
‘‘भारतीय साहित्य में परिवार की संकल्पना’’ विषय पर चर्चा Publish Date : 24/09/2025
‘‘भारतीय साहित्य में परिवार की संकल्पना’’ विषय पर चर्चा
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एंव डॉ0 शालिनी गुप्ता
भारतीय साहित्य में यदि परिवार की संकल्पना की बात की जाए तो इसका बहुत विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। ऐसे में अगर हम बात रामचरितमानस की ही करते हैं तो रामचरितमानस में बाबा तुलसीदास जी कहते हैं कि ‘‘भरत सरिस को राम सनेही, जग जप राम राम जप जेहीं’’। अर्थात जहां समस्त संसार राम का जाप करता है वही राम अपने भरत भाई का सर्वदा स्मरण करते हैं।
इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय साहित्य, भारतीय ज्ञान परंपरा अथवा भारतीय मूल्यों में परिवार का एक अत्यंत सुगढ संगठन स्थापित किया गया है। जिसमें भाई का भाई से क्या कैसा संबंध होना चाहिए? पति का पत्नी से कैसा संबंध होना चाहिए? पुत्र का माता एवं पिता से कैसा संबंध होना चाहिए तथा एक राजा का अपनी प्रजा के साथ कैसा संबंध होना चाहिए। इस प्रकार के अनेक सुंदर प्रतिमान भी हमारे समाज में स्थापित किए गए है।
साथ ही मानव कैसा होना चाहिए इस विषय में कहा गया है कि ‘‘रामादिवत् प्रवर्तितव्यं न तु रावणादिवत्’’ अर्थात् हमारा व्यवहार राम के जैसा होना चाहिए न कि रावण के जैसा। साथ ही साथ कहा गया है कि ‘‘यत्र विश्वं भवत्यैकनीड़म’’ अर्थात् समस्त संसार ही एक नीड़ के समान है और यह भावना सारे विश्व को एकसूत्र में बांधने की भावना से जोड़ती है, अगर इस भावना को समस्त भूमंडल का मानवमात्र ही मान लें, जैसा कि मानव धर्म का अर्थ है मानवत्व तब संसार में व्याप्त संघर्ष की सारी समस्याएं ऐसे ही नष्ट हो जाएगीं।
जय भारत! अभिनव भारत।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।