
जल: दुरुपयोग जनित दुर्लभता Publish Date : 22/05/2025
जल: दुरुपयोग जनित दुर्लभता
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु
विश्व की लगभग 400 करोड़ जनसंख्या भौतिक रूप से जल-दुर्लभ क्षेत्रों में रह रही है और 84.4 करोड़ लोगों को अपने घर के निकट स्वच्छ जल का स्रोत उपलब्ध नहीं है। वैश्विक स्तर पर जल संकट गहराता जा रहा है, इसके बावजूद वैश्विक स्तर पर आज से 100 वर्ष पहले उपभोग किए गए जल से लगभग 6 गुना जल उपभोग किया जा रहा है, जो जनसंख्या की तीव्र वृद्धि, बढ़ते शहरीकरण एवं औद्योगीकरण, खान-पान की आदतों में परिवर्तन एवं उपभोग आदतों में आए परिवर्तनों का परिणाम है। स्थिति इस सीमा तक भयावह है कि यदि विश्व में उपलब्ध समस्त जल को एक बाल्टी में भर लिया जाए, तो उसमें से केवल चाय के प्याले के बराबर ही ताजा जल उपलब्ध होगा और उसमें से भी मात्र एक चम्मच जल ही हमें अपने उपभोग के लिए प्राप्त हो सकेगा (ताजे पानी की झीलों नदियों एवं भूमिगत जल स्रोतों से)।
सैद्धान्तिक रूप से इतना जल ही सारे विश्व के लोगों की दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, लेकिन पीने, भोजन पकाने नहाने-धोने एवं अन्य दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ताजे एवं स्वच्छ जल तक आपकी पहुँच कितनी है यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कौन हैं और कहाँ रह रहे हैं। ऐसे ही अनेक ज्वलंत प्रश्नों का उत्तर खोजती वैश्विक गैर लाभकारी संगठन-वाटर एड द्वारा विश्व जल दिवस (22 मार्च, 2019) के अवसर पर जारी रिपोर्ट ‘बिनीच द सर्फेस दी स्टेट ऑफ दी वर्ल्ड वाटर, 2019‘ ‘रिपोर्ट सुस्पष्ट शब्दों में चेतावनी दे रही है कि विश्व जल संकट रूप ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा है। यदि देशों की सरकारों ने अपने-अपने स्तर पर अथवा सामूहिक स्तर पर कोई सकारात्मक पहल नहीं की तो विश्व की बहुत बड़ी जनसंख्या के समक्ष जीवित रहने का संकट ही उत्पन्न हो जाएगा।
विश्व में जल दुर्लभता
नीति निर्माताओं, सत्तासीन राजनीतिज्ञों एवं पर्यावरणविदों के लिए इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि वैश्विक स्तर पर 9 में से. 1 व्यक्ति के घर के पास स्वच्छ जल का कोई स्रोत नहीं है। भारत भी गम्भीर जल संकट के दौर से गुजर रहा है, जहाँ लगभग 100 करोड़ लोग वर्ष में कम-से-कम एक बार जल की कमी से प्रभावित होते हैं। लगभग 60 करोड़ लोग उच्च से अत्यधिक जल तनाव वाले क्षेत्रों में रह रहे हैं। जल दुर्लभता दो रूपों में विद्यमान है-
(i) जल की भौतिक दुर्लभता का अर्थ है कि लोगों को उनके घरों के आस-पास पर्याप्त जल उपलब्ध न होना।
(ii) जल की सामाजिक-आर्थिक दुर्लभता से आशय यह है कि स्वच्छ एवं ताजा जल तो उपलब्ध है, लेकिन अपर्याप्त निवेश एवं राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी की वजह से यह लोगों को उनकी आवश्यकता के अनुरूप उपलब्ध नहीं हो पाता है।
यदि राष्ट्र की जल सम्पदा एवं जल निर्धनता का मापन किया जाए केवल पीने योग्य जल तक पहुँच के रूप में नहीं, बल्कि जल सघन खाद्य पदार्थों, वस्त्रों एवं कपड़ों तथा अन्य उत्पादों के रूप में तो तथाकथित ‘आभासी जल’ जिसका प्रयोग फसलों को उगाने तथा मानव उपयोग की लगभग प्रत्येक वस्तु के उत्पादन में प्रयुक्त किया जाता है., की उपलब्धता में व्याप्त विषमता अधिक गम्भीर हो जाती है। धनाढ्य राष्ट्र विकासशील एवं निर्धन राष्ट्रों से जल सघन वस्तुओं को बड़े पैमाने पर आयात करने में सक्षम है। इससे निर्यातक निर्धन देशों की आर्थिक संवृद्धि में तो सुधार होता है, लेकिन उनमें जल स्रोतों के अति दोहन के चलते जल संकट गम्भीर से गम्भीरतम् होता जाता है।
यदि सम्पोषणीय रूप से उत्पादन तन्त्र का रूपान्तरण नहीं किया जाता तो विश्व के निर्धनतम राष्ट्र अपनी आर्थिक विकास दर में तेजी लाने के लिए निर्यात हेतु जल सघन उत्पादों का उत्पादन करते रहेंगे, भले ही उनकी स्वयं की जनता को अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए यथोचित मात्रा में स्वच्छ एवं ताजा जल उपलब्ध न हो। इसका सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों पर पड़ेगा, विशेष तौर पर शारीरिक दृष्टि से अक्षम या कमजोर लोगों पर या फिर जिनके ऊपर परिवार के अन्य लोगों बच्चों एवं वृद्धों/बीमारों की देखभाल करने का दायित्व है।
जल दुर्लभता का प्रभाव
जल दुर्लभता से जुड़ी अनेक विडम्बनाओं की ओर वाटर एण्ड की 2019 की रिपोर्ट संकेत करती है- विश्व की लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या एशिया एवं मध्यपूर्व में निवास करती है, लेकिन इसकी पहुँच विश्व के वर्षा जल के एक-तिहाई भाग तक ही है।
दक्षिणी अमरीका में विश्व की मात्र 6 प्रतिशत जनसंख्या रहती है. लेकिन विश्व के कुल वर्षा जल का लगभग 25 प्रतिशत इस क्षेत्र के लोगों को प्राप्त होता है।
इसी प्रकार की विषमताएं विभिन्न देशों के भीतर भी देखने को मिलती हैं, उदाहरणार्थ भारत के गुजरात, महाराष्ट्र, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश/मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड के कुछ भाग प्रतिवर्ष सूखे से प्रभावित होते हैं।
जल की उपलब्धता राष्ट्रों एवं व्यक्तियों पर प्रभाव डालती है और उनकी सम्पत्ति से प्रभावित भी होती है। इसके कारण निर्धन एवं हाशिये पर खड़े लोग एक कुचक्र में फंसे रहते हैं. व्यक्तियों और परिवारों को स्वच्छ एवं ताजा जल यथोचित यात्रा में उपलब्ध न हो पाने के कारण वे या तो कमजोर और बीमार रहते हैं या स्वच्छ जल संग्रहण हेतु घण्टों अपना श्रम खपाते हैं, जिसे अन्य आय अर्जन स्रोतों में लगाया जा सकता है।
शासनतन्त्र की एक जीवन्त वास्तविकता है कि समाज के निर्धन समुदाय राजनीतिक प्रभाव के बिना अधिकारियों एवं उपयोगिता कम्पनियों को स्वच्छ पेयजल मुहैया करने के लिए राजी नहीं कर पाते, इसके विपरीत साधन सम्पन्न समुदायों को स्वच्छ जल आसानी से उपलब्ध करा दिया जाता है। भारत जैसे विकासशील देशों के शहरी क्षेत्रों में साधन सम्पन्न परिवारों में सबमर्सीविल पम्प लगा लेना अब एक आम बात हो गई है।
‘आभासी जल’ द्वारा जल सम्पत्ति एवं निर्धनता को परिभाषित करना ‘आभासी जल’ वह जल है जिसका प्रयोग खाद्य पदार्थों-अनाजों, दलहनों, तिलहनों, फलों, सब्जियों आदि को उगाने, गन्ना कपास-पटसन आदि कच्चे माल को उगाने, अनेक औद्योगिक कारखानों को चलाने के लिए प्रयुक्त करते हुए इन पदार्थों का निर्यात किया जाता है। किसी उत्पाद के सृजन हेतु जितने जल की आवश्यकता होती है उसे उसका ‘जल फुटप्रिन्ट’ कहा जाता है। उदाहरण के तौर पर प्रातःकाल एक कप कॉफी तैयार करने के लिए मात्र 125 मिलीलीटर जल की ही आवश्यकता दिखाई देती है, लेकिन इसमें प्रयुक्त कॉफी के दानों को उगाने के लिए कॉफी के पेड़ों की सिंचाई दानों के प्रसंस्करण आदि के लिए लगभग 1000 गुना (लगभग 132 लिटर) जल खर्च होता है। इसी प्रकार नहाने धोने एवं अन्य दैनिक कार्य करने के लिए भौतिक रूप से जितना जल खर्च होता है, ‘आभासी जल’ की मात्रा उससे कई गुना अधिक होती है।
वाटर एड की उक्त रिपोर्ट के अनुसार यूनाइटेड किंगडम में जल की भौतिक मात्रा में यदि विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में प्रयुक्त किए जाने वाले जल की मात्रा को भी जोड़ लिया जाए, तो यह मात्रा 75 अरब घनमीटर (3400 लिटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन) हो जाती है। पीने, भोजन पकाने, कपड़े धोने, शौचालय को फ्लश करने जैसी नैतिक क्रियाओं में कुल जल उपभोग का छोटा-सा भाग ही प्रतिदिन प्रति व्यक्ति खर्च हो पाता है। यूनाइटेड किंगडम प्रतिवर्ष अपना 75 प्रतिशत ‘आभासी जल’ अन्य देशों से आयात करता है। यह अनुपात जल दुर्लभता एवं जल की लवणीयता को दूर करने की निर्भरता वाले संयुक्त अरब अमीरात की कुल जल माँग के समतुल्य है।
वैश्विक व्यापार में ‘आभासी जल’ का योगदान एक मोटे अनुमान के अनुसार वैश्विक स्तर पर लगभग 22 प्रतिशत जल का प्रयोग निर्यात हेतु वस्तुओं के उत्पादन पर खर्च होता है। इससे भले ही निर्यातक देशों को विदेशी मुद्रा प्राप्त होती हो, उनकी राष्ट्रीय आय और तद्नुसार प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती हो, लेकिन इससे जहाँ निर्यातक देशों के जल संसाधनों का अति-दोहन होता है, वहीं आयातक देशों में जल की अपेक्षाकृत कम मात्रा खर्च होती है क्योंकि यहाँ के लोगों को विदेशों से आयातित भोजन एवं कपड़े आदि सस्ते मूल्य पर प्राप्त होते हैं।
जल फुट फ्रन्ट
किसी भी मद का जल फुट फ्रन्ट तीन विभिन्न प्रकार के जल से मिलकर निर्धारित होता है.
(i) ‘हरित’ जल मृदा में मौजूद नमी।
(ii) ‘नील’ जल-झीलों, नदियों एवं भूमि के नीचे से जल निकालकर सिंचाई हेतु प्रयुक्त किया जाने वाला जल।
(iii) मटमैला (Grey) जल-उत्पादन प्रक्रिया में उत्पन्न प्रदूषकों को तनु (कमजोर) बनाने के लिए आवश्यक जल।
वर्षाधीन फसलें मोटे तौर पर घरेलू या उद्योगों से उनके लिए आवश्यक या उपलब्ध जल के मामले में प्रतिस्पर्द्धा नहीं करती, लेकिन कम वर्षा के कारण सूखा आदि पड़ने पर कम उपज और अन्ततः कृषकों के लिए नीची आय के रूप में परिलक्षित होती है। सिंचाई के लिए नील जल उन्हीं स्रोतों से आता है, जहाँ से घरेलू उपयोग हेतु आता है। माँग अधिक और आपूर्ति कम होने पर जल संकट उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
आभासी जल के स्रोत
एक आदर्श बाजार व्यवस्था तो यह हो सकती है जहाँ आभासी जल व्यापार के द्वारा जल उपलब्धता और जल की माँग के बीच सन्तुलन स्थापित हो. अर्थात् जिन देशों में जल की बेशी (Surplus) मात्रा उपलब्ध की जाए, जिनके लिए जल की आवश्यकता अधिक आवश्यक होती है, ऐसी फसलों को जल दुर्लभता (Scarcity) वाले देशों को निर्यात किया जाए, लेकिन विगत् दो शताब्दियों के दौरान अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की प्रकृति इस प्रकार की रही है कि जल दुर्लभता बाले देशों से ही वस्तुओं का निर्यात बेशी जल वाले देशों को किया गया है। गंगा यमुना के दोआबे से प्राकृतिक वर्षा से 50 गुना अधिक जल उपभोग किया गया है। वैश्विक स्तर में भूमि के नीचे के जल स्तर में वर्ष 2000 से 2010 के बीच की अवधि में 22 प्रतिशत से अधिक की गिरावट हुई है। इस गिरावट में निम्न फसलों की भूमिका सर्वाधिक रही है-
गेहूँ- भूमिगत जल में कमी लाने में गेहूँ की फसल का हिस्सा 22 प्रतिशत का है। गेहूँ का वैश्विक औसत फुट प्रिन्ट 1827 लिटर प्रति किलोग्राम है।
चावल- वैश्विक सिंचाई जल का 40 प्रतिशत खपत करता है। वैश्विक भूमिगत जल हास में चावल का हिस्सा 17 प्रतिशत एवं वैश्विक औसत जल फुट प्रिन्ट 2500 लिटर प्रति किलोग्राम है।
शतावरी साग (Asparagus)- 2150 लिटर औसत जल फुट प्रिन्ट प्रति किलोग्राम के साथ इसे प्यासी सब्जी कहा जाता है, यह देश के ऐसे क्षेत्रों में उगाई जाती है जहाँ औसत वार्षिक वर्षा मात्र 2-5 सेमी ही है।
रुचिरा (Avacado)- इसका औसत जल फुट प्रिन्ट 2000 लिटर प्रति किलोग्राम है। इसे चिली के मरूस्थलीय क्षेत्र पेटोका में उगाया जाता है। एक हेक्टर रुचिरा उगाने के लिए 100000 लिटर जल की आवश्यकता प्रतिदिन होती है। क्षेत्रों पर दो दिन भारी गोलाबारी की, जिससे वहाँ के निवासियों को दूसरे सुरक्षित स्थान पर ले जाना पड़ता है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।