गुमसुम बचपन Publish Date : 09/07/2025
गुमसुम बचपन (कविता)
अब खुद ही गिर जाओ तुम, टूट कर जमीं पर ।
पत्थर मारने वाला बचपन, मोबाइल मे व्यस्त है।।
अच्छी थी, पगडंडी अपनी।
सड़कों पर तो, जाम बहुत है।।
फुर्र हो गई फुर्सत, अब तो।
सबके पास, काम बहुत है।।
नहीं जरूरत, बूढ़ों की अब।
हर बच्चा, बुद्धिमान बहुत है।।
उजड़ गए, सब बाग बगीचे।
दो गमलों में ही शान बहुत है।।
मट्ठा, दही, नहीं खाते हैं अब।
कहते हैं, ज़ुकाम बहुत है।।
पीते हैं, जब चाय, तब कहीं।
कहते हैं, इसमें आराम बहुत है।।
बंद हो गई, चिट्ठी, पत्री।
व्हाट्सएप पर, पैगाम बहुत है।।
आदी हैं, ए.सी. के इतने।
कहते बाहर, घाम बहुत है।।
झुके-झुके हैं, स्कूली बच्चे।
बस्तों में, सामान बहुत है।।
नही बचे, कोई सगे सम्बन्धी।
अब तो अकड़, ऐंठ और अहसान बहुत है।।
सुविधाओं का, ढेर लगा है।
पर वास्तव में इंसान, परेशान बहुत है।।