
पराली प्रबंधन पर्यावरण संरक्षण के लिए अति आवश्यक कार्य Publish Date : 19/08/2025
पराली प्रबंधन पर्यावरण संरक्षण के लिए अति आवश्यक कार्य
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता
वर्तमान समय में पराली प्रबंधन का मुद्दा एक बेहद खास और ज्वलंत मुद्दा है। पूरे देश में प्रदूषण का जहर लोगों की जिंदगी तबाह कर रहा है और प्रदूषण का दायरा बढ़ाने में पराली का सब से अधिक हिस्सा रहता है। अब ऐसे में सवाल उठता है कि पराली के जंजाल से आखिर किस प्रकार से सुरक्षित तरीकों से पार पाया जाए?
अक्तूबर-नवंबर माह में दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में जैसे ही गुलाबी ठंड का आगाज होने लगता है, वैसे ही हरियाणा व पंजाब की तरफ से आने वाली धूल और प्रदूषण भरे धुएं के गुबार ने हवा में जहर घोलना शुरू कर देता है। वातावरण में फैले इस धुएं ने लोगों को नाक पर रूमाल बांधने पर मजबूर कर देता है। अस्थमा की बीमारी वाले लोगों के लिए यह और भी अधिक परेशानी का कारण बनने लगता है। इस समय क्या आम जनता और क्या खास लोग, सभी की उंगली हरियाणा और पंजाब की ओर उठने लगती है कि यह जहरीला धुआं इन्हीं राज्यों के किसानों द्वारा धान की पराली जलाने से आ रहा है, जिसने लोगों का जीना दूभर कर दिया है।
दिल्ली, हरियाणा व पंजाब की सरकारों में मुंहजबानी जंग शुरू हो जाती है और वे एक-दूसरे के ऊपर इस का ठीकरा फोड़ने लगते हैं। जब इस से कुछ हासिल होता नहीं दिखता, तो ‘‘गरीब की लुगाई सब की भौजाई’’ बाली कहावत सच होने लगती है और सभी का निशाना किसान बनने लगते हैं कि इस प्रदूषण के असली जिम्मेदार किसान ही हैं। ऐसे किसानों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए, उन किसानों पर केस दर्ज करना और जुर्माना लगाया जाना चाहिए, जो कि पराली जला रहे हैं। इसके तहत हजारों किसानों को निशाना भी बनाया जा रहा है। कुछ दशक पहले तक पारंपरिक तरीके से खेती होती थी, जिस में पशुओं का भी खासा योगदान होता था। उनके लिए भी चारा चाहिए होता था। उस समय गेहूं व धाम के अवशेष चारे के रूप में प्रयोग किए जाते थे।
आज खेती में कृषि मशीनों का चलन बढ़ गया है। नए-नए हार्वेस्टर, रीपर जैसी फसल काटने की मशीनें आ गई हैं, जो फसल में फल वाले ऊपरी हिस्से को तो काट देती हैं और बाकी नीचे फसल का पूरा तना बच जाता है, जिसे फसल अवशेष मान कर जलाया जाता है। किसान फसल अवशेष इसलिए जलाता है. जिस से वह समय से अगली फसल उगाने की तैयारी कर सके। भारत में एक साल में 2 बार फसल अवशेषों को जलाया जाता है। गेहूं और धान दोनों ही बंपर पैदावार वाली फसलें हैं। अप्रैल में गेहूं की फसल और सितंबर-अक्टूचर में धान की फसल तैयार होती है। इसी दौरान फसल अवशेषों को जलाया जाता है।
धान की फसल कटने के बाद तुरंत गेहूं की फसल भी बोनी होती है, इसलिए अगली फसल बोने के लिए खेत भी खाली होना चाहिए. हालांकि पराली को खेत में जोत कर गलाने के बाद बेहतर जैविक खाद बनती है, लेकिन हर किसान के लिए यह काम संभव नहीं है। हर किसान की माली हालत इतनी अच्छी नहीं होती कि वह पराली का प्रबंधन कर सके और न चाहते हुए भी ऐसे किसान को यही कदम उठाना पड़ता है।.‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’’ की तर्ज पर किसानों को सलाह तो बहुत सी दी जाती है और सरकारें भी इस में पीछे नहीं हैं। सरकार भी फसल अवशेषों के प्रबंधन के लिए किसानों को मशीनें खरीदने की सलाह देती रहती हैं, जबकि ज्यादातर किसान कृषि मशीनें खरीदने की स्थिति में नहीं होते।
पहले ही किसान कर्ज के तले दबे हैं, ऊपर से मशीन खरीदने का सरकारी कर्ज अलग पंजाब सरकार मशीनों पर किसानों को सक्सिडी देने की बात करती है, लेकिन इन मशीनों की कीमत भी कम नहीं होती है।
चोपर बेडर मशीन की कीमत साढ़े 4 लाख से 6 लाख रुपए, कटर रेक बेलर मशीन की कीमत 16 लाख रुपए और हैप्पी सीडर मशीन की कीमत लगभग सवा करोड़ से 1 करोड़, 40 लाख रुपए के आसपास तक होती है। इसके अलावा जीरो टिल, सीड ड्रिल, स्ट्रा बेलर, रोटावेटर, मल्बर आदि अनेक मशीनें बाजार में उपलब्ध हैं, जिनके उपयोग से पराली प्रबंधन में सहायता प्राप्त होती है, लेकिन ऐसी मशीनों को खरीदना हर किसान के लिए मुमकिन नहीं है, उनकी इतनी आमदनी नहीं होती कि वे इतना बोझ उठा सकें।
पंजाब में सुपर स्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों का भी यही कहना है कि पराली को आग लगाए बगैर निबटाने का सस्ता और आसान ढंग कंबाइन हार्वेस्टर पर सुपर स्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम लगा कर धान की कटाई करना है.। फसल काटते समय ही इस मशीन के माध्यम से पराली के छोटे-छोटे टुकड़े हो जाते हैं, जो पशुओं के चारे के रूप में भी उपयोग किए जा सकते हैं और इससे किसानों को अतिरिक्त आमदनी भी हो सकेगी। हालांकि इस मशीन को कंबाइन हार्वेस्टर के साथ अलग से जोड़ा जाएगा, जिस का खर्च तकरीबन सवा लाख रुपए अलग से होगा।
अभी तक पंजाब में तकरीबन 1000 कंबाइन मशीन मालिकों ने यह सिस्टम अपनी मशीनों में लगवाया है और जहां इन मशीनों से धान की कटाई हुई है, उन इलाकों में धान की पराली को जलाने की जरूरत नहीं पड़ी है। इस मशीन से कटाई के बाद किसान खेत में हैप्पीसीडर मशीन के द्वारा गेहूं की सीधी बुवाई भी कर सकते हैं।
वर्षों से नहीं जलाई पराली
कई किसान अब भी इस तकनीक को अपने अपने खेतों में अपना रहे हैं। ऐसे ही हरियाणा के एक किसान हैं, जिन्होंने पिछले कई सालों से पराली को जलाया नहीं है, बल्कि वे इसे रोटावेटर के द्वारा खेत में ही जोतकर उसका जैविक खाद बनाते हैं। किसान सुखविंदर सिंह कहते हैं कि पराली को खेत में जोतने का काम सुबह के समय करना चाहिए, क्योंकि उस समय खेतों में ओस रहती है, गीलापन रहता है., उस समय पराली से मिट्टी अच्छी तरह चिपक जाती है, जिसका अच्छा नतीजा मिलता है।
इसके बाद खेत में पानी दे कर छोड़ देना चाहिए और लगभग 20-25 दिनों में पराली खेत में ही सड़ जाती है, जिस से उत्तम किस्म की खाद बन जाती है.। खेत में अलग से खाद डालने की जरूरत भी नहीं होती। हालांकि समय-समय पर कृषि वैज्ञानिकों द्वारा किसानों को सलाह भी दी जाती है कि वे फसल अवशेषों को न जलाएं, बल्कि उन्हें खेत में जोत कर खाद बनाएं जिससे किसान का खाद का खर्च भी बचेगा और जमीन की उर्वरा शक्ति भी बढ़ेगी। फसल अवशेष जलाने से खेती की जमीन में फायदा पहुंचाने वाले मित्र कीट केंचुए आदि भी खत्म हो जाते हैं।
फसल अवशेषों से बनेंगे ब्लॉक
वैसे कई कृषि संस्थानों ने ऐसे कृषि यंत्र भी विकसित किए हैं, जो फसल अवशेषों को ठोस ब्लॉक यानी ब्रिक्स में बदल देते हैं। इन फसल अवशेषों में खनिज तत्त्वों को मिला कर पशुओं के लिए पशु चारा ब्लॉक बनाए जाते हैं। हिसार के लाला लाजपत राय पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय द्वारा भी फसल अवशेष पशु आहार ब्लॉक बनाने की दिशा में काम चल रहा है। कृषि अभियांत्रिकी संभाग, कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली में भी पशु आहार ब्लॉक बनाने की मशीनें मौजूद हैं।
इन मशीनों को लगा कर इसे रोजगार के रूप में भी अपनाया जा सकता है इस के अलावा अब पराली से ऐसे ब्रिक्स तैयार होंगे, जिन्हें इंट के भट्ठे और होटलों आदि में जलाने के काम में लिया जा सकेगा। इससे प्रदूषण के छुटकारे पाने के साथ ही साथ किसानों की आमदनी तो होगी ही, लेकिन साथ ही, इस पराली से कंपोस्ट खाद भी बनाई जा सकेगी।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।