
हिन्दी का फैलता क्षितिज और सिकुड़ता समाज Publish Date : 16/09/2025
हिन्दी का फैलता क्षितिज और सिकुड़ता समाज
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
न्यूयार्क से प्रकाशित विश्व के भाषायी मानचित्र में हिन्दी को सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा माना गया है। चीनी भाषा अनेक रूपों के कारण दूसरे स्थान पर रखी गयी है और अंग्रेजी तीसरे स्थान पर आती है । विश्व के 37 देशों के 110 विश्वविद्यालयों में ( यह बीसवीं शताब्दी के अन्त का आंकड़ा है. ) इसके उच्चस्तरीय अध्ययन की व्यवस्था है । हिन्दी देश की राजभाषा, सम्पर्क - भाषा, संघभाषा, लोक-भाषा, शैक्षिक व साहित्यिक भाषा, जन भाषा, जन संचार के माध्यमों की प्रमुख भाषा और आधुनिक युगबोध की भाषा अर्थात सम्पूर्ण समन्वय की वाणी है । हिन्दी फिल्मों व मनोरंजन का उभरता सशक्त माध्यम बन चुकी है । उदारीकरण के दौर में यह लाभ या व्यवसाय की भी प्रमुख भाषा है । यह पूर्णतः ध्वन्यात्मक है ।
हिन्दी की लिपि देवनागरी' सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है । यही नहीं, हिन्दी संगणकों के भी समानुकूल मानी जाती है। मीडिया के असली बाजार की खोज रूपर्ट मरडोक जैसे लोगों ने सबसे पहले की । यद्यपि हिन्दी फिल्मों और दूरदर्शन के हिन्दी कार्यक्रमों से हिन्दी भाषा काफी बिगड़ी है, पर यह भी सही है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार में फिल्मों और दूरदर्शन के कार्यक्रमों विशेषकर धारावाहिकों का बड़ा हाथ रहा है ।
ऑकड़े बता रहे हैं कि हिन्दी के समाचार पत्र प्रसार और पाठक-संख्या के मामले में अंग्रेजी के अखबारों से बहुत आगे हैं। भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या लगभग २ प्रतिशत है; फिर भी अंग्रेजी परस्त लोग अंग्रजी को आधुनिकता का एक मात्र वातायन मानते हैं। वे हिन्दी भाषी क्षेत्रों को 'काऊबेल्ट' और 'बैंकवाटर्स' कह कर विषवमन करते हैं। अंग्रेजी आज आभिजात्य का पर्याय और सभ्यता का मानदण्ड बन गयी है। जबकि भाषा अहंकार का आभूषण नहीं, सम्प्रेषण का माध्यम है। भाषा केवल व्याकरण की वस्तु नहीं, वह संवेदनाओं के 'साधारणीकरण का साधन है और साहित्य भाषा का सबसे सर्जनात्मक और ऊर्जस्वित रूप है और हिन्दी की असली शक्ति सबसे अधिक उसी में संपुंजित होती है। वैसे हिन्दी परिवार दृष्टि बहुल है, किन्तु समरसता हिन्दी का जातीय चरित्र है।
रचनात्मक साहित्य, शब्द-कोष, विश्वकोश, व्याकरण, काव्य शास्त्र, भाषा-विज्ञान के अतिरिक्त विज्ञान 1 विधि, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी, प्रशासन, कूटनीति और कला-संस्कृति सभी क्षेत्रों में हिन्दी की पूर्ण प्रतिष्ठा आवश्यक है। तभी हम हिन्दी को समग्रता में स्थापित कर सकेंगे; किन्तु देखना यह भी है कि व्यापक आत्म-प्रसार की प्रक्रिया में हिन्दी भाषा हिंगलिश या खिचड़ी भाषा न बन जाय । खिचड़ी रोगियों को दी जाती है। अतः ऐसी भाषा रुग्ण चेतना का परिचायक होती है, उसे 'वर्ण संकर' भाषा कहना अधिक उचित प्रतीत होता है। किन्तु भाषिक शुद्धता के कृत्रिम प्रयास में 'लौह पथ गामिनी विश्रामस्थल' जैसे शब्दों का आविष्कार उचित नहीं है ।
लोक - मानस में सहज ढंग से विकसित (संक्रमित नहीं) शब्दों का व्यवहार ही वांछित है। किन्तु, खेद है कि स्थिति ठीक उल्टी है । शुद्ध हिन्दी या संस्कृतनिष्ठ हिन्दी बोलने वाले को विदूषक की भाँति देखा जाता है । मानो शुद्ध हिन्दी कोई मजाक की वस्तु हो । 'अंग्रेजी की वर्तनी लिखते समय हम अत्यन्त सावधान रहते हैं। अतः उसमें अशुद्धि या त्रुटि नहीं होती, किन्तु हिन्दी की वर्तनी हम शायद ही शुद्ध लिखते हों । स्वभावतः अंग्रेजी वर्तनी, (स्पेलिंग) हम रटते हैं और हिन्दी पर ध्यान नहीं देते । हमने हिन्दी को भुला दिया है । शायद इसीलिए वर्ष में एक दिन उसे याद कर लेते हैं । १४ सितम्बर को 'हिन्दी दिवस मनाते हैं। क्योंकि अंग्रेजी - दिवस तो रोज ही है ।
इसलिए उसे मनाने की जरूरत नहीं । क्या इंग्लैण्ड में ‘अंग्रेजी दिवस मनाया जाता है ? तो १४ सितम्बर को, वह भी हिन्दी डे के रूप में उसका वेलकम करते हैं । लार्ड मैकाले के हम मानस पुत्र अंग्रेजी में बोलते ही नहीं, अंग्रेजी में सोचते भी हैं। हम मानसिक दासता के शिकार हैं। स्वामी विवेकानन्द विश्व-धर्म सम्मेलन' में बोलने जब शिकागो गये थे, तब उनकी माध्यम भाषा अंग्रेजी थी अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी बात रखनी थी । सो बोलते अंग्रेजी में थे, किन्तु सोचते हिन्दी में थे "मेरे प्यारे अमेरिका वासी भाइयो और बहिनों ! यह भारतीय संस्कृति की सोच का ढांचा है। हिन्दी हमारी राष्ट्रीय चेतना का संवाहक है, जातीय अस्मिता का प्रतीक है। हिन्दी भारतीयता का पर्याय है। मु. इकबाल के शब्दों में 'हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा ।”
सांस्कृतिक संलग्नता का सर्वाधिक प्रशस्त उपकरण है भाषा। 'उदारीकरण' के नाम पर भारतीय आत्मा को निर्वासित करने का बहुत बड़ा षड़यन्त्र चल रहा है। खुले बाजार में बिकने वाले विदेशी बीज और विदेशी भाषा क्या भारतीय भूगोल और जलवायु के अनुरूप हो सकते हैं ? भारतीय बीज (अनाज, फल, आदि के) या भारतीय भाषा किस मामले में विदेशी वस्तुओं से न्यून है ? राम के सम्मुख भी विदेशी बाला शूर्पणखा प्रणय-निवेदन करती है, परन्तु राम सीता की ओर इशारा करके उसे उसके बौने कद का आभास दिला देते हैं । किन्तु, हमें तो विदेशी वस्तुएँ इतनी प्रिय है कि सीताएँ छूट जाती है और अंग्रेजी से 'गठबन्धन हो जाता है।
अंग्रेज चले गये पर अंग्रेजी अभी भी हम पर शासन कर रही है। हम भारतीयों को अपनी पत्नी अच्छी नहीं लगती, प्रेमिकाओं की ओर अधिक आकर्षित होते है। हिन्दी के प्रति हीनता-बोध का आविर्भाव एवं अंग्रेजी के माहात्म्य की गौरवपूर्ण स्वीकृति इसी मानसिकता का प्रतिफल है। हिन्दी के शिक्षक भी अपने बच्चों को कान्वेण्ट स्कूलों में पढ़ाने का शौक रखते है जबकि सांस्कृतिक मन अपनी मूल मातृभाषा में ही विम्बित हो सकता है गांधीजी ने जेल से मृत्युशय्या पर पड़ी पत्नी को गुजरा में पत्र रखने की अनुमति न मिलने पर पत्र ही नहीं लिखा और कहा कि "मेरी बीमार और मरणासत्र पत्नी को पत्र मिले या न मिले, मै अंग्रेजी में पत्र नहीं लिखूँगा। उसी गाँधी के इस देश में आज भारतीय भाषाओं के खण्डहर पर अंग्रेजी के नये-नये अंकुर फूट रहे हैं।
भेदनीति' की शिकार भारतीय भाषाएं विरोध की मिथ्या आशका में अंग्रेजी के डण्डे से एक दूसरे को पीटती रहीं और देख नहीं पायी कि इस तरह वे खुद को पीट रही हैं और इन ५० वर्षों में हमने अपनी सभी समृद्धतम भाषाओं को 'बोली' के कगार पर पहुँचा दिया है । इस भयावह परिणति का अधिकांश एक पूर्व प्रधान मंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू की आज भी संसद में अनेक छवियाँ दिखायी पड़ती हैं, जिनके आगे तथाकथित 'स्वदेशी' समर्थकों को घुटने टेकने पड़ते हैं । लगता है, सत्तातंत्र ऊँचे तरंगदैर्ध्य की ध्वनियाँ ही सुन सकता है । खैर, हिन्दी को उपेक्षाओं से ही ऊर्जा मिली है । गुलामी के समय ही हिन्दी का सबसे अधिक विकास हुआ। हिन्दी कभी सरकारी संरक्षण में नहीं पली । अपनी आन्तरिक शक्ति के कारण उसका विकास हुआ है।
किन्तु; विकास हुआ है, विस्तार नहीं । हिन्दी मनुष्य मात्र के अपराजेय भाव की भाषा है । इसीलिए छठें विश्व हिन्दी सम्मेलन, लंदन में उसे विश्व - संवाद की भाषा बनाने के सार्थक प्रयास हुए । किन्तु; विडम्बना यह है कि विश्व - संवाद की भाषा अपने ही देश में विवाद का विषय बन गयी । आज कानून का कृपाण लेकर हिन्दी सबकी छाती पर सवार होने नहीं चली है, वह विश्व-मानस और हृदय पर प्रतिष्ठित होकर सार्वभौम बनना चाहती है । वह आने वाले मनुष्य की आशाओं, आकांक्षाओं की पूर्ति में समर्थ होने के कारण आदर पायेगी . डा. सूर्य प्रसाद दीक्षित के अनुसार यदि हिन्दी हमें रोटी देने में समर्थ हो जाय, तो हिन्दी अधिक कल्याण सम्भव है । अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर हिन्दी को सर्वाधिक समुन्नत भाषा के रूप में देखने के लिए अप्रवासी भारतीय हमसे अधिक लालायित हैं । उनकी हिन्दी - भक्ति स्तुत्य है ।
तुलसी ने लिखा है-
"तुलसी जिनके मुखनि तें, धोखेहुं निकसत राम,
तिनके पग की पनही, मोरे तन को चाम।"
जो हिन्दी की सेवा में समर्पित हैं, भाषा रक्षा के लिए शहीद होने वाले हैं, मेरे शरीर की चमड़ी यदि उनके पैरों का जूता बन सके, तो मैं अपने को कृतार्थ समझूँगा।
संस्कृत यदि आज भी उत्सव और संस्कार की भाषा है तो मानुष भाव से संस्फूर्त हिन्दी अपनी नमनीयता के कारण हमारे वैचारिक क्षितिज का विस्तार करने वाली भाषा है। यह भारतीय भाषाओं या फिर हिन्दी बोलियों का हक छीनने वाली नहीं, उनकी सीमाओं का विस्तार करने वाली है। यह मनुष्य को उसके पूरे संदर्भ से जोड़ कर अधिक समर्थ रूप में आगे बढ़ने की प्रेरणा देने वाली भाषा है। भाषा को देश की आत्मा कहा जाता है। यह पराए हाथों में तब भी नहीं बेंची जाती जब देश राजनीतिक रूप से पराधीन होता है। मातृभाषा और देशी भाषा बच्चों में सांस की तरह स्वाभाविक होती है। इस लिए अंग्रेजी माध्यम की तरह उनकी बौद्धिक क्षमता भाषा रटने में नहीं, ज्ञान प्राप्त करने में लगती है।
कान्वेंट स्कूलों में सांस्कृतिक अस्मिता, मूल्य - चेतना और एक सहज पारिवारिक और देशीय आत्मीयता का विसर्जन हो जाता है और प्राप्त होती है दोहरी संज्ञाओं से ग्रस्त चेतना। साम्राज्य वादी स्वार्थों से लैस भाषा पराधीनता की सबसे मजबूत जंजीर होती है और वह एक देश के भीतर से देश को छीन लेती है। प्रोफेसर महावीर सरन जैन के अनुसार अंग्रेजी मातृभाषियों से हिन्दी मातृभाषियों की संख्या अधिक है। चीनी भाषा भाषियों की संख्या हिन्दी से अधिक है किन्तु उसका प्रयोग क्षेत्र या व्याप्ति कम है और उसकी बहुरूपता भी खटकती है। आज हिन्दी विश्व के लगभग 120 विश्व विद्यालयों में पढ़ाई जाती है। उसका क्षितिज फैल रहा है किन्तु समाज सिकुड़ रहा है। मारीशस में संपन्न हुए द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में डा. कर्ण सिंह ने कहा था कि आज जब हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा से विश्व भाषा बनने जा रही है तो हिन्दी के लेखकों का दायित्व बढ़ जाता है।
हिन्दी मानव जीवन को शांति, प्रेम, करुणा और बन्धुत्व का संदेश देगी। हिन्दी यूनेस्को की भाषा बन चुकी है किन्तु अब उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनना है।" वैसे संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी एकाधिक बार हिन्दी में भाषण दे चुके हैं। अप्रवासी भारतीयों से अनेक देशों में मोदी जी को जो प्यार मिला है वह अभिभूत कर देने वाला है। इस प्रकार भाषा के सांस्कृतिक संबन्धों की परख करते हुए संपर्क भाषा, राजकाज की भाषा और मौलिक साहित्य की भाषा के रूप में हिन्दी के विकास और विस्तार के लिए संकल्प बद्ध होकर हमें इस सारस्वत अनुष्ठान में अपनी समिधा अर्पित करना होगा।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।