
अमरुद म्लानी (विल्ट) की रोकथाम के समन्वित रोग एवं कीट प्रबंधन Publish Date : 22/07/2025
अमरुद म्लानी (विल्ट) की रोकथाम के समन्वित रोग एवं कीट प्रबंधन
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
अमरुद उष्ण- उपोष्णकटिबंधीय देशो की एक महत्वपूर्ण फल फसल है। अमरूद का फल अक्सर कटिबंध देशों के सेब के रूप में जाना जाता है। अमरूद की उत्पत्ति उष्ण- कटिबंधीय अमेरिका के मूल की मानी जाती है और भारत में इसका देशीयकृत हुआ है।
यह व्यावसायिक रूप से भारत, चीन, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, फ्लोरिडा, हवाई द्वीप, मिस्र, यमन, ब्राजील, मेक्सिको, कोलंबिया, वेस्टइंडीज, क्यूबा, वेनेजुएला, न्यूजीलैंड, फिलीपींस, वियतनाम और थाईलैंड की एक मुख्य फसल है और इसका कारण पूरे साल इसकी उपलब्धता, उच्च पोषण स्तर, औषधीय मूल्य और वहन करने योग्य कीमत, और आसान परिवहन, हैंडलिंग आदि है।
अमरूद भारत के लगभग सभी राज्यों में उगाया जाता है। भारतीय अमरूद की सभी किस्मे एक ही जाती से है जो कि गुअजावा है। अमरूद को अक्सर एक अमीर फल के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसके बीज ओमेगा 3 और ओमेगा 6 संतृप्त फैटी एसिड से भरपूर होते हैं।
विशेष रूप से फल में रेशे साथ ही विटामिन ए और सी पाया जाता है। यह पोटेशियम, मैग्नीशियम और अन्य आवश्यक पोषक तत्वों से अभिग्रहित फल है साथ ही यह कैरोटीन, पोलीफीनोल और एंटीओक्सिडेंट का भी अच्छा स्रोत होता है।
अमरुद की वर्ष में तीन फसले आती है परन्तु इनमें सर्दियों की फसल को सबसे अच्छी फसल फसल माना गया है, लेकिन बहुत से लोग इसे ठंडी तासीर का समझ कर इसका सेवन सर्दियों में नहीं करते है जबकि यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढानें में भी मदद करता है।
नियमित रूप से इसका सेवन करने से सामान्य मौसमी बीमारियों से बचा जा सकता है। यह विटामिन सी का एक अच्छा स्रोत है जो कि रक्त की सफ़ेद रक्त कणिकाओं को तेजी से बढ़ाकर संक्रमण से लड़ने में मदद करता है। इस तरह हमारी प्रतिरोधक क्षमता में कई गुना वृद्धि हो जाती है।
अमरूद में फाइबर का भी प्रचुर भंडार होता है। साथ ही यह कोलेस्ट्रोल बढ़ने से रोकने में भी मदद करता है और दिल के रोगों से भी हमारा बचाव करता है।
विटामिन ए कीटाणु को रोक कर शरीर में प्रवेश करने से पहले ही उसे खत्म कर देता है। इसमें मोजूद लायकोपिन सूरज की हानिकारक किरणों से हमारी रक्ष करता है तथा त्वचा कैंसर से सूरक्षा प्रदान करता है। अमरूद को प्राकृतिक अवस्था में खाना ही सबसे उत्तम रहता है और सुबह के समय इसे पीना भी काफी लाभकारी होता है।
बहुत सारे आर्थिक और स्वास्थ्य लाभ होते हुए भी बहुत सारी ऐसी समस्या है जो अमरुद के विकास में अवरोध पैदा करती है। यह बहुत कम देखभाल के भी आसानी से लग जाता है, पर बहुत सी बीमारियों से प्रभावित होता है जिनमे से कवक का प्रमुख योगदान है।
अमरुद की फसल में रोग एवं कीट नियंत्रण
अमरुद की फसल को कई रोग हानि पहुंचाते है जिनमे म्लानी रोग, तना केकर, एनेथ्रकनोज, स्कैब, फल विगलन, फल चिती तथा पोध अंगमारी आदि प्रमुख रोग है। अमरुद में लगने वाले विभिन्न कीड़ो में तना वेधक कीट, अमरुद की छाल भचछी इल्ली, स्केल कीट तथा फल मक्खी आदि प्रमुख है, अतः इन सभी की रोकथाम करना आवश्यक है।
अमरुद में बरसात की फसल में फल मक्खी भी बहुत नुकसान पहुंचाती है। इसकी रोकथाम के लिए सबसे पहले मक्खी से संदुषित फलो को एक जगह करके नष्ट कर देना चाहिए। पेड़ो के बेसिन की जुताई करे तथा मिथाइल उजिनोल के 8-10 ट्रैप को (100 मी. ली घोल में 0.1 प्रतिशत मिथाइल उजिनोल तथा 0.1 प्रतिशत मेलाथीऑन) प्रति हेक्टयर की दर से पेड़ो की डालियों पर 5-6 फीट ऊंचे लटका दे। यह बहुत ही प्रभावी तकनीक है साथ ही इस घोल को प्रति सप्ताह बदलते रहना चाहिए।
अमरुद में विल्ट रोग
अमरूद में विल्ट एक बहुत ही नुकसान करने वाली बीमारी है। यह भारत में सबसे पहले इलाहाबाद में वर्ष 1935 में दिखाई दी। यह एक मिट्टी जनित रोग है और इसका नियंत्रण करना बहुत ही मुश्किल है। यह रोग फुसरियम ओकसिस्पोरुम से होता है। इसके आलावा इस रोग के और भी कई अन्य प्रकार भी है जैसे फुसरियम सोलानी आदि।
इस रोग से पूरी तरह पादप प्रभावित होता है और मर जाता है। यह वार्षिक और बहुवार्षिक दोनों ही फसलो को नुकसान पहुचाता है। इस रोग के चलते भारत में इसे लगाने में चिंता का विषय माना जाता है, साथ ही अमरूद से होने वाली आय और उसकी पोषकता को भी हानि पहुँचती है।
वर्ष 1947 में यह बीमारी उत्तर प्रदेश के ग्यारह जिलो में व्यापक रूप से पाई गई। उसके बाद बंगाल, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, झारखंड और आँध प्रदेश आदि राज्यों में भी यह रोग व्यापक रूप से फैला। इसी तरह यह रोग अमेरिका, ताईवान, अफ्रीका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ब्राज़ील और ऑस्ट्रेलिया आदि देशो में भी दिखाई दिया। सिंह और लाल के अनुसार उत्तर प्रदेश के बारह जिलो में हर साल यह रोग 5-15 प्रतिशत तक नुकसान पहुचाता है। जबकि इस रोग के कारण ही पश्चिम बंगाल में अस्सी प्रतिशत तक नुकसान पाया गया। भारतीय अमरूद की सभी किस्मों एक ही प्रजाति से है जो कि गुअजावा है।
अमरुद में विल्ट लक्षण
विल्ट से प्रभावित पादप की पतिया पीली होने लगती है। साथ ही किनारे वाली पत्तियां अन्दर की तरफ से मुड़ने लगती है और अंत में यह लाल होकर झड़ने लगती है। टहनियों में कोई भी पत्ती दिखाई नयी देती और यह सूखने लगती है। ऐसी टहनियों पर लगे फल अविकसित रह जाते है और काले रंग के होने लगते है साथ ही कठोर भी हो जातें है और पूरी तरह इस प्रक्रिया में सोलह दिन लग जाते है, आखिर में पोधा मर जाता है।
बहुत से अनुसंधानकर्ताओं ने इस रोग के लक्षणों में मौसम के हिसाब से असमानता देखी है। पौधे की जड़ो पर भी इसका असर देखने को मिलता है। जड़ो के आधार भागों पर गलन शुरू हो जाती है और काले रंग की धारियाँ भी बनने लगती है।
यह रोग नए और पुराने दोनों प्रकार के पौधों को प्रभावित करता है, हालांकि, पुराना बाग इस रोग से अधिक प्रभावित होता है। नयी पोध की वृद्वि धीमी हो जाती है अैर फूल यदा कदा बहुत ही कम आते है और बहुत ही कम समय में सूखा इसे जकड लेता है।
रोगकारक
फुसरियम ओक्सिस्पोरुम सिदी एवं फुसरियम ओक्सिस्पोरुम सोलानी अमरुद में मुख्य रूप से विल्ट का विकास करते है। यह सीधे या तो जड़ो से प्रवेश करता है या दिर्तीयक जड़ो से प्रवेश करता है। साथ ही यह रोगकारक विभिन्न मॉर्फ़ और कल्चर रूप में मिलता है। यह आर्डर मोनिअलेस से है एवं इसकी फॅमिली तुबेर्कुल्रानासाए है। यह सभी मर्तभक्षी होते है।
रोग की गभीरता के कारण
इसके लक्षण मिटटी पी. एच. 7.5 से 9.0 में अच्छा माना जाता है। इस रोग से प्रभावित पोधे वर्षा ऋतू से लेकर अक्टूबर माह तक ज्यादा लक्षण दर्शाते है। जबकि इस रोग की शुरुआत जून से ही हो जाती है साथ ही एक महीने से दो महीने के अन्दर यह पूरी तरह सूख कर पूरी तरह से मृत हो जाते है। अमरुद के बाग में काफी दिनों तक पानी भरा रहने के कारण साथ ही समय पर नियंत्रण न करने के कारण भी इस रोग का प्रकोप अधिक होता है।
रोकथामः
समन्वित विधिः
- रोग की बाग की अच्छी स्वछता से रोकथाम की जा सकती है।
- संक्रमित पेड़ों को जड़ सहित उखाड़ देना चाहिए एवं जला कर नष्ट कऱ देना चाहिए।
- पोध रोपण के समय यह ध्यान देना चाहिए की पौधों की जड़ो को नुकसान न पहुंचने पाए।
- गड्डों को फोर्मलिन से उपचारित कर लेना चाहिए और तीन दिन के लिए ढक देना चाहिए और पोध रोपण इसके दो हफ्ते बाद करना चाहिए।
- चूँकि यह मिटटी जनित रोग है इसलिए भूमि में ब्रसिकोल एवं बाविस्टीन (0.1 प्रतिशत) जड़ो और पत्तियों के चारो और पन्द्रह दिन के अन्तराल पर डालना चाहिए।
- कर्बिनिक खाद, खली और चूना आदि भी रोग को रोकने में सहायक होते है।
- जैवकारक जैसे एसपेर्जिल्लुस नाइजर ए.न. 17, प्रतिरोधी मूलवृन्त, गेंदा की फसल को साथ में प्रयोग में लाया जा सकता है। ताइवान की एक लोकल किस्म पेई-पा पहचानी गयी है। इसके अलावा सिडियम कत्तेलिअनुम किस्म लुसिदियम साथ ही जामुन इसी तरह चाइनीज़ और फिल्लिपेनेस मूलवृन्त को प्रयोग में लाया जा सकता है।
- रसायनिक नियंत्रण की जगह अगर प्राकृतिक कवकनाशी प्रयोग में लाये तो ज्यादा अच्छा होगा क्योंकि रसायनों के अवशेष भी रह जाते है साथ ही कवको में इनके प्रति प्रतिरोधिता भी विकसित होने लगती है, जिससे इनका असर कम हो जाता है। लैंटाना, नीम, तुलसी, इसबगोल, धतूरा, हल्दी और आक आदि रोगकारक को कुछ हद तक रोकने में कारगार सिद्ध हुए है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।