Sustainble Farming: टिकाऊ पर्यावरण और 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की कुंजी है किसानों के हाथ-      Publish Date : 17/08/2025

Sustainble Farming: टिकाऊ पर्यावरण और 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की कुंजी है किसानों के हाथ-

                                                                                                                                      प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता

भारतवर्ष की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर करता है, जहां जलवायु परिवर्तन से खेती और किसानों की आय देानों प्रभावित हो रही है। जलवायु-अनुकूल खेती कर किसान पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा दे सकते हैं, जिससे देश को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लक्ष्य तक शीघ्र पहुंचा जा सकता है। जलवायु अनुकूल खेती का दृष्टिकोण कृषि का उत्पादन बढ़ाने और पर्यावरणीय संतुलन पर केंद्रित है।

जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी की एक सबसे प्रमुख चुनौतियों में से एक है, जो कि केवल वैज्ञानिकों, सरकारों या पर्यावरणविदों की ही समस्या नहीं है, बल्कि यह हम सभी के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। विशेषरूप से किसानों के लिए, जिनका जीवन प्रकृति पर ही निर्भर करता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में, जहां 70 प्रतिशत जनसंख्या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि पर निर्भर करती है, वहां किसानों की भूमिका जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण और इसके दुष्प्रभावों को कम करने के क्रम में बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।

जलवायु परिवर्तन से तापमान में वृद्धि, बारिश के पैटर्न में बदलाव, सूखा, बाढ़ और चक्रवात जैसी आपदाएं भी अब काफी बढ़ चुकी हैं, जिससे कृषि उत्पादन अस्थिर होने के साथ ही हमारी खाद्य सुरक्षा पर भी खतरा मंडरा रहा है और किसानों की आर्थिक स्थिति भी दिन प्रति दिन कमजोर होती जा रही है।

अनियमित बारिश से जहां एक ओर वर्षा-आधारित खेती प्रभावित हो रही है, वहीं अत्यधिक गर्मी और सूखे से भूमि की उर्वरता भी कम होती जा रही है और इसके साथ ही कीट-बीमारियों आदि का प्रकोप भी काफी बढ़ा है और किसान मित्र कीटों की संख्या भी लगातार कम हो रही है। ऐसे में यदि किसान जलवायु-अनुकूल खेती प्रथा अपनाएं, तो वे अपनी आर्थिक सुरक्षा के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण में भी अधिक बेहतर योगदान दे सकते हैं।

जलवायु अनुकूल खेती करें किसान

                                                          

जलवायु अनुकूल खेती का दृष्टिकोण कृषि को उत्पादन बढ़ाने के साथ ही पर्यावरणीय संतुलन पर भी केंद्रित है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत किसान निम्न उपायों को अपना सकते हैं-

फसल विविधीकरणः एक ही फसल पर निर्भर न रहकर किसान यदि विभिन्न प्रकार की फसलों को उगाते हैं तो इससे उत्पादन का जोखिम कम हो जाता है।

मृदा संरक्षणः जैविक खाद, कम्पोस्ट और हरी खाद आदि का उपयोग करने से मिट्टी की उर्वरता में सुधार होता है, और यह अधिक समय तक नमी को संरक्षित बनाए रखती है।

कम जल उपयोग वाली फसलें: ज्वार, बाजरा, मूंग, औषधीय एवं सगंध फसलें, जो कम पानी में भी अच्छी उपज देती हैं, किसानों को ऐसी ही फसलों का चुनाव प्राथमिक रूप से करना चाहिए।

कृषि वानिकीः किसानों को बांस की खेती को मिशन मोड में शुरू करना चाहिए, जो फर्नीचर उद्योग के लिए लकड़ी का विकल्प बन सकता है। प्रधानमंत्री ने बांस को ‘ग्रीन गोल्ड’ की संज्ञा भी प्रदान की है।

जैविक और प्राकृतिक खेती पर फोकस करें किसान

रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग करने से मृदा और जलस्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। जैविक और प्राकृतिक खेती इस चुनौती से लड़ने में किसानों की सहायता कर सकती है। इससे न केवल मिट्टी की गुणवत्ता सुधरती है, बल्कि कार्बन उत्सर्जन भी कम होता है और पर्यावरणीय स्थिरता बनी रहती है।

जल संरक्षण और सूक्ष्म सिंचाई

जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा की अनियमितताएं बढ़ी है। ऐसे में, किसान जल संरक्षण के निम्न उपायों को अपनाकर इससे उपज की चुनौतियों से लड़ सकते हैं-

टपक सिंचाई प्रणालीः सिंचाई की इस विधि से सिंचाई करने से पानी की बर्बादी नहीं होती और पानी सीधे पौधों की जड़ों तक पहुंचता है।

वर्षा जल संचयनः तालाब, कुंड और झीलें आदि बनाकर वर्षा जल का संग्रहण किया जा सकता है, जिसका उपयोग किसान सिंचाई के लिए कर सकते हैं।

मल्चिंग तकनीकः मल्चिंग करने से खेत में नमी बनी रहती है और इससे फसलों को पानी की आवश्यकता भी कम होती है।

हरित आवरण और वृक्षारोपणः किसानों द्वारा खेतों की मेड़ों पर या खाली पड़ी जमीन पर वृक्षारोपण करने से कार्बन का अवशोषण बढ़ता है। इससे ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में सहायता मिलती है। वृक्षों के द्वारा मिट्टी का कटाव को रोका जा सकता है और प्राकृतिक आवास संरक्षित रहते हैं। किसान कृषि वानिकी (एग्रो-फोरेस्ट्री) विधि को भी अपना सकते है, जिसमें फसलों और बड़े पेड़ों को एक साथ उगाया जाता है। इससे पर्यावरण और किसान दोनों को ही लाभ होता है।

पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय तकनीकः हमारे देश में सदियों से किसान परंपरागत रूप से मौसम और जलवायु के अनुरूप खेती करते आए है। किसान इन पारंपरिक तकनीकों को अपनाकर जलवायु परिवर्तन का सामना आसानी से कर सकते हैं:

बीज संरक्षणः पारंपरिक बीज, जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक सहनशील होते हैं, जो जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने में अधिक सक्षम हो सकते हैं।

स्थानीय किस्मों का चुनावः फसलों की स्थानीय किस्में जलवायु के प्रति अनुकूल होती हैं। अतः किसान इन प्रजातियों का भी चयन कर सकते हैं।

चंद्र-मास या पंचांग के अनुसार करें बुवाई का कामः पारंपरिक रूप से हमारे किसान भाई मौसम के चक्रों को देखकर बुवाई करते थे, जिससे फसल पर प्राकृतिक आपदाओं का प्रभाव कम हो जाता था।

कृषि यंत्रीकरण और सौर ऊर्जा का उपयोगः

  • सौर ऊर्जा से चलने वाले पंप और उपकरण बिजली की खपत को कम करते हैं।

  • कम डीजल खपत वाली मशीनें जलवायु परिवर्तन में योगदान देने वाली ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम कर सकती हैं।

सोलर एनर्जी के दुष्प्रभावों पर नियंत्रणः सोलर एनर्जी के उपयोग को नीतिगत समर्थन से गति मिली है, लेकिन वातावरण का तापमान बढ़ाने जैसे इसके नकारात्मक प्रभावों से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। एग्रो फारेस्ट्री के विकास में किसानों के मिशन मोड में कार्य करने से इस समस्या पर नियंत्रण संभव हो सकता है। साथ ही, सरकार को बायोमास कल्टीवेशन की नीति लागू करनी चाहिए, जो जैव ऊर्जा उद्यमों को कच्चा माल उपलब्ध कराएगा और हीट आइलैंड प्रभाव को कम करने में भी सहायता करेगा।

प्रशिक्षण और जानकारी की आवश्यकताः इसके सम्बन्ध में किसानों की भूमिका तभी प्रभावी हो सकती है, जब उन्हें उचित प्रशिक्षण और जानकारी प्राप्त करने की सुविधा उपलब्ध होगी। इसके लिए, सरकार और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करना बहुत जरूरी है। कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से किसानों तक नवीनतम तकनीकों की जानकारी पहुंचाने में भी मदद मिल सकती है। विभिन्न प्रकार के डिजिटल प्लेटफॉर्म, जैसे मोबाइल एप्स और एसएमएस सेवाओं के माध्यम से मौसम पूर्वानुमान और कृषि सलाह देना भी उपयोगी साबित हो सकता है।

प्रकृति के साथ तालमेल स्थापित करने की तकनीकः कृषि में हाइब्रिड बीजों, पानी की बढ़ती खपत और रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग करने से भूमि की उर्वरता कम हुई है, भूजल स्तर नीचे गिरा और जल संसाधन दूषित हुए हैं। इन समस्याओं का समाधान आवर्तनशील कृषि में ही निहित है, जो सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर आधारित है और पशु-पक्षी, वृक्ष, कीड़े एवं सूक्ष्मजीवों के प्राकृतिक क्रम को बनाए रखती है।

इस पद्धति में मिश्रित खेती, सब्जी-धान्य उत्पादन, पशुपालन, मछली-पालन और बागवानी आदि के लिए जमीन का विभाजन, जैविक खाद (गोबर, कम्पोस्ट, वर्मीकम्पोस्ट, नाडेप) आदि का उपयोग, सीमित सिंचाई व वर्षा जल संरक्षण, उत्पाद प्रसंस्करण और बीज संरक्षण शामिल हैं, जो खेती को टिकाऊ, प्राकृतिक अनुकूल और लाभकारी बनाता है।

सरकार, समाज और कृषि वैज्ञानिकों का सहयोगः किसानों की भूमिका को अधिक प्रभावी बनाने के लिए सरकार, कृषि वैज्ञानिक समुदाय और समाज को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। जलवायु अनुकूल बीजों और तकनीकों पर अनुसंधान, कृषि बीमा और वित्तीय सहायता योजनाएं, कार्बन क्रेडिट आदि योजनाओं आदि से किसानों को जोड़ने और स्थानीय स्तर पर किसान समूहों और सहकारी समितियों के गठन में बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। ग्राम पंचायतों की भागीदारी इसमें बड़ा योगदान प्रदान कर सकती है। 

महिला किसानों की भूमिका को बढ़ावाः ग्रामीण भारत में महिलाएं कृषि कार्यों में पुरुषों के बराबर ही योगदान देती हैं। यदि उन्हें जलवायु परिवर्तन के प्रति जागरूक किया जाए और उसके नेतृत्व की भूमिका उन्हें दी जाए तो सकारात्मक परिवर्तन तेजी से प्राप्त करना संभव हो सकता है।

कृषि अपशिष्ट प्रबंधन सीखें किसानः फसल काटने के बाद खेतों में पराली अथवा अन्य जैव अपशिष्टों को जलाने की प्रथा उत्तर भारत में एक आम बात है, जिससे भारी मात्रा में वायु प्रदूषण होता है। यह न केवल पर्यावरण के लिए लाभदायक होगा, बल्कि किसानों की आय का भी एक नया स्रोत भी बन सकता है।

  • पराली एवं अन्य कृषि अपशिष्ट तथा पशुपालन से उत्पन्न अपशिष्टों को खाद में परिवर्तित किया जा सकता हैं।

  • बायोगैस और बायोचार बनाने के लिए भी इनका उपयोग किया जा सकता हैं।

जलवायु परिवर्तन का समाधान सामूहिक प्रयासों से ही संभव है। अतः हमें किसानों को केवल पीड़ित न मानकर परिवर्तन के वाहक के रूप में देखना होगा। इसके सम्बन्ध में किसान पर्यावरण-अनुकूल खेती, जल-मृदा संरक्षण, जैविक खेती और प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग से जलवायु के प्रभाव को कम कर सकते हैं और एक समृद्ध व टिकाऊ भविष्य की नींव रख सकते हैं। इससे भारत की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य तक पहुंचाने में भी अपेक्षित तेजी आएगी।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।