटी
डॉ0 दिव्यांशु सेंगर एवं मुकेश शर्मा
भोजन की थाली, में यदि जंकफूड की भरमार हो जाए तो इसका सेहत पर पड़ता है गंभीर असर और यही बात लागू होती है घंटों स्मार्टफोन की स्क्रीन स्क्रॉल करने की आदत पर। कंटेंट नुमा जंकफूड आपको बना सकता है डिजिटल ओबेसिटी का शिकार।
लोग गौरव को फूडी कहते हैं। भारी भरकम शरीर और चेहरे पर लंबी मुस्कान। उन्हें मलाल है कि कुछ नया खाना ट्राई करते रहने की बुरी आदत न होती तो आज उनका वजन भी नियंत्रण में रहता। पर अब न जिम काम आ रहा है और न वजन कम करने वाला कोई प्रेरक वीडियो। यदि घंटों मोबाइल, लैपटाप के साथ आपका समय गुजरता रहता है।
कुछ लुभावनी तस्वीरें, वीडियो की शक्ल में कुछ चटपटे या मसालेदार कंटेट के रूप में पेश की गई डिश को भी यदि आप किसी फेवरेट स्नैक की तरह लगातार ट्राई कर रहे हैं तो सावधान, आप पर मंडरा रहा है कंटेंट ओबेसिटी का खतरा।
आटो मोड पर है सब
नूडल्स, पास्ता या डिब्बाबंद खाना इसके शौकीनों को तुरंत लुभा लेता है। यह जानते हुए भी कि यह सेहत के लिए अच्छा नहीं, वे इन्हें दिन के किसी भी समय में खा सकते हैं। इंटरनेट मंचों पर परोसा जाने वाला कंटेंट भी जंकफूड की तरह लोगों को अपनपा आदि बना रहा है। दिन के किसी भी प्रहर में लोग घंटों उनका सेवन कर रहे हैं।
इससे रोजमर्रा की तनाव देने वाली गतिविधियों से तनिक देर के लिए छुटकारा तो मिल सकता है परन्तु उसमें मौजूद ज्ञानविहीन तत्व की मोटी खुराक आपको कंटेंट ओबेसिटी का शिकार बनाने के लिए काफी है। दरअसल, इंटरनेट मंचों को ऐसे तैयार किया गया है कि आप देर तक उसमें फंसे रहें, स्क्रॉल करते रहें। कुछ नया दिख जाए तो यह आपको आगे कुछ और नया पाने के लिए भी उकसाता है।
वास्तव में उनमें अधिकांश सामग्री मूल्य विहीन होती है। यह जानते हुए भी आप उन्हें क्यों देखते हैं? हमारे स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ0 दिव्यांशु सेंगर बताते हैं कि इस स्थिति को हमारे दिमाग की कंडीशनिंग हो जाना कहते हैं।
उनके अनुसार, ‘जो चीज आप बार-बार करते हैं हमारा दिमाग भी उन्हें सहज तरीके से अपना लेता है। एक समय बाद वह इसे आटो मोड में करता चला जाता है। जैसे, कार चलाते समय एक साथ क्लच, एक्सीलेटर आदि का ध्यान रखते हुए गाने सुनते हैं। कभी फोन पर बात भी कर लेते हैं।’
मोल ले रहे भारी संकट
स्मार्टफोन, लैपटाप पर नाचती अंगुलियां जरा देर मी रुकना नहीं चाहतीं या यूं कहें आपका मन सहीं मानता कि जरा देर के लिए फोन रख दें। भीतर से आवाज तो आती है कि व्यर्थ इतना समय गंवाया पर यह झल्लाहट कुछ देर ठहरकर गुम हो जाती है। अगली बार कुछ नया देखने, सुनने, पढ़ने की भूख ऐसा आवेग लाती है जो आपको इंटरनेट की दुनिया में ले जाती है। ऐसा करके आप तमाम बीमारियों को स्वयं ही बुलावा दे रहे हैं।
पहले प्रिय लगने वाली चीजों को खाने की आदत पड़ी, फिर कुछ नया ट्राई करते जाने के क्रम में भूल गए कि आप लगातार बैठकर कई मुसीबतें मोल ले रहे हैं। जर्नल आफ अप्लाइड फिजियोलाजी में प्रकाशित अध्ययन की मानें तो दिन में 13 घंटे से अधिक समय तक बैठे रहने से कसरत करने के लाभ भी समाप्त हो सकते हैं।
यह प्रवृत्ति आपको उच्च रक्तचाप, हाइपरटेंशन के मुहाने पर भी खड़ा कर सकती है। इंटरनेट मीडिया से आप जो कंटेंट ले रहे हैं, उनमें आपके काम का कुछ नहीं, यह आभास आपको मूल्य हीनता का अनुभव कराता है।
व्यर्थ समय खर्च होने और हाथ कुछ न आने से पैदा हुई एंग्जायटी की भुलाने के लिए मेडिटेशन का कोर्स और रिट्रीट सेंटर पर जमकर धनराशि खर्च कर रहे हैं। लंबी छुट्टियों पर भी जाते हैं परन्तु लौटकर आने के बाद दोबारा उसी मोड पर लौट आती है जिंदगी। वही मोबाइल, वहीं कंटेंट और एंग्जायटी, जो कभी पीछा ही नहीं छोड़ती।
किसने चुराया ध्यान?
शार्ट मूवी और रील्स के दौर में तीन घंटे की फिल्म देखना अब अधिकांश को भारी लगता है। दरअसल, बीते वर्षों में एक जगह ध्यान टिकाने की अवधि बहुत तेजी से कम हुई है। बेचैनी, थकान ही हावी रहती है। डॉ0 सेंगर के अनुसार, ‘करीब दो दशक पूर्व 24 मिनट तक एकाग्र रहने वाले इंसान की एकाग्रता अब मात्र आठ सेकेंड तक की रह गई है जो गोल्डफिश की एकाग्रता की अवधि नौ सेकेंड की अवधि से भी कम है।
यदि भूलने की बीमारी बढ़ी है तो इसका कारण भी यही है।’ हमारा दिमाग ध्यान से सुनने के बाद ही कोई चीज याद रख पाता है। पर छोटे-छोटे काम करते हुए भी मन बेचैन रहता है, तो आपको इसकी चिंता करनी चाहिए। परिवार में यदि किसी ने शिकायत की है कि उनसे बात करते समय भी आप फोन पर नजरें गड़ाए रहते हैं तो यह संकेत है कि अब रिश्ते को समय देने की आवश्यकता है। कंटेंट ओबेसिटी से पैदा हुई बेचैनी ने परिवार, प्रियजनों व समाज से भी आपको दूर कर दिया है। हर कोई कह रहा है कि अब जिंदगी अकेलेपन में कट रही है तो सोचें कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है।
- कंटेंट देखने की समय सीमा तय करें और इस पर अमल करना आज से ही शुरू करें, क्योंकि कल कभी नहीं आता है।
- डिजिटल डिटाक्स वैकेशन भी इसका एक उपाय है परन्तु इसे स्थाई समाधान नहीं कहा जा सकता।
- जिस कैटेंट को देख रहे है, वह क्यों देख रहे है, उससे आपकी क्या मदद हो रही है, अपने आप से ऐसे सवाल करें।
- उन मंचों को तलाशे जो गुणवत्ता से भरे, शोधपरक, मूड बेहतर करने वाले, शिक्षाप्रद होने के साथ ही प्रेरक भी हों।
- कंटेंट देखने की आदत पर नियंत्रण रखने के क्रम में किताबों से दोस्ती आपके काम आ सकती है।
- प्रकृति के साथ समय बिताएं। इससे आत्म-अनुशासन बनाने में सहायता प्राप्त होती है।
ठहराव है उचित समाधान
कंटेट देखने के प्रलोभन से अपना बचाव आप स्वयं ही कर सकते हैं। पहले दिमाग को आराम देना होगा। निरंतर बहते चले जाने के स्थान पर कुछ समय रचनात्मक कार्यों के लिए निकालें। यह अधिक आनंददायक होगा, साथ ही इससे कार्यक्षमता व उत्पादकता भी बढ़ती है।
गंभीर चेतावनी
अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित ताजा शोध देश-दुनिया में एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध उपयोग के खतरों को लेकर गंभीर चेतावनी देता है। इन दवाओं के अनियंत्रित वितरण पर अंकुश लगाने के लिए नीतिगत सुधारों के अलावा इनके विवेकपूर्ण उपयोग को लेकर लोगों का जागरूक करना भी जरूरी है।
ज्यरिख, ब्रुसेल्स और जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालयों व कुछ अन्य प्रतिष्ठित संगठनों के एक अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित शोध का यह खुलासा बेहद चिंताजनक है कि वर्ष 2030 तक विश्व में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रयोग में 50 फीसदी से भी ज्यादा की वृद्धि हो सकती है। यह अध्ययन सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के लिए एक गंभीर चेतावनी तो है ही, इससे यह भी पता चलता है कि इन दवाओं का अंधाधुध उपयोग मानवता को किस तरह एक वैश्विक स्वास्थ्य संकट की ओर धकेल रहा है।
रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2016 से 2023 के चीच भारत समेत पूरी दुनिया में एंटीबायोटिक दवाओं की खपत में तेज बढ़ोतरी हुई है। दरअसल, विकासशील देशों में बढ़ती जनसंख्या और संक्रमणों के बढ़ते मामलों ने एंटीबायोटिक दवाओं की माग को बढ़ाया है। लेकिन इन देशों में खराब स्वास्थ्य सेवाओं और डॉक्टरों की कमी के चलते भी लोग बगैर चिकित्सकीय सलाह के अक्सर इन दवाओं का सेवन करने लगते है, जिससे स्थितियां बद से बदतर हो रही है।
विषाणु जनित सक्रमणों में इसके मामूली प्रभाव के बावजूद भी कोरोना महामारी के दौर में भी इनका अत्यधिक उपयोग देखा गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन को रिपोर्ट बताती है कि कोरोना की वजह से अस्पताल में भर्ती मरीजों में से महज आठ फीसदी को जीवाणुओं के कारण होने वाला संक्रमण था। इसके बावजूद कोरोना के हर चार में से तीन मरीजों को सिर्फ इस उम्मीद में एंटीबायोटिक दवाएं दी गई कि शायद वे उसके लिए फायदेमंद होंगी।
बेशक महामारी से पहले विकसित देशों में इनका उपयोग कम हो गया था, लेकिन खास तरह के एंटीबायोटिक की मांग फिर भी बनी रही। यह स्थिति एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध (एएमआर) के जोखिम को बढ़ा रही है, जिसमें जीवाणुओं में एटीबायोटिक दवाओं को लेकर प्रतिरोध विकसित हो जाता है। यह स्थिति एक अदृश्य महामारी का रूप ले सकती है, जिससे साधारण संक्रमण भी जानलेवा हो सकते हैं।
इस स्थिति को देखते हुए कि एएमआर से पूरी दुनिया में हर वर्ष साढ़े बारह लाख, तो भारत में करीब तीन लाख मौतें होती हैं।
जरूरी है कि समय रहते इस समस्या का समाधान कर लिया जाए। भारत दुनिया में एंटीबायोटिक दवाओं के सबसे बड़े बाजारों में से एक है और दिक्कत यह है कि यह दवाएं बड़ी आसानी से हर जगह उपलब्ध है। एंटीबायोटिक दवाएं देश और दुनिया में मृत्युदर में कमी लाने में सहायक बनी है, लेकिन इनका अनावश्यक उपयोग चिंताजनक है। एंटीबायोटिक दवाओं के अनियंत्रित वितरण पर अंकुश लगाने के लिए नीतिगत सुधार जरूरी हैं, लेकिन वह भी तभी सार्थक साबित होगे, जब लोगों में इसके विवेकपूर्ण उपयोग को लेकर जागरूकता आएगी।
लेखक: डॉ0 दिव्यांशु सेंगर, प्यारे लाल शर्मां, जिला चिकित्सालय मेरठ मे मेडिकल ऑफिसर हैं।