
बेहतर आय के लिए आड़ू का उत्पादन Publish Date : 28/03/2025
बेहतर आय के लिए आड़ू का उत्पादन
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
भारत में आड़ू, जिसका वैज्ञानिक नाम प्रूनस पर्सिका है, एक लोकप्रिय फल है, देश में आड़ू की खेती मुख्य रूप से पर्वतीय एवं उप-पर्वतीय क्षेत्रों में बहुतायत से की जाती है। आड़ू रोजेसी परिवार का सदस्य है। आड़ू अपने स्वादिष्ट फलों के कारण पूरी दुनिया में प्रसिद्व है। आड़ू में प्रोटीन, शर्करा, खनिज और विटामिन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं जिसके चलते यह पोषण का एक अत उत्तम स्रोत होता है। आड़ू के ताजे फलों का तो सेवन किया ही जाता है, इसके साथ ही इसका जैम, स्क्वैश, शरबत आदि के साथ ही अन्य प्रसंस्कृत पदार्थो के बनाने में भी उपयोग किया जाता है। यदि वैज्ञानिक विधि से आड़ू की खेती की जाए तो किसानों के लिए यह एक काफी लाभकारी फल की फसल हो सकती है।
आड़ू की खेती के लिए आवश्यक मृदा एवं जलवायु
आड़ू की खेती के लिए दोमट एवं बलुई दोमट मृदा को उत्तम माना जाता है। मृदा का पी.एच.. मान 5.5 से 6.8 के बीच और इसकी गहराई 2.5 से 3 मीटर तक की होनी चाहिए। आड़ू की खेती करने के लिए जल निकास की उचित व्यवस्था का होना बहुत जरूरी है, क्योंकि अतिरिक्त जल भराव आड़ू के पौधों की जड़ों को हानि पहुँचा सकता है।
आड़ू की खेती के लिए गर्म और ठंड़ी दोनों ही प्रकार की जलवायु की आवश्यकता होती है। आड़ू को निष्क्रिय अवस्था में जाने और अच्छे फलन के लिए कुछ समय के लिए 7 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान की आवश्यकता होती है। आड़ू के लिए अधिक तापमान इसके फलों की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकता है अतः इसे समशीतोष्ण जलवायु में उगाना ही बेहतर रहता है।
आड़ू की उन्नत किस्में
भारत में आड़ू की विभिन्न किस्मों को उगाया जाता है जिनमें प्रमुख रूप से शामिल है-
शान-ए-पंजाब, प्रताप, खुर्मानी, फ्लोरिडा किंग, ट्रॉपिक स्नो और ताहती आदि। साथ क्षेत्र के अनुसार उपयुक्त मृदा एवं जलवायु के अनुसार आड़ू की विभिन्न प्रातियों का चयन किया जाता है।
आड़ू का प्रसार
आड़ू के प्रसार करने की विधियों में बीज के माध्यम और वेजेटेटिव विधियों (ग्राफ्टिंग एवं ब्रांडिंग) के माध्यम किया जाता है। आड़ू के व्यवसायिक उत्पादन के लिए वेजेटेटिव प्रसार को ही प्राथमिकता दी जाती है।
रूटस्टॉक उगाना
- ग्राफ्टिंग के लिए रूटस्टॉक उगाने के लिए जंगली आड़ू के बीजों के द्वारा उगाया जाता है।
- आड़ू के बीज को 4-10 डिग्री सेल्सियस तापमान पर 10 से 12 सप्ताह तक नम बालू में रखा जाता है, जिससे कि वह परतबद्व हो सकें।
- अंकुरण का प्रतिशत बढ़ाने के लिए थायोयूरिया (5 ग्राम/लीटर पानी) या जीए-3 (200 मिलीग्राम/लीटर पानी) की दर से आड़ू का बीजोपचार करना उचित रहता है।
- नर्सरी में आड़ू की बुवाई अक्टूबर-नवंबर माह के दौरान की जाती है।
- आड़ू के बीज को 5 से.मी. गहरे और 15 से.मी. की दूरी पर एक पंक्ति में बोया जाता है, और बुवाई के बाद हल्की सिंचाई की जाती है।
ग्राफ्टिंग विधि से-
- आड़ू की ग्राफ्टिंग नवंबर और दिसम्बर के माह में की जाती है।
- व्यवसायिक रूप से टंग ग्राफ्टिंग और क्लेफ/वेज ग्राफ्टिंग सबसे प्रभावी पाई गई है।
खेत की तैयारी एवं रोपण
- आड़ू की खेती करने के लिए खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए और इसके बाद 2-3 बार आड़ी-तिरछी जुताई कर खेत को समतल बना लेना चाहिए। आड़ू के थालें 4.5 ग 4.5 मीटर की दूरी पर खोदने चाहिए।
- थालों का आकार 0.75 ग 0.75 मीटर रखना उचित रहता है।
- इसके बाद 15-20 कि.ग्रा. गोबर की खाद, 100 ग्राम यूरिया, 100 ग्राम मॉप, 300 ग्राम एमएसपी, 50 ग्राम क्लोरपायरीफॉस प्रति थाले की दर से डालना चाहिए।
- आड़ू के रोपण का उपयुक्त समय सर्दियों का निष्क्रिय मौसम अथवा मानसून के प्रारम्भ का समय माना जाता है।
सिंचाई और खाद प्रबन्धन
- आड़ू के पौधों की प्राथमिक अवस्था में नियमित रूप से सिंचाई की जानी आवश्यक है।
- गर्मियों के मौसम में 15 से 20 दिनों के अंतराल पर आड़ू की सिंचाई करना आवश्यक होता है।
- आड़ू के पौधों में 100 ग्राम नाइट्रोजन, 200-250 ग्राम फॉस्फोस और 80-100 ग्राम पोटाश प्रति पेड़ प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए।
- आड़ू में जैविक खाद का प्रयोग करने से इसके फलों की गुणवत्ता बढ़ती है।
आड़ू में प्रमुख कीट और रोग का नियंत्रण
आड़ू का एफिडः आड़ू का यह कीट पौधों के रस को चूसकर उन्हें कमजोर बनाता है। इस कीट की रोकथाम करने के लिए डाईमेथोएट (1.5 मि.ली./लीटर पानी) का घोल बनाकर इसका छिड़काव करें।
तना बोररः यह कीट आड़ू के पेड़ के तनों में छेद बनाकर उन्हें नुकसान पहुँचाता है। कीट की रोकथाम के लिए प्रभावित शाखाओं को देना चाहिए और कीट द्वारा बनाए गए छिद्रों मेें पेट्रोल में डूबी हुइ्र रूई को भर देना चाहिए।
बैक्टीरियल गम्मोसिसः इस रोग में आड़ू के पेड़ के तनों पर गोंद के जैसा पदार्थ निकलता है। रोग की रोकथाम के लिए बोर्डो मिक्सचर (एक प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए।
पत्ते मोड़ने वाला वायरसः इस वायरस के कारण आड़ू की पत्यिां सिकुड़कर विकृत हो जाती हैं। इस वायरस की रोकथाम हेतु डाइथेन जेड-78 (200 ग्राम मात्रा को 100 लीटर पानी में मिलाकर) की दर से छिड़काव करना उचित रहता है।
फसल की तुड़ाई एवं उसका भण्ड़ारण
- आड़ू के फलों की तुड़ाई अप्रैल से मई माह के दौरान की जाती है।
- जब फलों का रंग बदल जाए और उसका गूदा भी नरम हो जाने के बाद ही फलों की तुड़ाई करनी चाहिए।
- फलों की तुड़ाई करने के बाद उनका भण्ड़ारण सामान्य तापमान पर ही किया जाता है।
- आड़ू के विभिन्न उपयोगों में जैम, स्क्वैश, शरबत और वाइन बनाने आदि में किया जाता है।
आड़ू की खेती एक सुनियाजित प्रक्रिया के अंतर्गत की जाती है जिसमें उचित मृदा, जलवायु, उन्नत किस्में, उपयुक्त ग्राफ्टिंग तकनीक और कीट एवं रोगों के नियंत्रण प् ध्यान देना आवश्यक है। वैज्ञानिक विधियों को अपनाकर किसान आड़ू की अधिकतम पैदावार प्राप्त कर सकते हैं और इसे एक लाभदायक व्यवसाय बनाकर बेंहतर मुनाफा कमा सकते हैं।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।