
पर्यावरण संरक्षण का भारतीय दर्शन Publish Date : 01/08/2025
पर्यावरण संरक्षण का भारतीय दर्शन
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
स्वच्छ पर्यावरण को हमारे देश में प्राचीन काल से ही वरीयता दी गई है। सच तो यह है कि हमारा भारतीय दर्शन पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से जितना समृद्ध है, उतना किसी अन्य देश का नहीं। पर्यावरण संरक्षण का भारतीय दर्शन इतना व्यावहारिक है कि यह हमारी जीवनशैली से जुड़ा हुआ है। यही कारण है कि सभी सामाजिक सांस्कृतिक परंपराओं व प्रथाओं के मूल में कहीं न कहीं पर्यावरण सुरक्षा को महत्व दिया गया है। भारत में प्राचीन काल से सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पतियों, सरिताओं और सरोवरों आदि को पूजनीय मानने की परंपरा रही है, जिसके मूल में पर्यावरण संरक्षण का भाव ही निहित है। सूर्याेपासना, ग्रहों का अन्वेषण, अग्निपूजा एवं वृक्ष पूजा आदि की परंपराएं विकसित कर हमने सदैव पर्यावरण संरक्षण को आगे बढ़ाने का कार्य किया।
पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ हमारे देश में जैवविविधता को संरक्षित रखने और उसे समृद्ध बनाने पर भी पूरा ध्यान दिया गया। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में जीव-जंतुओं को हानि पहुंचाने तथा उनका भक्षण करने की अनुमति नहीं है। जीवों की उपयोगिता के अनुरूप हमने उन्हें धार्मिक और सामाजिक मान्यता प्रदान की और उनके पूजन की परंपरा शुरू कर उनके संरक्षण का संदेश दिया। गाय भारतीय समाज में आज भी पूज्य है। भारत के अनेक आदिवासी क्षेत्रों में पशुओं, वृक्षों व वनस्पतियों आदि को पूजने की प्राचीन परंपरा है। इतना ही नहीं, आदिवासियों के वस्त्र तक प्रकृति के अनुरूप रंग-बिरंगे होते हैं।
इनकी जीवन-शैली में प्रकृति का पूरा प्रभाव दिखता है। हम नाग को नाग देवता कहकर श्नागपंचमीश् जैसा त्यौहार अकारण नहीं मनाते। पर्यावरण की दृष्टि से इसका अपना अलग महत्व है। सांपों का हमारे पर्यावरण और खाद्य श्रृंखला में कितना महत्व है, इसे सभी जानते हैं। हमारे भारतीय दर्शन में पर्यावरण को ईश्वर के प्रतिरूप के रूप में सम्मानित व संरक्षणीय माना गया है।
तैत्तरीयोपनिषद में कहा गया है- ईश्वरीय आत्मा से आकाश की, आकाश से वायु की, वायु से अग्नि की और अग्नि से जल की तथा जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। पृथ्वी ने वनस्पति उपजाई, अन्न दिया और मानवजाति सहित असंख्य जीव-जंतुओं को उत्पन्न किया। इस सृष्टि में प्रत्येक जीव-जंतु की महत्वपूर्ण भूमिका है। हमारे देश में पर्यावरण और प्रकृति प्रेम को जीवन से अभिन्न रूप से जोड़कर इसके संरक्षण के संस्कार विकसित किये गये।
भारत में पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति प्रेम की जड़ें बहुत गहरी हैं, जिन्हें हम बराबर सींचते आए हैं। हमने धरती को श्माताश् कहकरसंबोधित किया और जीवनदायिनी नदियों को भी श्मांश् के ही समतुल्य माना। इसके पीछे यही धारणा थी कि हम इनका संरक्षण करें ताकि ये मानव जीवन को सुखमय बनायें। हमने बहुत पहले इस मर्म को समझ लिया था कि मानव जीवन को बनाए रखने के लिए प्रकृति एवं पर्यावरण को संरक्षित और समृद्ध बनाए रखना नितांत आवश्यक है और इन्हें क्षति पहुंचाकर सुखद मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि हम सदैव प्रकृति के प्रति कृतज्ञ बने रहे और उससे ऊर्जा और प्रेरणा प्राप्त करते रहें।
जीवन के हर पहलू में हमने प्रकृति के महत्व को सर्वाेपरि रखा। जन्म से मरण तक हम प्रकृति और पर्यावरण को साथ लेकर चले। पहले हमारे यहां यह विधान था कि जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती थी, तो जिस स्थान पर उसकी चिता जलाई जाती थी, उसके चारों कोनों पर मरने वाले के परिजन चार वृक्ष लगाते थे। इतना ही नहीं, वर्ष पर्यन्त इन वृक्षों की देखभाल भी परिजन करतेथे और इन्हें दूध व जल से सींचते थे। ऐसा विधान किसी अन्य देश में शायद ही हो।
हालांकि समय की आपाधापी, स्थानाभाव एवं जीवनशैली में आए बदलावों के कारण यह पुरानी परंपरा अब लुप्तप्राय है और अब टहनियां गाड़कर इस विधान को सांकेतिक रूप से पूरा किया जाता है। आज ऐसी परंपराओं को पुनर्जीवित किए जाने की अत्यंत आवश्यकता है ताकि ये धरती हरी-भरी रहे। भारतीय समाज आदिकाल से पर्यावरण संरक्षक की भूमिका निभाता रहा। हमने प्रकृति प्रेम को सर्वाेपरि रखा। यही कारण है कि हमारे वेद, उपनिषद् व पुराण आदि प्रकृति व पर्यावरण की महिमा से भरे हुए हैं।
अथर्ववेद के भूमि सूक्त में कहा गया है-
अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु
मातरम् औषधीनाम्
मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पितम्।
अर्थात् हे भूमि, तेरे वन हमारे लिए सुखदायी हों। भूमि तेरे वृक्षों को में इस तरह काटूं कि शीघ्र ही वे पुनः अंकुरित हो जाएं, सम्पूर्ण रूप से काटकर मैं तेरे मर्मस्थल पर प्रहार न करूं। भूमि को औषधियों की माता माना गया है।
पर्यावरण संरक्षण के प्रति हम प्राचीन काल से ही अत्यंत सजग और चेतन रहे। हमने स्वच्छ वायु की उपादेयता और उसके महत्व को बहुत पहले ही समझ लिया था। तभी तो ऋग्वेद में कहा गया है-
वात आ वातु भेषजं मयोभु नो हदे
यददो बात ते गृहे अमृतस्य निधिर्हितः ।
वायु की महत्ता को रेखांकित करने वाली उक्त पंक्तियों से आशय यही है कि वायु हमें ऐसी औषधि दे जो शांति और आरोग्य प्रदान करे। इसमें निहित अमृत रूपी निधि हमारी आयु को बढ़ाकर हमें दीर्घजीवी बनाए। स्पष्ट है कि हमने स्वस्थ जीवन के लिए वायु के महत्व को समझा और इसे प्रदूषित होने से बचाने का संकल्प भी लिया।
वृक्षारोपण को पुण्य का कार्य बताया गया। इसे संस्कार के रूप में किस तरह प्रतिपादित किया गया, इसका पता विष्णु धर्म सूक्त की इन पंक्तियों से चलता है- श्एक व्यक्ति द्वारा पालित एवं पोषित वृक्ष एक पुत्र से भी अधिक महत्व रखता है। देवता इसके फूलों से, पथिक इसकी छाया में विश्राम कर तथा मानव इसके फलों का रसास्वादन कर इन वृक्षों के प्रत्ति कृतज्ञता व्यक्त करता है।
हमारे मनीषियों-मनस्वियों ने किस प्रकार हमें वृक्षारोपण के लिए प्रेरित किया, इसका पता वराह पुराण के इस संदेश से चलता है- श्पंचाम्रवाती नरकं न याति।श् अर्थात् आम के पांच पौधे लगाने वाला कभी नरकगामी नहीं होता।
पर्यावरण संरक्षण के जिस भारतीय दर्शन की नींव भारत के तपस्वियों, ऋषियों, मुनियों ने रखी, उसे हमारे सम्राटों व शासकों ने राजकीय संरक्षण भी दिया। उन्होंने जनहितकारी कार्यों में उन कार्यों को वरीयता दी, जो पर्यावरण संरक्षण से जुड़े थे। बड़े-बड़े सरोवरों और जलाशयों का निर्माण करवाया गया तथा फलदार और छायादार वृक्ष लगवाए। चंद्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक व हर्षवर्धन जैसे सम्राटों ने तो इस दिशा में विशेष ध्यान दिया।
मध्यकाल में भी शासकों ने पर्यावरण संरक्षण पर विशेष महत्व दिया और बागवानी की कला इसी काल में विकसित हुई। मध्यकाल के सम्राट शेरशाह सूरी ने अपने शासनकाल में अनेक जनहितकारी कार्य किए थे, जिनमें सड़कों का निर्माण मुख्य था। तब विकास कार्यों को करते समय भी पर्यावरण संरक्षण का पूरा ध्यान रखा जाता था। आज विकास, विनाश का पर्याय बन गया है और ऐसा करते हुए हम पर्यावरण की जमकर अनदेखी करते हैं। हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण की जो समृद्ध परंपरा प्राचीनकाल से शुरू हुई, वह अनवरत जारी है।
प्रत्येक काल में हमने पर्यावरण के प्रति अपनी सजगता और चेतना को कम नहीं होने दिया। हमें हमारे दर्शन से यह सीख मिली है कि प्रकृति और पर्यावरण ईश्वर का ही प्रतिरूप है, इसलिए इसके प्रति आदर व सम्मान का भाव रखकर हमें प्रकृति और पर्यावरण का संवर्धन करना चाहिए।प्रकृति और पर्यावरण के प्रति हमारा जो सम्मान भाव है, जो हमें हमारे दर्शन से प्राप्त हुआ है, उसी का यह परिणाम है कि पर्यावरण की दृष्टि से विश्व के दूसरे देशों की तुलना में भारत की स्थिति आज भी बहुत अच्छी है। आज समूचा विश्व पर्यावरण असंतुलन से उपजी अनेकानेक समस्याओं से जूझ रहा है। भारत भी इन समस्याओं से दो-चार हो रहा है।
स्वार्थी मनुष्य निरंतर प्रकृति का दोहन कर रहा है और ऐसा करते हुए उसका आचरण प्रकृति विरोधी हो चुका है। जिस धरा को हम धरती माता कहकर संबोधित करते हैं, उसी घरा की छाती को स्वार्थ में अंधे होकर छलनी करने में संकोच नहीं करते।
कवयित्री महादेवी वर्मा की पंक्तियों में-
उक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि प्रकृति तो हमें सर्वस्व प्रदान करती है, किन्तु हम स्वार्थमय होकर प्रकृति का तनिक भी ध्यान नहीं रखते हैं। हमारे स्वार्थमय आचरण ने ही पर्यावरण असंतुलन जैसी वैश्विक समस्या को जन्म दिया है। पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाले अधिकांश कारण मानवजनित ही हैं और इनमें विकसित देशों का विशेष योगदान है। आज के संदर्भों में यह अत्यंत आवश्यक है कि हम पर्यावरण संरक्षण के अपने प्राचीन दर्शन में प्राण फूंकें और उससे विमुख न हों। हमारा देश कृषि प्रध् शान है, देश के किसानों का भाग्य मौसम तय करता है।
हमारी खाद्यान्न सुरक्षा और सुख-समृद्धि के लिए मौसम की अनुकूलता नितांत आवश्यक है और इस अनुकूलता को बनाए रखने के लिए प्रकृति और पर्यावरण को संरक्षित रखना अपरिहार्य व आवश्यक है। हमारे पास पर्यावरण संरक्षण के भारतीय दर्शन का ठोस घरातल विद्यमान है। आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण संरक्षण का जो मार्ग हमें हमारे पूर्वजों ने दिखाया है, हम उस पर मजबूत कदम बढ़ाएं और एक बार फिर अपने वेदों, उपनिषदों की ओर लौटें। ऐसा करते हुए हम उस वैश्विक समुदाय को दर्पण दिखा सकते हैं, जो इस साझा चुनौती से निपटने में अब तक असफल रहा है। अपनी वैदिक संस्कृति के प्रसार से ऐसा करते हुए भारत ‘‘विश्व गुरु’’ की अपनी भूमिका में वापस आ सकता है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।