
जलवायु परिवर्तन की मार से जूझता भारत का कपास उद्योग Publish Date : 12/10/2025
जलवायु परिवर्तन की मार से जूझता भारत का कपास उद्योग
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं गरिमा शर्मा
“जलवायु परिवर्तन के वर्तमान दौर में संकट में है ‘‘सफेद सोना’’ कपास”
भारत का कपास उद्योग: जलवायु परिवर्तन से जूझती कपास अर्थव्यवस्था के लिए बुनाना होगा मजबूत और टिकाऊ ताना-बाना-
भारत का कपास उद्योग जलवायु परिवर्तन की मार से जूझ रहा है, लेकिन टिकाऊ खेती और नीतिगत कदमों से इसे नया जीवन दिया जा सकता है। छोटे किसानों और कपड़ा उद्योग को बचाने के लिए तुरंत कदम उठाने की जरूरत है।
भारत का कपास, जिसे 'सफेद सोना' कहा जाता है, आज जलवायु परिवर्तन के तूफान में फंस गया है। यह सवाल बना हुआ है कि क्या हम अपने छोटे किसानों और कपड़ा उद्योग को बचा पाएंगे? बाढ़, सूखा, और ग्रीष्म लहरें कपास की खेती को तबाह कर रही हैं, जिससे न सिर्फ किसानों की आजीविका खतरे में है, बल्कि पूरा कपड़ा उद्योग और वैश्विक आपूर्ति शृंखला भी हिल रही है।
लेकिन, यह वक्त हिम्मत हारने का नहीं है। टिकाऊ खेती, स्मार्ट तकनीक और नीतिगत समर्थन के साथ भारत का कपास न सिर्फ बच सकता है, बल्कि और मजबूत होकर उभर सकता है। आइए, इस कहानी को करीब से देखें।
जलवायु का कहर: कपास की खेती पर संकट
पिछले साल विश्व कपास दिवस से पहले एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई थी। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवेलपमेंट और ऑल इंडिया डिजास्टर मिटिगेशन इंस्टीट्यूट की इस रिपोर्ट में बताया गया कि गुजरात और महाराष्ट्र के 50% से ज्यादा कपास किसानों को पिछले पांच सालों में बाढ़ और सूखे की वजह से भारी फसल नुकसान हुआ।
ग्रीष्म लहरें, अनियमित बारिश और विनाशकारी बाढ़ ने कपास की खेती व किसानों को झकझोर कर रख दिया है। छोटे किसान, जो इस उद्योग की रीढ़ हैं, अनिश्चितता के भंवर में फंस गए हैं।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय की भविष्यवाणी और भी डरावनी है। अगर ग्लोबल वॉर्मिंग को नहीं रोका गया, तो वर्ष 2050 तक कपास की पैदावार 11% तक गिर सकती है, और वर्ष 2080 तक यह गिरावट 24% तक पहुंच सकती है। तापमान में 1.85 डिग्री सेल्सियस से 3.95 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी से कपास की प्रति हेक्टेयर पैदावार 268 से 477 किलो तक कम हो सकती है। बारिश पर निर्भर खेती करने वाले किसानों के लिए यह नुकसान 10-15% तक हो सकता है।
इस संकट का असर सिर्फ खेतों तक सीमित नहीं है। पुरुष किसान फसल नुकसान से सीधे आर्थिक तंगी झेल रहे हैं, जबकि महिलाओं पर परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ रहा है— पोषण, बच्चों की पढ़ाई, और घर की सुरक्षा सब दांव पर है।
कपास: भारत की अर्थव्यवस्था का आधार
भारत में 1.3 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर कपास की खेती होती है, जिससे देश दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक बनकर उभरा है। हमारे यहां हर साल 2.95 करोड़ गांठ कपास पैदा होती है, जो वैश्विक उत्पादन का लगभग एक-चौथाई है। कपास सिर्फ फसल नहीं, बल्कि भारत की अर्थव्यवस्था का मजबूत आधार है। कपास पर निर्भर कपड़ा उद्योग देश के जीडीपी में 2.3%, औद्योगिक उत्पादन में 13%, और निर्यात आय में 12% का योगदान देता है।
वर्ष 2024 में, भारतीय कपड़ा और परिधान बाजार 222.08 अरब अमेरिकी डॉलर का था, और वर्ष 2033 तक इसके 646.96 अरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। लेकिन, जलवायु परिवर्तन की मार इस सुनहरे भविष्य को धुंधला कर रही है।
सप्लाई चेन पर मंडराता खतरा
कपास वैश्विक व्यापार का हिस्सा है। कपास की कमी से धागा उत्पादन प्रभावित होता है, जिसका सीधा असर कपड़ा उद्योग पर पड़ता है। भारत में बाढ़ या सूखे की वजह से उत्पादन कम होने का असर सिर्फ यहीं तक नहीं रुकता, बल्कि इसका असर अंतरराष्ट्रीय कीमतों और आपूर्ति श्रृंखला पर भी पड़ता है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2022 में पंजाब में मौसम की मार और कीटों के हमले से कपास की आवक 80% तक गिर गई।
परिणामस्वरूप 82 जिनिंग इकाइयां अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पाईं, और कई इकाइयों को 35-50 लाख रुपये का सालाना नुकसान उठाना पड़ा। यह संकट सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। कॉर्नेल यूनिवर्सिटी और श्रोडर्स की एक स्टडी के मुताबिक, वर्ष 2030 तक गर्मी और बाढ़ की वजह से फैशन सेक्टर को 22% निर्यात आय (लगभग 65.6 अरब डॉलर) का नुकसान हो सकता है। वर्ष 2050 तक यह घाटा 69% तक पहुंच सकता है, और 80-90 लाख नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं।
कपास की जगह प्लास्टिक : पर्यावरण के लिए नई मुसीबत
जलवायु परिवर्तन की वजह से कपास की आपूर्ति में रुकावटें बढ़ रही हैं, और इसका फायदा सिंथेटिक फाइबर को मिल रहा है। वैश्विक फाइबर बाजार में पहले ही 60% हिस्सा सिंथेटिक फाइबर का है, और वर्ष 2030 तक यह 70% तक पहुंच सकता है। लेकिन, यह कोई अच्छी खबर नहीं है। एक पॉलिएस्टर टी-शर्ट बनाने में 5.5 किलो कार्बन डाई-ऑक्साइड उत्सर्जन होता है, जो कपास की टी-शर्ट (2.1 किलो) से ढाई गुना ज्यादा है। कपास को बचाना सिर्फ किसानों और उद्योग के लिए नहीं, बल्कि पर्यावरण के लिए भी जरूरी है।
कपास को जलवायु के अनुरूप ढालने की रणनीति
सॉलिडेरिडाड एशिया में पाम ऑयल कार्यक्रम के सहायक महाप्रबंधक सुमित रॉय और कॉटन कार्यक्रम के सहायक महाप्रबंधक अनुकूल नागी ने अपने अध्ययन में भारत में कपास के टिकाऊ भविष्य को लेकर कई अहम रणनीतियां सुझाई हैं। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रकाशित रिपोर्ट में, इन विशेषज्ञों ने भारत के कपास उद्योग को बचाने के लिए एक ठोस और बहुआयामी रणनीति की जरूरत व्यक्त की है।
उनका कहना है कि सबसे पहले, टिकाऊ खेती को बढ़ावा देना होगा। इंटर-क्रॉपिंग, कवर क्रॉपिंग, हरी खाद, मल्चिंग व कृषि-वानिकी जैसे तरीके मिट्टी को स्वस्थ बना सकते हैं और सूखे से लड़ने में मदद कर सकते हैं।
दूसरा, किसानों के लिए जलवायु बीमा को मजबूत करना होगा। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना जैसे कार्यक्रमों से किसानों को मानसून की विफलता और अन्य जलवायु झटकों से सुरक्षा मिल सकती है। तीसरा, डाटा आधारित तकनीकों जैसे डीएसएसएटी और एपीएसआईएम का इस्तेमाल कर किसानों को सही समय पर सही सलाह दी जा सकती है - कब बोएं, कौन-सी गर्मी-रोधी किस्में चुनें, और कटाई का सही समय क्या हो?
चौथा, स्थानीय संगठनों की मदद से किसानों को सरकारी योजनाओं जैसे प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना और किसान क्रेडिट कार्ड का लाभ दिलाया जा सकता है।
पांचवां, ग्रीन क्लाइमेट फंड और नेशनल अडैप्टेशन फंड जैसे जलवायु वित्त स्रोतों का इस्तेमाल कर अनुकूलन निवेश को बढ़ाया जाए। छठा, जिनिंग इकाइयों को स्थानीय किसानों और कृषि संगठनों के साथ मिलकर काम करना होगा, ताकि मौसम से जुड़े जोखिमों को कम किया जा सके।
साथ ही, कपड़ा इकाइयों को ऐसी बुनियादी सुविधाओं में निवेश करना होगा, जो गर्मी में भी काम करने लायक माहौल बनाए रखें। अंत में, वैश्विक परिधान ब्रांड्स और रिटेलर्स को रीजन एग्री जैसे टिकाऊ कार्यक्रमों में निवेश बढ़ाना होगा, ताकि कपास की पूरी वैल्यू चेन को मजबूत किया जा सके।
भारत की अर्थव्यवस्था और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा
भारत के लिए कपास सिर्फ एक फसल नहीं, बल्कि भारत की अर्थव्यवस्था और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। इसे जलवायु के लिए तैयार करके हम न सिर्फ लाखों किसानों की आजीविका बचा सकते हैं, बल्कि पर्यावरण को भी संरक्षित कर सकते हैं। यह समय है कि हम कपास को एक जलवायु-स्मार्ट फाइबर के रूप में देखें - हर धागे में नई जान, हर खेत में ताकत, और हर कपड़े में जिम्मेदारी।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।