फसल अवशेष प्रबंधन पर्यावरण संकट से समाधान की ओर      Publish Date : 13/08/2025

  फसल अवशेष प्रबंधन पर्यावरण संकट से समाधान की ओर

                                                                                                                                           प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

बुनियादी ढांचे में दीर्घकालिक निवेश, सतत प्रथाओं के प्रति जागरूकता बढ़ाना और पर्यावरण-अनुकूल तकनीकों को अधिक सुलभ बनाना पराली जलाने को कम करने के उचित साधन हो सकते हैं। जैविक ईंधन आधारित विद्युत संयंत्रों को वित्तीय प्रोत्साहन के तहत समर्थन करना, फसल अवशेषों के लिए एक बाज़ार तैयार करने में मदद कर सकता है, जबकि उनके संग्रह और बिक्री के लिए विकेंद्रीकृत प्रणालियों की स्थापना इस आपूर्ति श्रृंखला को अधिक मजबूती प्रदान करेगी।

भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहाँ लाखों किसान अनाज उत्पादन में जुटे हुए हैं। ऐसे में प्रत्येक वर्ष फसल कटाई के बाद खेतों में बचा हुआ अवशेष विशेषकर धान और गेहूँ की पराली अपने आप में एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आती है। इसे अपने खेत से जल्दी साफ करने के उद्देश्य से किसान पराली जलाने का सहारा लेते हैं, जो एक सस्ती और त्वरित विधि तो है, लेकिन इसके दूरगामी दुष्परिणाम अत्यंत घातक होते हैं।

पराली आदि को जलाने से न केवल वायु प्रदूषण होता है, बल्कि मिट्टी की उर्वरता, जलवायु, और मानव स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव पड़ता है। हालाँकि, सरकार और वैज्ञानिक संस्थानों द्वारा कई टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल समाधानों की पहल की जा रही है, परंतु उनकी प्रभावी क्रियान्वयन में अनेक बाधाएँ हैं। आज के अपने इस लेख में हम फ़सल अवशेष जलाने से उत्पन्न चुनौतियों, इसके कारणों, प्रभावों तथा सतत समाधान के विभिन्न रूपों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

भारत में फसल अवशेष जलाने की प्रथा का उद्भव और प्रसार

                                                                    

फसल अवशेष जलाने की प्रथा कई एशियाई देशों में, जिनमें भारत भी शामिल है, वर्ष 1986 में यंत्रीकृत खेती के उदय के साथ शुरू हुई। किसान पारंपरिक हाथों से कटाई की विधि, जिसमें फसल की जड़े खेत में रह जाती थी, से हटकर फसल अवशेष जलाने की ओर बढ़े क्योंकि यह एक लागत-कुशल विकल्प था।

मौसमी प्रवृत्तियाँः धान की पराली सर्दियों की शुरुआत से पहले जलाई जाती है ताकि ठंडे मौसम में गेहू की बुवाई की तैयारी की जा सके, जबकि गेहूं की पराली मानसून पूर्व जलायी जाती है। गन्ने की पराली कटाई के बाद जलाई जाती है, जो सामान्यतः मानसून के बाद या गर्मी की शुरुआत से पहले के मौसम में होती है, यह क्षेत्रीय कटाई के आधार पर निर्भर करता है।

क्षेत्रीय प्रसारः यह प्रथा पंजाब में शुरू हुई और धीरे-धीरे हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे पड़ोसी राज्यों में फैल गई।

अवशेष उत्पादन का स्तरः भारत में प्रतिवर्ष लगभग 686 मिलियन टन फसल अवशेष उत्पन्न होते हैं, जिनमें से केवल अनाज फसलें लगभग 368 मिलियन टन (लगभग 70 प्रतिशत) का योगदान करती हैं। जबकि इसमें अकेले धान का योगदान 34 प्रतिशत का है।

चित्रः भारत में फसल अवशेषों का उत्पादन और उनका जलाया जाना

                                           चारा (मिलियन टन में)

                 वर्ष

           उत्पन्न चारा

     जलाया गया चारा

1950-51

82

18

1960-61

135

30

1970-71

195

39

1980-81

217

49

1990-91

315

71

2000-01

366

82

2010-11

453

107

2017-18

517

116

बढ़ती चिंताएं

समय के साथ यह प्रथा बढ़ती गई है, जिससे पर्यावरण संबंधी समस्याएं और भी गंभीर हो गई हैं। इनमें से कुछ प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैः

आवश्यक पोषक तत्वों की हानिः पराली जलाने से नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, सल्फर और जैविक कार्बन जैसे लगभग 80% आवश्यक पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं, जो अन्यथा मिट्टी को समृद्ध कर सकते थे।

मिट्टी के स्वास्थ्य को क्षतिः फसल अवशेष जलाने से मिट्टी का तापमान बढ़ता है, मृदा में रहने वाले लाभकारी सूक्ष्मजीव मर जाते है और 0-15 सेंमी गहराई की मिट्टी परत, जहाँ तक फसल की जड़ें बढ़ती है, उसमें नाइट्रोजन और कार्बन की कमी हो जाती है।

ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जनः इस प्रक्रिया से CH, CO, N₂O, NOX और हाइड्रोकार्बन जैसी हानिकारक गैसें निकलती है। उदाहरण के लिए, धान की पराली जलाने पर 70% कार्बन CO, के रूप में, 7% CO के रूप में और 0.66% CH के रूप में उत्सर्जित होती है, जबकि 2.09% नाइट्रोजन N₂O के रूप में निकलती है।

वायु प्रदूषणः पराली जलाने से भारी मात्रा में सूक्ष्म कण उत्सर्जित होते हैं, जिनमें कैंसर कारक यौगिक होते हैं. जो श्वसन और अन्य वायुजनित बीमारियों को जन्म देते हैं। इसलिए फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन अत्यधिक महत्वपूर्ण है। निम्न तालिका विश्व भर में अपनाई जाने वाली सामान्य फसल अवशेष प्रबंधन प्रथाओं को दर्शाती है:

  क्र.सं.

              सामान्य प्रथाएं

                         देश

1.

नो-टिल खेती

अमेरिका, कनाडा, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया

2.

फसल अवशेषों का जलाना

भारत, चीन, मैक्सिको, उप-सहारा अफ्रीका, फिलीपीस

3.

बायोऊर्जा हेतु अवशेषों का उपयोग

अमेरिका, चीन, यूरोपीय संघ, ब्राजील, रूस, थाईलैंड, बांग्लादेश

4.

पशु चारा या खाद बनाना

उप-सहारा अफ्रीका, यूरोपीय संघ, मैक्सिको, पाकिस्तान, नेपाल, अफगानिस्तान

5.

उर्वरक के रूप में अवशेषों का उपयोग

चीन

भारत में फसल अवशेष प्रबंधन के विकल्प

                                                         

स्थानीय प्रबंधन तकनीकें और यांत्रिक उपकरण:

मल्चिंगः मिट्टी को कटाव से बचाता है, नमी बनाए रखता है, खरपतवारों को दबाता है और पोषक तत्वों से मिट्टी को समृद्ध करता है। स्ट्रॉ मल्चर फसल अवशेषों को काटकर फैला देता है ताकि नमी बनी रहे और खरपतवार न उगें। सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम कटाई के दौरान पराली को काटता और फैलाता है, जिससे अवशेषों को संभालना आसान होता है।

नो-टिल खेतीः बिना मिट्टी को उलटे पलटे बीज का बोना, जिससे नमी संरक्षित रहती है और कटाव कम होता है। हैप्पी सीडर खड़ी पराली में ही बिना जलाए बीज बोने की सुविधा देता है और नमी को संरक्षित रखता है। जीरो-टिल ड्रिल्स मिट्टी को बिना पलटे बीज बोने की सुविधा देते हैं, जिससे पराली की परत बनी रहती है।

स्ट्रिप-टिल खेतीः केवल संकीर्ण पट्टियों में जुताई की जाती है और बाकी खेत में पराली की परत यथावत रहती है। रोटावेटर अवशेषों को मिट्टी में मिलाकर उपजाऊपन बढ़ाते हैं।

कवर फसलें: भूमि को ढकने वाली फसलें मिट्टी को समृद्ध करती है और भविष्य में मल्च के रूप में उपयोग की जा सकती है।

फसल चक्रः विभिन्न फसलों के क्रमिक उत्पादन से कटाव कम होता है, पोषक तत्वों की कमी नहीं होती, और मिट्टी का स्वास्थ्य बेहतर होता है।

एक्स-सिटू प्रबंधन तकनीकें

बायोमास पावर जनरेशनः अवशेषों का उपयोग बिजली या गर्मी पैदा करने के लिए।

पशु चाराः फसलीय अवशेषों को पशु, भेड़ों, और बकरियों आदि के लिए चारे में परिवर्तित करना।

कंपोस्टिंगः अवशेषों को जैविक पदार्थों के साथ मिलाकर मिट्टी की उर्वरता और संरचना में सुधार करना। पूसा डी कंपोजर अवशेषों के शीघ्र अपघटन को बढ़ावा देता है जिससे खाद बनती है, उर्वरक की जरूरत कम होती है और प्रति एकड़ 1,000 से कम खर्च में फसल उत्पादन बेहतर होता है।

बायोचार उत्पादनः अवशेषों को ऑक्सीजन के बिना गर्म करके मिट्टी की उर्वरता, जल धारण क्षमता, और फसल उत्पादन में सुधार किया जाता है।

औद्योगिक उपयोगः अवशेषों का पुनः उपयोग कागज, वस्त्र, आदि के निर्माण सामग्री के रूप में किया जाता है। इन-सिटू (मूल स्थान पर) और एक्स-सिटू (मूल स्थान से हटा कर) दोनों तरीके जलाने से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को कम करते हैं। ये प्राकृतिक पोषक तत्व प्रदान करते हैं, उर्वरक की निर्भरता घटाते हैं, और मिट्टी के स्वास्थ्य को बेहतर बनाते हैं। किस तकनीक का चयन करना है यह फसल के प्रकार, अवशेष की मात्रा, और उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर करता है।

किसान फसल अवशेष जलाने का विकल्प क्यों चुनते हैं?

                                                     

धान-गेहूं फसल प्रणाली में समय की कमीः अक्टूबर में धान की कटाई और नवंबर में गेहूं की बुवाई के बीच का समय बहुत कम होता है। विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा में किसान तेजी से खेत साफ़ करने के लिए फसल अवशेष जलाने को मजबूर हो जाते हैं।

हाथ से अवशेष हटाने की उच्च लागतः फसल अवशेषों को हाथ से हटाने की लागत 6,000-7,000 प्रति एकड़ तक होती है, जबकि जलाना सस्ता और तेज विकल्प माना जाता है।

सतत तकनीकों को अपनाने की सीमितताः हैप्पी सीडर जैसी तकनीकें जो पराली काटते हुए गेहूं की बुवाई कर सकती है, का 1,000 किराया और 2,000 डीजल प्रति एकड़ में उपलब्ध हैं। हालाँकि सरकार सब्सिडी देती है, फिर भी रोटावेटर और स्ट्रॉ बैलर जैसे उपकरण छोटे और सीमांत किसानों के लिए बहुत महंगे साधन हैं, जिससे इन्हें अपनाने में बाधा आती है।

बुनियादी ढांचे की कमीः फसल अवशेषों के संग्रह, भंडारण और परिवहन के लिए बड़े पैमाने पर सुविधाओं की कमी है, जिससे उन्हें बायोमास-आधारित विद्युत संयंत्रों और उद्योगों में उपयोग नहीं किया जा सकता। विनियामक चुनौतियाँ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) जैसी संस्थाओं द्वारा लगाए गए जुर्माने जैसी मौजूदा व्यवस्थाएं असंगत रूप से लागू होती है और किसानों को कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं देतीं हैं।

छोटे किसानों के लिए वित्तीय बाधाएं: 2 हेक्टेयर से कम भूमि वाले किसान वित्तीय सीमाओं के कारण दीर्घकालिक पर्यावरणीय लाभों की तुलना में अल्पकालिक लागत बचत और दक्षता को प्राथमिकता देते हैं।

फसल अवशेष प्रबंधन (CRM) हेतु सरकारी हस्तक्षेप

CRM योजना का शुभारंभ वर्ष 2018: पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में वायु प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से शुरू की गई यह योजना प्रदूषण में कमी और बायो-डीकम्पोजर फंगल कंसोर्टियम के बड़े पैमाने पर प्रदर्शन पर केंद्रित है।

पुनर्गठित राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY-2022-23): राष्ट्रीय कृषि विकास योजना को कृषि यंत्रीकरण पर उप-मिशन के साथ पुनर्गठित किया गया, जो ब्त्ड उपकरण और कृषि मशीनरी की खरीद के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करता है।

विभिन्न कार्यक्रमों से समर्थनः राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, कृषि अवसंरचना कोष (AIF) और विभिन्न कृषि विस्तार कार्यक्रमों से CRM योजना को मजबूती मिलती है।

कस्टम हायरिंग सेंटर्स (CHCs): 40,000 से अधिक CHCS की स्थापना की गई है, जिन्होंने केंद्रों और व्यक्तिगत किसानों को 2,95,000 से अधिक CRM मशीनें वितरित की है, जिससे उनकी उपलब्धता बढ़ी है।

बायोमॉस आपूर्ति श्रृंखला में निवेशः भारत सरकार के द्वारा बायोमॉस आपूर्ति श्रृंखलाओं को मजबूत करने और एक्स-सीटू उद्योगों के लिए पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देने के लिए धन आवंटित किया गया है।

ICAR प्रदर्शनः भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने वर्ष 2022-23 के दौरान 20,000 हेक्टेयर क्षेत्र में फसल अवशेष प्रबंधन मशीनरी का प्रदर्शन किया, जिससे टिकाऊ प्रथाओं के लिए किसान प्रशिक्षण और क्षमताओं का मार्ग प्रशस्त हुआ।

आगे की राह

उपलब्ध सरकारी सब्सिडी के बावजूद, कृषि उपकरणों की उच्च लागत कई किसानों के लिए बाधा बनी हुई है। इससे निपटने के लिए सब्सिडी बढ़ाना, सह-स्वामित्व मॉडल को प्रोत्साहित करना, और जल्दी परिपक्व होने वाली फसल किस्मों को बढ़ावा देना किसानों को अवशेषों का बेहतर प्रबंधन करने में मदद कर सकता है।

अवसंरचना में दीर्घकालिक निवेश, सतत प्रथाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाना और पर्यावरण-अनुकूल तकनीकों को अधिक सुलभ बनाना पराली जलाने को कम करने की कुंजी होंगे। बायोमॉस-आधारित बिजली संयंत्रों को वित्तीय प्रोत्साहन देकर फसल अवशेषों के लिए एक बाजार बनाया जा सकता है। जबकि उनके संग्रह और बिक्री के लिए विकेंद्रीकृत प्रणालियों की स्थापना से इस आपूर्ति श्रृंखला को मजबूती मिलेगी।

इसके अतिरिक्त, बायोडीजल जैसे जैव ईंधनों को बढ़ावा देना उनकी उपलब्धता में और सुधार कर सकता है। फसल अवशेषों में औद्योगिक उपयोग की भी अपार संभावनाएं हैं, जैसे कि सीमेंट में चावल की भूसी की राख, कागज में केले के छिलके और गन्ने के अवशेष, और मशरूम की खेती के लिए भूसी व बगास की राख का उपयोग। चारे के मोर्चे पर, भारत को 23.4% राष्ट्रीय घाटे का सामना करना पड़ता है, जो पश्चिमी क्षेत्र में 43.5% तक पहुँच जाता है।

इसका समाधान यह है कि अधिशेष पराली को जरूरत वाले क्षेत्रों में स्थानांतरित किया जाए और चारे को गांठों (bales) में बदलकर आसान परिवहन और भंडारण सुनिश्चित किया जाए। इन समाधानों को लागू करके हम पर्यावरणीय स्थिरता और कृषि में आर्थिक विकास दोनों को बढ़ावा दे सकते हैं।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।