सारा खेल सोच और दृष्टिकोण का है      Publish Date : 07/10/2025

                   सारा खेल सोच और दृष्टिकोण का है

                                                                                                                                                                                     प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

व्यक्ति की सोच का स्तर ही उसके व्यक्तित्व का निर्माण करता है। व्यक्ति की सोच का दायरा ही उसकी दृष्टि को प्रभावित करता है। इस प्रक्रिया को थोडा ध्यान से समझने की जरुरत है। कोई व्यक्ति जब कमरे मे देखता है, जब बाहर आंगन मे देखता है, जब छत पर खडे होकर देखता है और जब हवाई जहाज मे बैठकर ऊपर से नीचे की ओर देखता है तो इन सबका नजरिया अलग-अलग होता है। इसी से यह प्रमाणित होता है कि बड़ी सोच और बड़ा नजरिया व्यक्ति के स्तर को ऊपर उठाता है।

संकीर्ण सोच, विचार एवं नजरिया व्यक्ति को कुएं का मेंढक बना देता है। इसलिए संकीर्ण सोच विचार वाले व्यक्ति से उचित दूरी बनाकर रखना ही हितकर रहता है।

व्यक्ति को कम से कम इतना ऊपर उठकर तो सोचना और विचारना ही चाहिए कि जहाँ से मानवता व प्रकृती मे समानता दिखाई दे औैर उनका सही तालमेल दिखाई दे।

समाजशास्त्री, वैज्ञानिक, विचारक और युवा लेखक इस यात्रा का हिस्सा बने। उन्होंने लिखे जा रहे शब्दों को सुना, उन पर चर्चा की और उनके सैद्धांतिक तर्क में बड़ी भूमिका निभाई। अगर हम दूसरों से लेंगे तो अपने-आप को शक्तिहीन बना देंगे। विदेशी खाद पर हम पनप नहीं सकते। मैं विदेशी भाषाओं के खजाने को अपनी भाषाओं के माध्यम से लेना चाहता हूं।

पहले भाषा ने जन्म लिया या पहले समाज का निर्माण हुआ। यह कुछ ऐसा ही सवाल है जैसा कि मुर्गी पहले आई या अंडा पहले आया। ‘‘भाषा’’ समाज के लिए एक बहु-उपयोगी साधन होता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो कहा जा सकता है कि समाज का निर्माण पहले हुआ होगा। समाज ने संप्रेषण क्षमता के विकास की दिशा में संकेतों के माध्यम से भाषा का निर्माण किया होगा। भाषा और समाज दोनों के निर्माण में दोनों एक दूसरे के सहायक की भूमिका में संस्कृति का विकास करते दिखते हैं। जैसे समाज सिर्फ वही नहीं है जो दिख रहा है। ठीक वैसे ही भाषा भी सिर्फ वह नहीं है जो लिखी और बोली जा रही है।

पिछले करीब डेढ़ दशक में जबसे आर्थिक भूमंडलीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है, हिंदी का विस्तार भी हुआ है।

हालांकि, इसके साथ ही विभिन्न नये तकनीकों के प्रचार-प्रसार से भी हिंदी का एक नया रूप बनता दिख रहा है। विज्ञापन और विभिन्न माध्यमों के माध्यम से भी हिंदी का एक नया रूप विकसित हुआ है। हिंदी में नित्य बदलती परिस्थितियों के साथ अपना रिश्ता बनाया है और अपना विस्तार किया है। दरअसल नई परिस्थितियों के साथ बन रही ‘हिंदी’ का रूप ही मर्सिया पढ़ने वाली जमात को परेशान कर रहा है। इसलिए हिंदी खुद भी विमर्श का विषय बनती जा रही है।

ऐसे में यह जरूरी है, किसी एक तरह की हिंदी का कट्टर समर्थन करने की स्थान पर इसके बहुवचन रूप यानी अनेक ‘हिंदियों’ के अस्तित्व को उदार मन से स्वीकार किया जाए। इसी के जरिये हमारी हिंदी का विस्तार भी होगा और संरक्षण भी। लेकिन हिंदी-हिंदी खेलने वाले लोगों का ध्यान इस पहलू पर है ही नहीं।

भाषा मात्र संप्रेषण का माध्यम ही नहीं होती है, यह तो उसका साधारण नैसर्गिक दायित्व है। भाषा के साथ सत्ता, शक्ति, वर्ग सब शामिल हैं। भाषा की राजनीति पुरानी परिणति है। भाषा शासन-प्रशासन की शक्ति सहयोगिनी के रूप में पुराने समय से ही काम करती आ रही है। वह सामाजिक करेंसी की तरह काम करती रही है। विशिष्ट वर्गों के निर्माण में सामाजिक-आर्थिक असमानताएं स्थापित करती रही है, जो सत्ता संरचना के काम आते हैं। अतः एक बेहतर समझ ही इसका समाधान है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।