
पपीते की वैज्ञानिक खेती Publish Date : 15/07/2025
पपीते की वैज्ञानिक खेती
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
पपीता एक महत्त्वपूर्ण फल है जिसका हमारे देश में इस का उत्पादन पूरे साल किया जा सकता है। पपीते की खेती के लिए मुख्य रूप से जाना जाने वाला प्रदेश झारखंड है, यहां उचित जलवायु मिलने के कारण पपीते की अनेक किस्में तैयार की गई हैं।
पपीते का अधिकतर उपयोग जैम, पेय पदार्थ, आइसक्रीम एवं सिरप इत्यादि बनाने में किया जाता है। इस के बीज भी अपने औषधीय गुणों से भरपूर होने के कारण महत्त्वपूर्ण होते हैं। पपीते के कच्चे फल सब्जी के रूप में उपयोग किए जाते हैं:
पपीते के कच्चे, लेकिन परिपक्व पपीते के फलों से निकलने वाले दूध को सुखाकर पपेन बनाया जाता है।
पपीते की प्रजातियां: भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने अनुसंधान के द्वारा पपीते की अनेक प्रजातियां विकसित की हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के केंद्र पूसा, बिहार, तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयंबटूर और भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान, बैंगालुरु व पंतनगर विश्वविद्यालय के द्वारा कई प्रजातियां विकसित की गई हैं और कुछ विदेशी प्रजातियां भी हैं, जो भारत में उगाने के लिए उपयुक्त पाई गई हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के केंद्र, पूसा, बिहार में विकसित की गई मुख्य किस्में-
पूसा डेलीशियसः इस किस्म के पौधे मध्यम आकार के, जिन में फलत 40-50 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर आती है। पेड़ की ऊंचाई लगभग 2 मीटर होती है। फल 1.5-2.0 किलोग्राम वजन के सुंदर बड़े नारंगी रंग के और मीठे स्वाद वाले होते हैं।
फलों के गुणों की दृष्टि से यह उत्तम किस्म है और प्रति पेड़ लगभग 50 किलोग्राम फल मिलते हैं, इसके फलों में बीज कम होते हैं। इसके जो भी पौधे उगते हैं, वे या तो मादा होते हैं या उभयलिंगी होते हैं। यह किस्म बिहार क्षेत्र के लिए उपयुक्त पाई गई है।
पूसा मेजेस्टीः इसकी पैदावार पूरा लीशियम की तरह है इस के पौधे भी मध्यम आकार के होते हैं, जिस में फलत 40-50 मैंटीमीटर ऊंचाई पर आती है और इसके फल मध्यम आकार के 1.25-1.50 किलोग्राम वजन के औसत गुणों वाले होते हैं।
इस की उपज 40 किलोग्राम प्रति पेड़ है। इसके फलों की भंडारण क्षमता अच्छी होती और दूर के बाजारों में भेजने के लिए उपयुक्त है। इस में वपेन की मात्रा भी अधिक होती है। यह पपीते की गाइनोडायोशियस किस्म है।
पूसा डवार्फः यह अधिक पैदावार ने वाली किस्म है, जिस में फलत भूमि से 25-30 सेंटीमीटर की ऊंचाई से शुरू हो जाती है। फल 1.5-2.5 किलोग्राम वजन के मध्यम श्रेणी के अंडाकार व मीठे होते हैं। प्रति पौधे से लगभग 35 किलोग्राम उपज प्राप्त होती है।
जिन स्थानों पर तेज हवा चलती है, वहां पर इस की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है. इस में नर एवं मादा फूल अलग-अलग पौधों पर आते हैं।
पूसा ज्वाइंटः यह पपीते की अच्छी पैदावार देने वाली, विशालकाय डायोशियस प्रजाति है। इस के पौधे ऊंचे और भूमि से 50-75 सेंटीमीटर ऊंचाई पर फलते हैं। फल 2-3 किलोग्राम वजन के बड़े आकार के और औसत गुण वाले होते हैं। इन का उपयोग पेठा आदि बनाने में किया जाता है। फलों की उपज लगभग 35 किलोग्राम प्रति पौधा होती है। यह तेजी से बढ़ने वाली किस्म है। इस के पौधे मजबूत होते हैं, इसलिए जहां तेज आंधी की संभावना हो, वहां यह किस्म अच्छी होती है। इस में नर एवं मादा फूल अलग-अलग पौधे पर आते हैं।
पूसा नन्हाः यह उत्परिवर्तन जनन के द्वारा विकसित की गई पपीते की बहुत ही बौनी किस्म है पौधे रोपाई के लगभग 230 दिन बाद 30 सेंटीमीटर की ऊंचाई से फलना शुरू कर देते हैं। पौधे की कुल ऊंचाई 1 मीटर होती है और 3-4 बार फसल लेने पर भी ऊंचाई कम ही रहती है।
सघन बागबानी के लिए यह किस्म उपयुक्त है प्रति पौधा लगभग 15 किलोग्राम फल प्राप्त होता है। यह घरों के आसपास गृह वाटिका और गमलों में लगाने के लिए भी उपयुक्त है।
तमिलनाडु के कोयंबटूर में स्थित कृषिविश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई किस्में:
कोयंबटूर-1: यह छोटे पौधे वाली दिलगी किस्म है इसमें जमीन से 60 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर फल लगते हैं। यह गोल एवं मध्यम आकार के होते हैं और उन एवं स्वादिष्ट होता है फल का औसत वजन 1-1.5 किलोग्राम होता है।
कोयंबटूर-2: यह तेजी से बढ़ने वाली किस्म है इसके फल मध्यम आकार के आयताकार होते हैं जो पपेन उत्पादन के लिए उपयुक्त है। इस के प्रत्येक फल से 5-6 ग्राम पपेन प्राप्त होता है। इस प्रकार इस किस्म से प्रति हैक्टेयर 300 किलोग्राम शुष्क पपेन प्राप्त होता है।
कोयंबटूर-3: यह लाल रंग के गूदे वाली किस्म है। इसके फल आकार में गोल होते हैं। इस के पोधे उभयलिगी होते हैं, इसलिए इस का प्रत्येक पौधा फल देता है।
कोयंबटूर-4: इस किस्म में नर और मादा पौधे अलग-अलग होते हैं। इस के पौधे तेज गति से बढ़ने वाले होते हैं। फलों का गूदा मोटा और हलकी जामुनी आभा लिए होता है।
कोयंबटूर-5: पपीते का यह किस्म मुख्य रूप से पपेन उत्पादन के लिए ही विकसित की गई है। इस के पेड़ 90 सेंटीमीटर की ऊंचाई से फलना शुरू करते हैं और प्रत्येक पेड़ से 70-80 किलोग्राम फल दूसरे साल से प्राप्त होते हैं। प्रति फल 14-15 ग्राम शुष्क पपेन मिलता है। इस का पौधा बैगनी काया लिए होता है।
कोयंबटूर-6: यह किस्म मैजेस्टी किस्म से चयन कर के निकाली गई है। यह कम ऊंचाई वाली प्रजाति है और खाने व पपेन उत्पादन दोनों के लिए उपयुक्त है।
इस किस्म के पौधे एकलिंगी होते हैं। इस में कोयंबटूर-2 से अधिक पपेन मिलता है। इस प्रजाति का प्रदर्शन पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु में सर्वोत्तम रहा है।
बैंगलुरू में भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित प्रमुख किस्मः
कुर्ग हनीः यह बहुत मीठी किस्म है और इस किस्म के पौधे उभयलिंगी होते हैं। इसके फल मध्यम आकार से ले कर बड़े आकार के और वजन में लगभग 1.25-2.5 किलो के होते हैं। फलों की त्वचा चिकनी होती है, जिसके ऊपर धारियां भी बनी होती हैं यह किस्म विशेष रूप से दक्षिण भारत में उगाए जाने के लिए उपयुक्त है।
सूर्याः भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान बंगलुरू के वैज्ञानिकों ने पपीते की इस नई संकर किस्म को विकसित किया है। इस किस्म को सनराइज सोलो और पिंक फ्लैश स्वीट के संकरण से तैयार किया गया है। इस किस्म के फल 600-800 ग्राम वजन वाले होते हैं। गूदा लाल रंग का काफी मीठा और स्वादिष्ठ होता है और यह एक उभयलिंगी किस्म है। इस के फलों की भंडारण क्षमता अच्छी है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर 48-58 क्विटल तक उपज देती है। इस किस्म के फल निर्यात के लिए उपयुक्त होते हैं।
पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय द्वारा तैयार की गई किस्म:
पंत पपीता-1: यह एक बौनी और द्विलिंगी किस्म है, जो 45-60 सेंटीमीटर की ऊंचाई से फलना शुरू करती है। इस किस्म के फल गोल, मध्यम आकार के चिकनी त्वचा वाले होते हैं और उन पर धारियां होती हैं। इस प्रजाति के फलों का रंग पकने पर पीला हो जाता है। इस का गूदा भी पीले रंग का रसदार व मीठा होता है। यह अधिक पैदावार देने वाली किस्म है। औसत उपज 30-40 फल प्रति पौधा होती है और फल का वजन 1.0-1.5 किलोग्राम होता है। यह किस्म तराई क्षेत्र के लिए उपयुक्त है।
अन्य प्रजातियां
पिक फ्लैशः पपीते की यह एक संकर किस्म है, जो सनराइज सोलो और पिंक फ्लैश स्वीट के संयोग से विकसित की गई है। फल लाल गूदायुक्त एवं अधिक गूदे वाले होते हैं। इस प्रजाति के फल खाने के लिए सर्वाेत्तम माने गए हैं और प्रति पौधा पैदावार भी अपेक्षाकृत अधिक मिलती है।
वाशिंगटनः यह एक द्विलिंगी किस्म है तने की गांठें और पत्तियों के डंठल बैगनी रंग के होते हैं। इस के फल मध्यम आकार के एवं अंडाकार होते हैं, जिन का गूदा पीलापन लिए हुए लाल, स्वादिष्ठ व मीठा होता है साथ ही इसके फलों की महक भी रुचिकर होती है। इस किस्म का भंडारण भी अधिक समय के लिए किया जा सकता है।
सलैक्शन-7: इस किस्म के पौधे भी द्विलिंगी और औसत आकार के होते हैं। फल मध्यम आकार के, जिन पर धारियां पड़ी रहती हैं। पकने पर इसके फलों का रंग पीला हो जाता है। इस का गूदा हल्का गुलाबी व रसदार होता है। यह किस्म पपेन प्राप्त करने के लिए उत्तम है।
सनराइज सोलोः यह पपीते की एक विदेशी प्रजाति है, जो कि हवाई द्वीप से लाई गई है। फल छोटे, मध्यम व नाशपाती के आकार के होते हैं। फल खाने में मीठे व गूदा लाल गुलाबी रंग का होता है। इस की भंडारण क्षमता अच्छी है और यह निर्यात के लिए उपयुक्त है।
ताइवानः यह पपीते की एक विदेशी प्रजाति है। इस के फलों के गूदे का रंग गहरा लाल होता है। यह स्वाद में काफी मीठा होता है। यह पपीते की गाइनीडायोशियस किस्म है और इस का प्रत्येक पौधा फल देता है।
इस के अलावा पपीते की कुछ प्रसिद्ध किस्में जैसे रांची, रांची ड्वार्फ, सीलोन, सिंगापुर, पंत पपीता 2, बरवानी, पेराडेनिया, हाफलींग, पेन, पीके 10, पीके 12 आदि हैं।
जलवायु एवं भूमि
पपीता एक उष्ण कटिबंधीय फल वाली फसल है, लेकिन की खेती मध्यम जमीन में सफलतापूर्वक की जा सकती है। वहीं में पाले और गरमी में तेज हवा का पौधे की बड़वार एवं फलत पर बुरा असर पड़ता है। 1,000 मीटर तक की ऊंचाई वाले इलाकों में भी इसे विशेष सावधानियों के साथ उगा सकते हैं।
जल पपीते की भरपूर उपज लेने के लिए उचित निकास वाली दोमट व बलुई दोमट भूमि उत्सम मानी गई है, क्योंकि पपीते के पौधों की जड़ों व तने के समीप पानी रुकने की स्थिति में पौधे की जड़ व तना सड़ने लगता है, जिस के फलस्वरूप पौधा सूख जाता है।
6.5-7.0 पीएच मान वाली मिट्टी पपीते की खेती के लिए उपयुक्त रहती है। कंकरीली और ऊसर भूमि में पपीता कदापि रोपित नहीं करना चाहिए।
पपीत के सफल उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि क्षेत्र विशेष के अनुसार अच्छी किस्म के उत्तम श्रेणी के बीज को बोया जाए। बीज सदैव प्रमाणित एवं विश्वसनीय संस्थानों से ही लेना चाहिए।
पौध तैयार करना
नर्सरी के लिए बलुई दोमट भूमि का प्रयोग करें। यदि मिट्टी चिकनी हो, तो उस में थोड़ी बालू मिला लें। नर्सरी तैयार करने के लिए एक भाग गोबर की अच्छी सड़ी हुई खाद, एक भाग लीफ मोल्ड को 3 भाग मिट्टी में भलीभांति मिला कर जमीन से 15 सेंटीमीटर ऊंचीं क्यारियां बनाएं एवं आकार को सुविधानुसार रख सकते हैं।
- क्यारी 1 मीटर चौड़ी और 3 मीटर लंबी रख सकते हैं। इस आकार की प्रत्येक क्यारी में 75-100 ग्राम बीज बोया जा सकता है।
- पौध उगाने के लिए 4X6 आकार की पौलीथिन बैग का प्रयोग भी कर सकते हैं। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में पपीते की पौध लगाने के लिए 300-400 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है।
- बीज को बोने से पहले 12 घंटे पानी में भिगोते हैं। भीगे बीजों को पानी से निकाल कर वाविस्टिन अथवा ब्लाईटौक्स के 0.5 फीसदी घोल से 10 मिनट तक उपचारित करते हैं और कुछ समय के लिए छाया में सुखा देते हैं।
- इस के बीजों को सदैव पंक्तियों में बोना चाहिए, क्यारी में 10-10 सेंटीमीटर की दूरी पर 1-2 सेंटीमीटर पर गहरी लाइन बना ली जाती है और बीजों की आपसी दूरी 3-4 सेंटीमीटर रखना ठीक है। फिर कतारों में बोए गए बीजों को गोबर की खाद व मिट्टी के मिश्रण से ढक देते हैं।
- तेज धूप से बीज को बचाने के लिए क्यारी के ऊपर घास या अखबार का कागज फैला देते हैं और प्रतिदिन हजारे से ही सिंचाई करते हैं तथा 15-20 दिन में अंकुरण हो जाने के बाद क्यारी से घास या अखबार को हटा देते हैं और कॉपर सल्फेट या जिंक सल्फेट का एक ग्राम प्रति लिटर पानी के हिसाब से घोल कर सिंचाई करते हैं। इस से फफूंद लगने की संभावना कम हो जाती है।
- जब पौधे 10-15 सेंटीमीटर के हो जाएं, तो उन्हें नर्सरी की बड़ी क्यारियों में 15-15 सेंटीमीटर की दूरी पर लगा कर हलकी सिचाई कर देनी चाहिए।
- रोपण के एक माह बाद ही पौध मुख्य खेत में लगाने लायक हो जाती है। पपीते के पौधों को एग्रोनेट (जालीचर) के अंदर उगाए जाने की प्रबल संभावनाएं हैं। इससे विषाणु एवं कवक संक्रमण को कम किया जा सकता है।
खेत की तैयारी
खेत की तैयारी के लिए प्रति हेक्टेयर 200 क्विटल गोबर की खाद डाल कर मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए। इस के बाद 2-3 बार कल्टीवेटर या हैरो से जुताई करनी चाहिए, ताकि मिट्टी भुरभुरी हो जाए।
पूरी तरह से तैयार खेत में 30x30x30 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे 1.5x2 मीटर की दूरी पर एक सप्ताह पहले खोद कर खुला छोड़ देना चाहिए।
इस के बाद लगभग 125 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फास्फोरस एवं 250 ग्राम पोटाश मिट्टी में अच्छी तरह मिला कर गड्ढों को 15 सैंटीमीटर की ऊंचाई तक भर दें। इस प्रक्रिया के 2-3 दिन बाद पौध रोपण करना उचित रहता है। नाइट्रोजन की बाकी बची 125 ग्राम मात्रा को पौधे लगाने के बाद 3-4 बार में प्रयोग करना चाहिए। उर्वरक डालते समय यह सावधानी रखें कि उर्वरक का संपर्क पौधे से न होने पाए।
पौध रोपण
आमतौर पर पौधे को रोपने का काम जून-जुलाई के माह में किया जाता है। ऐसा देखा गया है कि इस समय रोपण करने से पौधे का आकार बड़ा हो जाता है और उस में विषाणु और कवक जनित रोगों के प्रकोप की अधिक संभावना होती है, इसलिए उत्तरी भारत के जिन इलाकों में पाले की आशंका न हो, वहां सितंबर-अक्तूबर माह में पौध रोपण किया जा सकता है।
फरवरी-मार्च माह में इस का रोपण करना अच्छा रहता है। इस के लिए पॉलीहाउस में जनवरी-फरवरी माह में पौध तैयार की जाती है। लेकिन इस समय पौध रोपण पर प्रति पौध 4-5 किलोग्राम उपज प्राप्त होती है।
पौध व्यवस्था
पपीते में प्रायः नर एवं मादा पौधे उत्पन्न होते हैं। अभी तक पौधशाला में इन की पहचान करना संभव नहीं हो पाया है। अनुभव के आधार पर ऐसा देखा गया है कि पौधशाला में स्वस्थ एवं ओजस्वी पौधा नर व कमजोर पौधा मादा होता है, लेकिन बागवान स्वस्थ पौधे खरीदने के लिए ही लालायित रहते हैं। इन में से अधिकतर पौध नर निकल आते हैं। अक्तूबर माह में रोपित पौधों में मार्च-अप्रैल माह में फूल आने शुरू हो जाते हैं।
नर पौधों में छोटे-छोटे फूल लटकते हुए गुच्छों में आते हैं। मादा फूल मोटे पर्णवृत युक्त पत्तियों में आते हैं। उभयलिंगी फूल दोनों के बीच के होते हैं, नर पौधे का पता लगते ही उसे निकाल देना चाहिए, केवल 10 फीसदी स्वस्थ नर पौधे, जो चारों ओर समान रूप से वितरित हो, को ही छोड़ना चाहिए।
इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए प्रत्येक गड्ढे में 2 पौध लगाते हैं। यदि एक नर निकलता है, तो उसे फूल आने की अवस्था में ही हटा देना चाहिए। यदि किसी स्थान पर दोनों मादा पौधे हों, तो मिट्टी की पिंडी के साथ सावधानीपूर्वक खोद कर दूसरी जगह पर लगा देना चाहिए।
इस प्रकार पौध व्यवस्था से बचने के लिए पूसा डेलीशियस, कुर्ग, हनी ड्यू व पूसा मैजेस्टी किस्मों को उगाना चाहिए। इन से जो भी पौधे उगते हैं, वे मादा या उभयलिंगी होते हैं इस के सभी पौधों पर फल लगते हैं।
ऐसे करें सिंचाई
जाड़े में 10-15 दिन पर एवं गरमियों में 7-8 दिनों के बाद हलकी सिंचाई करें। पौधे के चारों तरफ मिट्टी चढ़ा कर थाला बना देना चाहिए और उस के चारों ओर हलकी सिचाई इस प्रकार करें कि पानी सीधा तने के संपर्क में न आने पाए।
पपीते के पौधों में पुआल अवरोध परत का प्रयोग करना चाहिए। इसके पौधों से टपक सिंचाई द्वारा उपा गुणवत्तायुक्त उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
निराई-गुड़ाई
बरसात शुरू होने से पहले ही प्रत्येक पौधे के चारों ओर 20-25 सेंटीमीटर ऊंची मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए और समयानुसार निराई-गुड़ाई कर के खरपतवारों को नियंत्रित रखना चाहिए।
अंतराशस्य
पपीते की फसल में सहउपज के रूप में लेग्यूमिनस फसलें जैसे मटर, मेथी, चना, सोयाबीन आदि की फसल ली जा सकती हैं।
बाड़ लगाना
पपीता का पौधा कोमल होता है और तेज हवा एवं गरम हवा से फलत पर बुरा असर पड़ता है। इसलिए उचित होगा कि रोपने के पहले जून माह में खेत के चारों ओर नाली बना कर जैत अथवा सुबबूल के बीज की बुआई कर दी जाए।
इस की 2-3 बार कटाई कर देने से खेत के चारों तरफ घनी बाड़ तैयार हो जाती है, जो प्रतिकूल मौसम के अलावा जानवरों एवं चोरों से भी फसल की सुरक्षा करती है।
मिट्टी चढ़ाना
पपीते में मिट्टी चढ़ाना बहुत ही महत्त्वपूर्ण काम है। वर्षा आने से पहले तने पर 30 सैंटीमीटर तक मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। ऐसा करने से पौधा एवं तना विगलन रोग से बचाव हो जाता है और साथ ही, उपज भी अधिक मिलती है।
फलों का विरलीकरण
कभी-कभी प्रत्येक पत्ती कक्ष से 2-3 फलों की सैटिंग हो जाती है। ऐसी अवस्था में पौधों पर फलों की अधिक संख्या होने के कारण फल का आकार छोटा हो जाता है। इसके लिए उचित यही होगा कि हाथ से इन का विरलन कर के प्रत्येक कक्ष में एक ही फल रहने दिया जाए, ताकि फल का पूरी तरह से विकास हो सके।
फलों की तुड़ाई
पपीता का फल जब पूरी तरह पक जाए और जब फल का अग्रस्थ भाग हरे रंग से पीला होने लगे, तो उन्हें तोड़ लेना चाहिए। इसके फलों को कृत्रिम रूप से पकाना लाभकारी होता है।
उपज
पपीता एक ही साल में तैयार होने वाली फसल है। यदि इसके बाग की उचित देखभाल की जाए, तो प्रति पौधा 40-50 किलोग्राम तक फल मिलते हैं और प्रति हेक्टेयर 40-50 हजार रुपए की आमदनी हो जाती है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।