बारानी क्षेत्रों में फसल उत्पादन के स्थायी उपाय एवं प्रबन्धन      Publish Date : 09/10/2025

      बारानी क्षेत्रों में फसल उत्पादन के स्थायी उपाय एवं प्रबन्धन

                                                                                                                                                        प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता

  • फसलों की अदला-बदली करके बुवाई जैसे दलहनी फसलों के बाद धान्य फसलों का बोना।
  • अकार्बनिक खादों के स्थान पर बिनिक खादों जैसे गोबर की खाद, जैव खाद इत्यादि के उपयोग पर जोर देना या कम से कम 2/3 और 1/3 के अनुपात को अपनाना, भूमि सुरक्षा की दृष्टि से उपयुक्त माना जाता है तथा उत्पादकता में भी स्थायित्व लाया जा सकता है।
  • रासायनिक खादों की संतुलित मात्रा प्रयोग करना चाहिए जैसे अनाज वाली फसलों के लिए 4:3:1 के अनुपात में नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा देना चाहिए एवं दलहनी फसलों के लिए 1:2:1 या 1:2:2 के अनुपात में नत्रजन, फास्फोरस एंव पोटाश देना चाहिए।
  • कम वर्षा वाले क्षेत्रों में वर्षा जल का संरक्षण करना, जैव कीटनाशी, खरपतवारनाशी एवं फंफूदनाशी के प्रयोगपर बल देना चाहिए। तालाबों इत्यादि में पानी को एकत्रित करना या फिर खेत में ही ऊंची मेड़ बनाकर पानी को संरक्षित करने से हम बोई गई फसलों की जीवनदायी सिंचाई कर सकते हैं या फिर खेतों में संरक्षित नमी का उचित उपयोग करके फसल पैदावार बढ़ा सकते हैं।
  • बारानी क्षेत्रों में फसल बोते समय ही खाद देना चाहिए या फिर जीवनदायी सिंचाई के साथ खाद का प्रयोग करना उचित पाया गया है। साथ ही साथ खरपतवारों का समेकित नियंत्रण करने से फसल की पैदावार अच्छी होती है।
  • उचित फसल प्रणाली अपनाना जैसे बरानी क्षेत्रों में एक फसल लेना या फिर अन्तर फसली प्रणाली अपनाना, प्रति ईकाई उत्पादन को बढ़ा देता है।
  • फसल उत्पादन के साथ-साथ गाय, भैंस एवं मुर्गीपालन आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद होता है।
  • समस्याग्रस्त भूमियों (लवणीय मृदा आदि) पर फलदार वृक्षों को लगाना या फिर जंगली वृक्षों को लगाना जिससे ईंधन, चारा एवं खाद्य पदार्थ प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही साथ इन जमीनों का उचित प्रबन्धन करके फसल उत्पादन भी लिया जा सकता है।

स्थायी संसाधन प्रबंधन

                                                             

भूमि, जल, जलवायु, पेड़-पौधे और वनस्पतियां कृषि के विकास में काम आने वाले ऐसे मूलभूत प्राकृतिक संसाधन है जिन पर कई बातों का विपरीत असर पड़ता है। कृषि के उचित विकास के लिए इनका संरक्षण एवं प्रबंधन आवश्यक है। स्थायी तौर पर संसाधन प्रबंधन का मतलब है कि वर्तमान आवश्यकताएं भी पूरी हों तथा भविष्य में इनके विकास पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। हमें प्राकृतिक संसाधनों को भविष्य के लिए संरक्षित करके, आर्थिक उपयुक्तता लाकर, उत्पादन प्रणाली को सामाजिक रूप से स्वीकार्य बनाकर और पर्यावरण को बचाकर दीर्घकालीन आधार पर उत्पादक कृषि के क्षेत्र में वास्तविक स्थायित्व लाना होगा।

पर्यावरण के अनुकूल ऐसी खेती करना होगा जिससे कि परिस्थितिकीय संतुलन बना रहे और निवेशों के कुशलतापूर्वक उपयोग से आर्थिक लाभप्रदता बनाये रखने में मदद मिले। कार्बन डाई ऑक्साइड, क्लोरो फ्लोरो कार्बन और मौथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसों के निकलने में कमी लाकर धरती के तापमान में वृद्धि और ओजोन परत के क्षीण होने पर रोक लगानी होगी। हमें ऐसी तकनीकियों को अपनाना होगा जिससे कृषि उत्पादन और अनाज की गुणवत्ता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े और साथ ही साथ जमीन, पानी एवं जैव विविधता भी असंतुलित न हो।

ऊर्जा की आवश्यकता पूरी करने और खेती से जैव सामग्री का उत्पादन बढ़ाने के लिए सौर ऊर्जा के प्रयोग के सही तरीके खोजने होंगे। पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने और वायु, जल तथा खाद्य पदार्थों की शुद्धता बनाये रखने के लिए हमें खेती में रसायनों का इस्तेमाल कम से कम करना होगा और रासायनिक कृषि की जगह खेतों की उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिए कार्बनिक खादों का उपयोग करके प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना होगा।

                                                           

भारत में पर्यावरण के अनुकूल टिकाऊ कृषि के लिए उपयुक्त प्रसार प्रणाली अपनानी होगी, जिससे कम लागत में सुरक्षित विधियों की जानकारी किसानों तक पहुँचाया जा सके। इसके लिए कृषि नीति में व्यापक बदलाव लाने होंगे।

भूमि का उचित प्रबन्धन

शुष्क कृषि के स्थायित्व में सुधार लाने के लिए भूमि की उत्पादकता में वृद्धि अत्यंत आवश्यक है। इस समय शुष्क कृषि की फसल उत्पादकता लगभग 8-10 क्विटल/हेक्टेयर है जो कि बहुत कम है। उत्पादकता का मापन किसी विशेष भूमि पर उत्पादन के घटकों के संदर्भ में फसल की उपज से किया जाता है। लेकिन अधिकतर भूमि कारक जैसे मिट्टी का कटाव, पोषक तत्वों का बरसाती पानी के साथ बह जाना, पोषक तत्वों का जमीन के नीचे बह जाना, पानी का जमाव, मरूस्थलीकरण, कार्बनिक पदार्थों का क्षरण, खारापन, विषाक्त पदार्थों का जमा होना इत्यादि को उपेक्षित कर दिया जाता है जबकि इन कारकों से भूमि की उत्पादकतापर बुरा असर पड़ता है।

जबकि यदि हम मृदा अवशिष्ट प्रबन्धन, जल संरक्षण, कंटूर का निर्माण, संतुलित रासायनिक उर्वरक प्रबन्धन, कार्बनिक रिसायक्लिंग, लवणों को पानी के साथ निकालना, उचित जल निकास, उचित फसल चक्र, अधिक उपज देने वाली प्रजातियों आदि का मिट्टी, जलवायु व फसल के साथ तालमेल करके कृषि प्रणाली में सुधार से भूमि उत्पादकता में वृद्धि कर सकते हैं।

आम तौर पर शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में मिट्टी का कटाव जो कि पोषक तत्वों के क्षरण के लिए जिम्मेदार होता है तथा कार्बनिक पदार्थों का समाप्त होना साथ ही साथ भूमि का लवणीय हो जाना इत्यादि मुख्य रूप से जमीन को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने वाले कारक होते हैं। इन सभी कारकों को व्यवस्थित करके भूमि की उत्पादकता को अच्छा बनाया जा सकता है। कार्बनिक पदार्थों का जैसे घर का कूड़ा करकट, पशुशाला का बिछावन, पशुओं का छोड़ा गया चारा, पशुओं का मलमूत्र, फसलों का अवशिष्ट, शहर का मलवा इत्यादि का जमीन में उपयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति एवं उत्पादकता बनाये रखने, जल तथा वायु से इसके कटाव रोकने आदि में बड़ी मदद मिलती है।

इसी तरह लवणता ग्रस्त क्षेत्रों के प्रबन्धन के लिए रासायनिक एवं जैव उपाय अपनाने से भूमि के स्वास्थ्य में सुधार करके उसकी उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।