
ग्रामीण भारत के उत्थान का प्रश्न Publish Date : 12/08/2025
ग्रामीण भारत के उत्थान का प्रश्न
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
चौ. चरण सिंह कहते थे कि तीन चीजें छोटे पैमाने की खेती, उच्च उत्पादकता और कृषि उपज की कम कीमतें कभी भी एक साथ नहीं रह सकतीं।
भारत कपा स्वाधीनता संग्राम आंदोलन अपने प्रारंभिकः दौर में संपन्न एवं अभिजात वर्ग के द्वारा संचालित होता रहा। गांधी जी के अफ्रीका से लौटने के बाद इसे व्यापक बनाने के प्रयास तेज हुए। पहले इसमें किसान, मजदूर एवं वंचित समूहों की हिस्सेदारी न के बराबर थी। इसी बीच चंपारण के किसान आंदोलन की गूंज गांधी जी को भी वहां ले गई। वर्ष 1917 में लंबे समय तक गांधी जी ने नील उत्पादक किसानों की समस्याओं का गहराई से अध्ययन किया कि किस प्रकार अंग्रेजों द्वारा तीन कठिया प्रणाली लागू की गई, जिसके तहत किसानों की जमीन 3/20 हिस्से पर नील की खेती जबरन कराई जाती थी।
यह वह दौर था, जब यूरोप में औद्योगीकरण रफ्तार पकड़ चुका था और भारत जैसे औपनिवेशिक देशों के कृषकों को नील सप्लाई करने के लिए बाध्य होना पड़ता था। इसी बीच चंपारण किसानों की मांगों के माने जाने के बाद गांधी जी की प्रसिद्धि समूचे देश में गूंजने लगी। सरदार पटेल संयुक्त गुजरात के कांग्रेस के एक बड़े नेता के रूप में प्रसिद्ध होकर किसान प्रश्नों पर भी उतने ही सक्रिय थे। आजादी के आंदोलन का स्वरूप बदलते लगता है और असहयोग आंदोलन में ग्रामीणों की व्यापक भागीदारी होने लगी।
वर्ष 1928 में पुनः गुजरात प्रांत के बरदोली संभाग में किसानों पर लगान की दरें करीब 22 फीसदी बढ़ा दी गई। इसके विरोध में सरदार पटेल ने गांव-गांव जाकर किसानों को संगठित किया। सरकार को विवश होकर बढ़ा हुआ लगान वापस लेना पड़ा। इधर उत्तर भारत विशेषकर संयुक्त प्रांत उत्तर प्रदेश में चौ. चरण सिंह इन किसानों की एक मुखर आवाज बनकर उभर रहे थे। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत्त में ही उन्होंने ग्रामीण शहरी विभाजन और अभिजात वर्ग द्वारा नौकरशाही पर एकाधिकार जैसे सवालों को उठाना शुरू कर दिया था।
ची. चरण सिंह की ग्रामीण इलाकों के खिलाफ बड़ा पूर्वाग्रह कृषि उपज के लिए दिए जाने वाले कम दामों में दिखाई दिया। उनका आंकलन था कि तीन चीजें छोटे पैमाने की खेती (भारत में एक अपरिहार्य स्थिति), उच्च उत्पादकता और कृषि उपज की कम कीमतें यह तीनों एक साथ नहीं रह सकतीं थी। भारत की स्थितियों को देखते हुए, एकमात्र उपाय किसानों को लाभकारी मूल्य देना चाहिए।
वर्गों के बीच बढ़ती खाई को पाटने एवं प्रशासनिक सेवाओं में समानता लाने के लिए चौ. चरण सिंह एक राजनीतिक प्रस्ताव लाए ‘कृषि पुत्रों’ के लिए 60 फीसदी का आरक्षण लागू किया जाए। यह प्रस्ताव कांग्रेस कार्य समिति की वर्ष 1939 की एक बैठक में प्रस्तुत किया गया था। यद्यपि यह कार्य समिति इस प्रस्ताव को स्वीकृत नहीं कर पाई, लेकिन इससे सामाजिक न्याय के आंदोलन की बुनियाद अवश्य खड़ी हो गई थी।
चो. चरण सिंह ने कहा था कि वर्ष 1931 में हुई जातिगत जनगणना के अनुसार, यूपी में कृषि समुदाय 55 फीसदी आंके गए। अगर इसमें खेतिहर मजदूरों को शामिल किया जाता है, तो यह आंकड़ा 75 फीसदी का होता। उनके अनुसार, ‘कृषि पुत्रों’ के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की उनके शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर भी उचित ठहराया जा सकता है, जिसके लिए उनके पुरखे नहीं, बल्कि राज्य या समाज जिम्मेदार है। प्राथमिक शिक्षा के अलावा, सभी शैक्षणिक संस्थाएं शहरों में स्थित हैं।
कम से कम जो लोग वर्ग संघर्ष में विश्वास करते हैं और हमेशा किसानों और मजदूरों के शोषकों के खिलाफ उनके अधिकारों की वकालत करते हैं, उन्हें इस प्रस्ताव सहित हर कदम का समर्थन करना चाहिए।
वर्ष 1939 की कांग्रेस समिति द्वारा अस्वीकृत प्रस्ताव 14 अक्तूबर, 1949 की संविधान सभा की बहस का एक मुख्य मुद्दा बना। डॉ0 आंबेडकर द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के सेवा एवं पदों में आरक्षण के साथ-साथ किसान समुदायों के लिए हिस्सेदारी की बातभी उन्होंने की थी। एक अन्य सदस्य गुप्त नाथ सिंह ने प्रस्ताव रखा कि जो वर्ग भारतीय समाज की रीढ़ है, जैसे कृषक, पशुपालक या कारीगर वर्ग आदि- हालांकि इन्हें एससी या एसटी में नहीं गिना जाता है, लेकिन उन्हें सरकारी सेवाओं में सेवा का अवसर दिया जाने चाहिए।
आजादी के बाद वर्ष 1952 में प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि के लिए 35 फीसदी और औद्योगिक क्षेत्रों के लिए 15 फीसदी राशि का आवंटन किया गया। इन योजनाओं का गठन पं0 नेहरू की अध्यक्षता में होता रहा। पं0 नेहरू अपनी सोवियत संघ की यात्रा के दौरान वहां के औद्योगीकरण की सफलता से काफी प्रभावित होकर लौटे, जिसका असर वर्ष 1962 की तृतीय योजना में स्पष्ट रूप से देखने को मिला, जब कृषि का आवंटन 15 फीसदी और औद्योगीकरण के लिए 35 फीसदी किया गया। ग्रामीण क्षेत्रों की खराब स्थिति के कारण गेहूं और चावल तक के लिए हमें आयात पर निर्भर होना पड़ा।
यद्यपि बाद में पं0 नेहरू ने इस काट-छांट के लिए संसद में अफसोस व्यक्त किया। ग्रामीण भारत के उत्थान एवं संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए चौधरी चरण सिंह अनवरत कार्य करते रहे।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।