
समय से पहले आई खूबसूरती से क्यों भयभीत हैं पहाड़ के लोग Publish Date : 12/09/2025
समय से पहले आई खूबसूरती से क्यों भयभीत हैं पहाड़ के लोग
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
हिमाचल प्रदेश या पूरे हिमालय क्षेत्र में सौंदर्य के प्रतीक से इन दिनों क्यों भयभीत है लोग? क्यों उन्हें यह सुंदरता रास नहीं आ रही? खूबसूरती से क्यों नाखुश है पर्वतीय इलाकों के रहवासी और प्राकृतिक सौंदर्य के उपासक क्यों नहीं चाहते असमय प्रकृति की नेमत ? यह ऐसे कुछ सवाल हैं जिनके जवाब हमें केवल पर्वतीय इलाकों के जानकार ही दे सकते हैं। आखिर, कोई तो बात होगी जिसके फलस्वरूप यहां के लोगों को प्राकृतिक सुंदरता रास नहीं आ रही?
हम बात कर रहे हैं कि पर्वतीय राज्यों के एक सुंदर वरदान की जिसका नाम है - बुरांश। बुरांश का पेड़ और इसके फूल हिमाचल सहित देश के तमाम पर्वतीय राज्यों के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और प्राकृतिक संस्कारों से जुड़े हैं। बुरांश न केवल खूबसूरत है बल्कि सेहत की अनेक नेमतों से परिपूर्ण भी है। यह यहां अर्थव्यवस्था का भी एक अनिवार्य हिस्सा है। बुरांश के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि आईआईटी मंडी और इंटरनेशनल इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नालॉजी (आईसीजीईबी) के शोधकर्ताओं ने बुरांश की पंखुड़ियों में मौजूद फाइटोकेमिकल्स की पहचान की है जो कि वायरस को रोक सकते हैं।
एक अध्ययन के माध्यम से ज्ञात हुआ है कि बुरांश के फूल में एंटीवायरल के गुण मौजूद होते हैं, जो सार्स-सीओवी 2 से संक्रमित कोशिकाओं के इलाज में मदद कर सकते हैं। कुछ शोधों में यह भी पाया गया है कि बुरांश के रस का सेवन दिल और लिवर के लिए लाभकारी हो सकता है।
लेकिन हिमालय को मिला प्रकृति का यही उपहार यहां खतरे का संकेत दे रहा है। पिछले कुछ सालों से यह फूल समय से पहले खिलने लगा है और यही पर्वतीय लोगों के साथ-साथ वैज्ञानिकों के लिए भी चिंता का विषय बना हुआ है। बुरांश का समय से पहले खिलना बर्फबारी कम होने का संकेत है और कम वर्षा का भी। शिमला या इस जैसे तमाम पर्यटन स्थलों का सौंदर्य और आर्थिक प्रगति वहां होने वाले हिमपात पर निर्भर करती है। बीते कुछ सालों में न केवल शिमला सहित अधिकतर पर्वतीय इलाकों की सर्दी कम हुई है बल्कि बर्फबारी के दिन भी कम होते जा रहे हैं।
पहले शिमला शहर में ही जमकर बर्फ गिरती थी लेकिन अब बर्फबारी कुफरी, ठियोग और नारकंडा की ओर खिसकते जा रही है। इससे पर्यटन पर भी असर पड़ रहा है। इस समस्या को विकराल बनाने में पहाड़ों का सीना चीरकर दौड़ रहे हज़ारों वाहनों ने भी अहम भूमिका निभाई है। इस सबसे, मौसम बदल रहा है और इसलिए बुरांश भी समय से पहले खिलने लगा है।
‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के अनुसार तापमान, वर्षा और बर्फबारी में आए बदलावों के प्रति बुरांश की संवेदनशीलता और प्रतिक्रियाओं ने चिंता बढ़ा दी है। फूलों के खिलने के समय में बदलाव के लिए काफी हद तक बढ़ते हुए वैश्विक तापमान को जिम्मेदार माना जा रहा है। इसके फलस्वरूप बदल रहे मौसम के तेवरों का नुकसान बुरांश के फूलों को उठाना पड़ रहा है। मसलन बारिश की कमी के कारण इनमें रसीलेपन का अभाव हो जाता है। बुरांश के फूलों के खिलने की प्रक्रिया को समझे तो सामान्य रूप से जनवरी से फरवरी माह में वे कलियों के रूप में रहते हैं।
चूंकि उस समय तापमान बहुत कम होता है और बहुत कम तापमान में कलियां खराब न हो जाए, इसके लिए प्राकृतिक तौर पर पंखुड़ियां सुरक्षा घेरे के रूप में कलियों को बाहर से ढंके रहती हैं। वे तभी हटती हैं, जब तापमान 20 से 25 डिग्री पर पहुंच जाता है। अनुकूल तापमान पाकर पेड़ का आंतरिक सूचना तंत्र (डीएनए) कोशिकाओं को संकेत भेजता है और फूलों के खिलने की प्रक्रिया के लिए जिम्मेदार हार्माेन्स सक्रिय हो जाते हैं।
यदि समय से पहले ही तापमान अधिक हो जाता है तो फूल के विकास पर विपरीत असर पड़ता है और उसके रंग-रूप से लेकर आर्थिक और स्वास्थ्यप्रद गुणों पर भी असर पड़ता है।
इसके अलावा, अगर ये फूल समय से पहले यानी सर्दियों के अंत में ही खिलने लगते हैं तो उस समय मधुमक्खियां या परागण करने वाले कीड़े सक्रिय नहीं हो पाते, इसलिए परागण पूरी तरह नहीं हो पाता, जिससे पौधों के बीज या फल विकसित नहीं हो पाते हैं। तापमान में उतार-चढ़ाव से पहले से खिले फूल मुरझा जाते हैं या मर जाते हैं।
बुरांश के फूलों के जल्दी खिलने का असर पारिस्थितिकी तंत्र पर भी पड़ता है। दरअसल, बुरांश के फूलों पर कई पक्षी, कीड़े और अन्य जीव आश्रित होते हैं। यदि फूल समय से पहले या अनियमित रूप से खिलते हैं, तो यह खाद्य श्रृंखला गड़बड़ा जाती है। बुरांश के फूलों का उपयोग रस और शरबत आदि बनाने में होता है। अनियमित फूलों की वजह से इनमें रस कम बनता है और इससे किसानों और स्थानीय लोगों की कमाई भी प्रभावित होती है। यही लोगों की चिंता का कारण बना हुआ है।
अब अगर पहाड़ों का सौंदर्य, तापमान, वर्षीय, बर्फ, बुरांश और प्राकृतिक चक्र बनाए रखना है तो हमें प्रकृति का संरक्षण करना ही होगा, अंधाधुंध फैलते कंक्रीट के जंगल की रफ्तार थामनी होगी और पहाड़ों को रौंदती मोटर गाड़ियों की संख्या को नियंत्रित करना होगा नहीं तो फिर पहाड़ और मैदान में कोई अंतर बाकी नहीं रह जाएगा।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।