
विभिन्न भू परिस्थितियों में भूमि एवं जल संरक्षण की समस्या और समाधान Publish Date : 17/05/2025
विभिन्न भू परिस्थितियों में भूमि एवं जल संरक्षण की समस्या और समाधान
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता
राज्यों में प्राकृतिक संसाधनों के अंतर्गत भूमि जल एवं वन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं किन्तु वर्तमान में भूमि क्षरण की समस्या के साथ-साथ अपधावन एवं वनों के विनाश की भी विकराल समस्या है। वर्षा काल में अधिकांश जल नदी नालों के माध्यम से बह जाता है एवं रबी मौसम में फसलोत्पादन में खण्ड वर्षा के कारण धान एवं अन्य फसलें प्रभावित होती हैं। इस कारण कृषकों को अच्छा फसलोत्पादन प्राप्त नहीं हो पाता है, व उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर होती है।
इन समस्याओं को देखते हुए कृषक अपना पुश्तैनी धन्धा छोड़कर मजदूरी के लिए शहरों की ओर पलायन करते हैं। इसके अलावा अनेक प्रकार की सामाजिक बुराईयां पनपती जा रही है। अतः प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में रहने वाली जनसंख्या की सामाजिक आर्थिक स्थिति में सुधार हेतु प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन एवं दोहन की नितांत आवश्यकता है।
प्राकृतिक संसाधनों के अंतर्गत सर्वप्रथम भूमि एवं जल संरक्षण की आवश्यकता है। वर्षा के मौसम में सैकड़ों टन उपजाऊ मिट्टी प्रति हैक्टेयर क्षरण के माध्यम से बहकर नष्ट हो जाती है, जिससे खेतों की उर्वराशक्ति नष्ट होने के साथ-साथ तालाबों में सिल्टेशन को समस्या बढ़ती जा रही है। औसतन 1400 एम.एम. वर्षा होने के बावजूद खरीफ एवं रबी मौसम में सूखे की स्थिति बनी रहती है। अतः इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए द्विफसलीय क्षेत्र में वृद्धि के लिए भूमि एवं जल संरक्षण कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की जरूरत है।
अधिकांश क्षेत्र में वर्षा आधारित खेती होती है। प्राकृतिक जल की एक एक बूंद का खेती में महत्व होती है। भूमि का सामर्थ, उनकी दशा, ढलान मृदा स्थिति, जलवायु स्थानीय स्थितियों पर निर्भर करता है एवं उनके अनुरूप ही भूमि एवं जल संरक्षण के उपाय एवं फसल पद्धतियों का चुनाव किया जाना चाहिए।
भूमि के सामर्थ्य अनुसार फसल का चयन: वनस्पति विहीन पद्धतियों पर जलाऊ चारा एवं फल, वृक्ष का रोपण स्थानीय परिस्थिति एवं अनुभव के आधार पर करना चाहिए। मरहान एवं टिकरा भूमि पर दलहन, ज्वार, बाजरा, मक्का, सोयाबीत, हल्दी, कोचाई आदि फसलों को स्थानीय भूमि को देखते हुए करना चाहिए। फसलों की कतार ढाल के विपरीत दिशा में होना चाहिए।
डोगरीः छत्तीसगढ़ में डोगरी उपरी भाग में स्थित जमीनों की जलोड जाती के लिए उत्कृष्ट है। वर्तमान में परिस्थिति को देखते हुए इनमें काजू, अमरूद जैसे कंद फलदार पौधों का भी रोपण की जा सकती है। इन जगहों पर भू-संरक्षण एवं जल संरक्षण हेतु संबंध एवं असंबंध खन्तियों का निर्माण करें एवं अत्यधिक पानी की डाइवर्सन नाली मरहान में बतायें गए रिसन तालाबों में संरक्षित करें।
भाटा भर्ती/मरहान/टिकराः यह क्षेत्र विशेष मृदाक्षरण से ग्रसित रहता है। जिसके वजह से यहां अच्छी फसल नहीं उगा पाते। इन क्षेत्रों में ऊपरी भाग से आने वाले अतिरिक्त बहाव मिलता है। क्योंकि मानसून में अनियमित ढंग से 50 प्रतिशत बारिश खण्डों में (छितरी हुई) में होती है। इस भारी बारिश में प्राप्त अतिरिक्त बहाव जल की खेती में संग्रहित करना प्रायः असंभव है।
अतः जल को नियंत्रित कर उसे सुरक्षित तरीके से संरक्षित कर लेना सबसे महत्वपूर्ण होता है। यदि इन क्षेत्रों में उपयुक्त जगह मिले तो छोटे-छोटे सतही तालाबों का निर्माण करें। इसके साथ-साथ सतही भाग में मृदा एवं जल संरक्षण के तरीके भी अपनायें। छोटी गलीयों की पथरी में बांध एवं कंटूर खेतों का निर्माण करें। असंबंध खन्ती की चौड़ाई 1 मी. नीचे 0.75 मी. तथा गहराई 0.5 मी. रखें। कम से कम इसकी लम्बाई 3 मी. रखें।
ढलान के दिशा में मिट्टी की 0.3 मी. की दूरी में रखवायें। वैसी ही संबंध खेती की आकार (0.75-0.5)/2×0.5 मी. तथा 30 से 40 मी. दूरी पर उसे असंबंध के रूप में लाये। हर 5 से 10 मीटर की दूरी पर मेढ़ छोड़े। यह जल के संरक्षण के साथ-साथ भूमि के कटाव को भी रोकता है। जिससे नीचे बने परकोलेशन टेंकों की मिट्टी से भर जाने की आशंका भी कम हो जाती है। इस प्रकार की डबरी में से नीचे वाले खेतों को पानी मिलता है जिससे धान या कोई भी फसल में सूखे की स्थिति नहीं आती है।
इन डबरियों के पानी रिसन होने से नीचे वाले खेतो में कुओं का निर्माण भी किया जा सकता है। परन्तु कई क्षेत्र में कहीं कहीं ठोस भू सतह की वजह से कुओं का रिचार्जिंग नहीं हो पाता है। उन जगहों पर छोटी डबरी दूसरी सफलता बन सकती हैं। 10×10×2 मी. की रिसन तालाबों का निर्माण कर वर्षा जल का उचित दोहन
माल: इन जमीनों पर सतही जल कासंरक्षण एवं भू जल संवर्धन हेतु ढाल के मध्य भाग में कुओं का निर्माण कर सकते हैं। 2×2 विशिष्ट 3 मीटर गहराई वाले कुएं सही पाये गये हैं। यदि रिचार्जिंग नहीं हो पा रहा है तो खेत में जल संग्रहण डबरी निर्माण कर निचले वाले खेतों को फायदा पहुंचाया जा सकता है। माल के निचले जमीनों में छोटे कुएं अक्सर भसकने वाले स्थिति में पट जाते हैं। इन कुओं को लाईनिंग करना अनिवार्य होता है।
गभारः इन जमीनों पर बड़े तालाबों का निर्माण किया जा सकता है। जिससे रबी फसल लेने में आसानी होती है। पेडीटेरेशिंग से भी भूजल का संरक्षण बढ़ाया जा सकता है। इन खेतों पर चारों और 2 मीटर की चौड़ाई एवं 0.3 मी. गहराई के पट्टीनुमा खंती बनाकर मछली पालन कर सकते हैं। खेत के कोने में 10×10×3 मी. के आकार का कुओं का निर्माण भी कर सकते हैं। मेड़ों का सही प्रबंधन कर वर्षा जल को संग्रहण करें। इन मेड़ों पर पेड़ों की सही कटाई कर उन्हें ऊंचे बनाने की कोशिश करें।
जरा सा गौर करने पर भूतल पर होने वाले वह परिवर्तन मस्तिष्क पटल पर उभरने लगते हैं और जल संरक्षण की सफलता की कहानी सामने आ जाती है। इस सफलता की कहानी का अवलोकन निम्नानुसार चित्रांकित किया जा सकता है-
जल संरक्षण के लाभप्रद परिणाम हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं कि वर्षाकाल के पूर्व एवं वर्षा के मौसम में हमें अधिक से अधिक वर्षा जल संग्रहण हेतु उपाय अपनाने पर ध्यान देना चाहिए। जल संरक्षण हेतु जन जागरण, कार्यशालाओं का आयोजन, जल कलश यात्रा, घड़ा दिवस, जल संरक्षण युवा क्लब आदि का गठन एवं बून्द बून्द पानी की बचत, जल उपयोग क्षमता में वृद्धि के उपाय के प्रचार-प्रसार आदि कार्यक्रमों के आयोजन आदि पर ध्यान देने की नितान्त आवश्यकता है।
जन भागीदारी के माध्यम से जल संरक्षण हेतु चलाई जा रही विभिन्न गतिविधियों एवं योजनाओं का अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। वर्तमान में कृषि विभाग के द्वारा एवं पंचायती राज्य व्यवस्था के अन्तर्गत गांव-गांव में जल संरक्षण हेतु वृहद 4 रूप में अनेक कार्यक्रमों का संचालन किया जा रहा है। अतः अब आवश्यकता है कि इन कार्यक्रमों को तकनीकी रूप से अधिक कारगर एवं सक्षम बनाने के लिए कार्य किये जायें। इन कार्यक्रमों के संचालन में जो भी सामाजिक एवं तकनीकी रूप से खामियां हैं उनका निवारण क्रमबद्ध तरीके से किया जाये जिससे कि इनके धनात्मक परिणाम सामने आयें। इसके लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता हैः-
1. वर्षा जल संरक्षण हेतु जन जागरण एवं जन भागीदारी को आवश्यक रूप से सुनिश्चित किया जाये जिससे इस दिशा में एक अभियान की शुरूआत हो सके।
2. सरकार द्वारा अथवा अन्य समस्त विभागों द्वारा चलायी जा रही सरकारी योजनाओं का लाभ उन्हीं कृषकों या संबंधित व्यक्तियों को मिलना चाहिए जिनकी जल संरक्षण हेतु भागीदारी सुनिश्चित हो चुकी हो। ऐसे कृषक जो परोक्ष रूप से जल संरक्षण हेतु रूचि के साथ अपना योगदान दे रहे हैं उन्हें प्रमुखता के आधार पर नयी योजनाओं का लाभ मिलना चाहिए। इस प्रकार जल संरक्षण के अभियान में अधिक से अधिक व्यक्ति जुड़ सकेंगे।
3. वर्षा जल के संग्रहण एवं जल को भूमि के निचले स्तरों में पहुंचाने हेतु उपलब्ध तकनीकी को घर-घर पहुंचाने हेतु सरकार द्वारा योजनाओं का क्रियान्वयन प्रमुखता के आधार पर किया जाये। जिससे प्रत्येक व्यक्ति जल संरक्षण हेतु बाध्य हो सकें एवं इस दिशा में वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके। इस प्रकार जल संरक्षण में आने वाली बाधायें दूर होगी एवं त्वरित गति से इस ओर कार्य प्रारंभ हो सकेंगे।
4. वर्तमान में जल ग्रहण के अंतर्गत एवं अन्य योजनाओं के माध्यम से जल संरक्षण हेतु अनेक कार्य किये जा रहे हैं। इन कार्यों के अंतर्गत रिसन तालाबों का निर्माण, तालाबों एवं डबरियों का निर्माण, सोक पिट, कन्ट्रर ट्रॅच, स्टेगर्ड ट्रेंच, कंटीन्यूअस कन्दूर ट्रेंच आदि अनेक प्रकार की संरचनाओं का निर्माण किया जा रहा है एवं इनके निर्माण में भरपूर सरकारी राशि प्रति वर्ष व्यय की जाती है किन्तु इनके द्वारा आशातीत परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं और न ही सिंचाई के साधनों में वृद्धि होती है।
उपचारित क्षेत्रों में द्विफसलीय क्षेत्र में भी वृद्धि नहीं पायी जाती है। इससे आभास होता है कि उपर्युक्त संरचनाओं का निर्माण तकनीकी आधार पर गलत ढंग से किया जाता है।
सारी योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु खर्च की गई राशि का किंचित मात्र लाभ नहीं मिल पाता है। अतः आवश्यक हो जाता है कि इन कार्यों के करने के पूर्व भू-स्थित का सम्पूर्ण सर्वेक्षण किया जाये एवं सर्वेक्षण दल में विषय विशेषज्ञों को सम्मिलित किया जाए। इन कार्यों के सम्पादन हेतु निर्धारित की गई राशि को व्यय करने हेतु या निर्धारित कार्यक्रम के रूप में उचित स्थल चयन एवं उचित चयनित हितग्रहियों को सम्मिलित करते हुए कार्यों का सम्पादन किया जाए।
5. जल-संरक्षण के लिए उपचारित क्षेत्र में किए गये कार्यों के सकारात्मक पहलुओं का आंकलन आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान के माध्यम से सुनिश्चित किया जाना चाहिए। आर्थिक विश्लेषण के माध्यम से जल संरक्षण की सार्थकता एवं उसकेपरिलक्षण की तीव्रता को आंका जा सकता है।
6. वर्षा जल को एकत्रित करने के तालाब, फार्म पौंड, रिसन तालाबों का निर्माण करने के पूर्व वहां की मिट्टी के गुण धर्मों का अध्ययन करना आवश्यक है। मिट्टी की विभिन्न परतों के गुण धर्मों से पता चलता है कि वहां पानी रूकेगा अथवा नहीं।
7. पूर्ण कोशिश करना चाहिए कि वर्षा जल को उसी स्थान पर संग्रहित करें जहां पर वह गिरता है।
8. उपचारित क्षेत्र में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग जल संरक्षण हेतु करना चाहिए। इससे जल संरक्षण पर होने वाले व्यय में कमी आयेगी। प्राकृतिक संसाधनों के अंतर्गत भूमि जल एवं वनस्पतियों को मान्यता दी गई है। अतः इन संसाधनों में से मिट्टी, भूमि की ऊपरी परत पर पाये जाने वाले पत्थर, बोल्डर्स एवं वनस्पतियों का उपयोग जल संरक्षण हेतु किया जा सकता है।
उपर्युक्त बातों को ध्यान रखते हुए जल संरक्षण के लिए कदम उठाना चाहिए वर्षाकाल के पूर्व एवं वर्षाकाल में जल संरक्षण हेतु चक्रव्यूह अथवा सुनिश्चित कार्ययोजना को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जा सकता है।
जल संरक्षण के उपायों का विस्तृत वर्णनः
उचित कृषि क्रियाओं को अपनाकरः
जल संरक्षण हेतु उचित कृषि क्रियाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। कृषि क्रियाओं के क्रियान्वयन हेतु वर्षा के पूर्व का समय उपयुक्त होता है। इन कृषि कार्यों के अन्तर्गत ग्रीष्मकाल में खेतों की गहरी जुताई, खेतों की मेड़बंदी आदि को अपनाना।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।