बरानी क्षेत्रों में जल का उचित प्रबन्धन      Publish Date : 10/10/2025

                    बरानी क्षेत्रों में जल का उचित प्रबन्धन

                                                                                                                                                                       प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

बरानी क्षेत्रों में जल का संरक्षण एवं इसका सही उपयोग करना एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारक होता है। इन क्षेत्रों में प्राकृतिक जल ग्रहण क्षेत्रों के समुचित प्रबन्धन एवं पानी के समन्वित रूप से उपयोग को बढ़ावा दिया जाना अत्यंत आवश्यक है। इन क्षेत्रों में यदि प्राकृतिक जल ग्रहण क्षेत्र उपलब्ध नहीं है तो वर्षा का पानी या तो खेत में ही ऊँची मेड़ बनाकर रोका जाना चाहिए या फिर अलग से तालाब इत्यादि बनाकर उसमें जल एकत्र करने की व्यवस्था कर उसका फसलों के वृद्धि एवं विकास के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। वर्षा के पानी को अधिक से अधिक खेत में रोकने से भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ती है और जमीन में अधिकसमय तक नमी बनी रहती है।

पानी के लिए अलग से बने तालाबों आदि में संरक्षण से फसल के लिए जीवनदायी सिंचाई, पशुओं के लिए पानी का उपयोग के साथ ही साथ भूमि जलस्तर में भी बढ़ोत्तरी की जा सकती है। इन क्षेत्रों में दबाव पर आधारित सिंचाई प्रणालियों जैसे ड्रिप सिंचाई, स्प्रिंकलर और अन्य सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों के कार्य निष्पादन का मूल्यांकन किया जा चुका है और यह पाया गया है कि इनसे पानी के कमी वाले क्षेत्रों में सब्जियों तथा बागवानी वाली फसलों की सिंचाई में 20-50 प्रतिशत तक पानी की बचत की जा सकती है। सिंचाई की मेड़ एवं कुड़ प्रणाली अपनाकर कपास और बाजरे जैसी फसलों को उगाकर काफी मात्रा में पानी की बचत की जा सकती है।

आजकल गेहूँ की खेती करने के लिए कुंड़ सिंचित उभरी पट्टी (फस) प्रणाली अपनाने से कम से कम 25 प्रतिशत पानी, 25 प्रतिशत बीज एवं 25 प्रतिशत खाद की बचत की जा सकती है। जिन बरानी क्षेत्रों में बलुई दोमट मिट्टी पायी जाती है, वहाँ वर्षा से पहले जुताई की जानी चाहिए तथा ढलान के विपरीत दिशा में चारों तरफ से ऊँची (लगभग 50 से.मी.) मेड़ बना लेना चाहिए, इससे वर्षा जल जमीन में शीघ्रता से सोख लेता है जिसके फलस्वरूप जल संरक्षण में मदद मिलती है। कम वर्षा वाले क्षेत्र में भी मिट्टी में नमी बनायी रखी जा सकती है। मानसून से पहले गहरी (25 से.मी.) जुताई से जमीन में वर्षा जल का अधिकतम संरक्षण किया जा सकता है। आजकल भारत सरकार की तरफ से भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् द्वारा प्रतिपादित जल आच्छादित कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं जो बरानी क्षेत्रों में काफी उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं।

                                                                  

बरानी क्षेत्रों में सिंचाई का उचित प्रबन्धन वहाँ की उत्पादकता को दुगनी किया जा सकता है। वर्षा जल के संरक्षण की दृष्टि से जल ग्रहण क्षेत्र एक प्राकृतिक जल, वैज्ञानिक इकाई है। जल ग्रहण क्षेत्र के उचित प्रबन्धन से परिस्थितिकीय प्रणाली में गिरावट को रोकने के साथ-साथ खराब हो चुकी जमीन को भी सुधारा जा सकता है। अतः बरानी खेती वाले क्षेत्रों में खेती का तरीका जलग्रहण क्षेत्र के समन्वित प्रबन्धन और कृषि प्रणाली को बढ़ावा देने पर आधारित होना चाहिए।

वर्षा जल का संतुलित दृष्टिकोण

बरानी क्षेत्रों में सिंचाई का एकमात्र साधन आमतौर पर वर्षा जल ही होता है। अतः किसी भी क्षेत्र में पानी की उपलब्धता की अवधि के निर्धारण के लिए कुल वर्षा, इसका वितरण और वाष्पन से होने वाले नुकसान का आकलन आवश्यक है। इन क्षेत्रों में फसलों के लिए पानी की आवश्यकता तभी पूरी हो सकती है जब वर्षा की मात्रा और वाष्पन से होने वाले नुकसान का अनुपात कम से कम 0.33 होता है। इस अनुपात को आर्द्रता की उपलब्धता का सूचकांक कहा जाता है। अतः कृषि की समुचित रणनीति बनाने के लिए वर्षा एवं जमीन की जल-संग्रह क्षमता के आँकड़े बहुत ही उपयोगी साबित हो सकते हैं। इसके आधार पर जमीन में नमी की उपलब्धता सुनिश्चत करते हुए फसल बुवाई के समय का निर्धारण किया जा सकता है। जैसे यदि कहीं औसत वर्षा 760 मि.मि. हो रही है तो बुवाई का समय जमीन में 75 प्रतिशत आर्द्रता स्तर के आधार पर 15-23 सप्ताह हो सकता है। अतः परिस्थितियों के अनुसार फसल एवं इसकी उपयुक्त प्रजाति की बुवाई की जा सकती है।

फसल एवं प्रजाति प्रबन्धन

साधारणतया बरानी क्षेत्रों में दलहनी फसलें जैसे अरहर, चना, मसूर, ग्वार आदि एवं धान्य फसलें जैसे जौ, ज्वार, बाजरा, सांवा, काँदो, मडुआ आदि तथा तिलहनी फसलें जैसे मूंगफली, सरसों, अलसी आदि मुख्य रूप से उगायी जाती हैं। इन फसलों का क्षेत्र उपयुक्त, कम अवधी वाली एवं कम पानी चाहने वालो प्रजातियों का चुनाव करके बोने से प्रति इकाई अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है। फसलों को फसल चक्र के सिद्धान्त के अनुसार अदल-बदल कर बोना, नमी के अनुसार प्रति इकाई क्षेत्रफल पर एक फसल लेना या अन्तर फसली प्रणाली का पालन करना आदि से बरानी इलाकों में प्रति इकाई क्षेत्रफल से अधिक लाभ लिया जा सकता है।

पोषक तत्व एवं खरपतवार प्रबन्धन

बरानी क्षेत्रों में पोषक तत्वों का संतुलित प्रयोग साधारणतया नमी की उपलब्धता या जीवनदायी सिंचाई पर निर्भर करता है। साधारणतया सभी पोषक तत्वों को बुवाई के समय ही कुंड में हल के पीछे दे देना या फिर सीड कम फर्टी ड्रिल मशीन द्वारा बीज के साथ उपयुक्त दूरी पर प्रयोग करना अच्छा रहता है। इससे पोषक तत्व आसानी से पौधों को प्राप्त होकर उनकी वृद्धि एवं विकास में मदद करते है। यदि जीवनदायी सिंचाई की उपलब्धता है या फिर संयोग से फसल वृद्धिकाल में वर्षा हो जाती है तो नत्रजन को एक चौथाई मात्रा की टॉप ड्रेसिंग बहुत ही लाभदायक होती है। साधारणतया बरानी क्षेत्रों में पौधों की उपयुक्त संख्या को व्यवस्थित करना बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि अधिक पौध संख्या प्रति वर्ग मीटर वाष्पोत्सर्जन को बढ़ावा देती हैं और जल्दी ही नमी खत्म हो जाने से पौधों का वृद्धि एवं विकास प्रभावित होता है, फलस्वरूप उपज प्रभावित होती है।

खरपतवार का प्रारम्भिक अवस्था में हो नियंत्रण इन, क्षेत्रों में फसल के वृद्धि एवं विकास के लिए एक वरदान सिद्ध हो सकता है क्योंकि खरपतवार पानी का सबसे अधिक नुकसान करते हैं। साथ ही साथ पोषक तत्त्वों के साथ प्रतियोगिता करके फसल को बुरी तरीके से नुकसान पहुँचाते हैं। अतः फसल के अनुसार समेकित खरपतवार नियंत्रण भी महत्वपूर्ण क्रिया है। जैसे दलहनी फसलों में पेन्डीमेथालिन 1-1-25 कि.ग्रा. एवं तिलहनी फसलों में फ्लूक्लोरिन 1-1.5 कि.ग्रा. दवा को 400-600 लोटर पानी में घोल बनाकर क्रमानुसार बुवाई के तुरन्त बाद एवं बुवाई के पहले छिड़काव करने से अधिक से अधिक खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है तथा बाद में 30-40 दिन बाद बचे हुए खरपतवारों को श्रमिकों की सहायता से या खुद उखाड़कर फेंक देने से खरपतवारों से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है। इस प्रकार बरानी क्षेत्रों में उचित प्रबन्धन से फसलों की अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।