
जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रही चरम मौसम की घटनाएं Publish Date : 29/07/2025
जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रही चरम मौसम की घटनाएं
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
भारत सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चरम मौसम की घटनाओं की संख्या और आवृत्ति लगातार बढ़ती ही जा रही है। इन घटनाओं के पीछे मूल कारक मानव गतिविधियों से प्रेरित जलवायु परिवर्तन है। लेखक ने जलवायु परिवर्तन के संदर्भ बिन्दु के साथ गर्मी के मौसम, अल नीनो, ला नीना, चक्रवात और मौसम पूर्वानुमान को जोड़ते हुए यह महत्वपूर्ण लेख अपने पाठकों के लिए तैयार किया है।
पृथ्वी के अधिकांश भागों में, तीव्र गर्मी की घटनाएं, तेजी से न केवल आम बल्कि गंभीर भी होती जा रही हैं। मानव गतिविधियों के कारण उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसें ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप चरम मौसम की घटनाएं अधिक हो रही हैं, जिनमें तीव्र गर्मी की लहरें भी शामिल हैं। भारत, अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के कारण, अत्यधिक गर्मी के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है।
खूब चढ़ा पारा
गत वर्ष मई महीने के आखिरी दिनों में भारत की राजधानी दिल्ली में पारा 49.9 डिग्री सेल्सियस (121.8 डिग्री फारेनहाइट) के अपने उच्चतम तापमान तक पहुंच गया जो मई 2022 में देखे गए दिल्ली के पिछले उच्च रिकॉर्ड 49.2 डिग्री सेल्सियस (120.5 डिग्री फारेनहाइट) को भी पार कर गया। उत्तर-पश्चिमी भारत में पारा बढ़ने के मामले में दिल्ली ही एक अकेला शहर नहीं था। राजस्थान राज्य के चुरू शहर में तापमान 50.5 डिग्री सेल्सियस (122.9 डिग्री फारेनहाइट) तक, वहीं हरियाणा के सिरसा में थर्मामीटर 50.3 डिग्री सेल्सियस (122.5 डिग्री फारेनहाइट) तक चढ़ा। मानव-जनित जलवायु संकट का मानसून पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है जैसे मानसून की देरी या अनियमितता, वर्षा पैटर्न में बदलाव, अत्यधिक वर्षा घटनाएं, मानसून की तीव्रता अर्थात् कम समय में भारी वर्षा इत्यादि।
इसके अलावा सबसे बड़ी आशंका यह भी है कि जलवायु परिवर्तन से मानसून की सटीक भविष्यवाणी कर पाना अधिक कठिन हो सकता है, जिससे कृषि नियोजन और जल प्रबंधन में भी कठिनाई होगी। हालांकि भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने पहले ही कह दिया था कि पूर्व, पूर्वाेत्तर और उत्तर-पश्चिम में अलग-अलग स्थानों को छोड़कर, शेष भारत अप्रैल, मई और जून में सामान्य अधिकतम तापमान से अधिक का अनुभव कर सकता है। उसने यह भी भविष्यवाणी कर दी थी कि दक्षिणी प्रायद्वीप, मध्य भारत, पूर्वी भारत और उत्तर-पश्चिम भारत के मैदानी इलाकों के अधिकांश हिस्सों में सामान्य से अधिक हीटवेव वाले दिन हो सकते हैं।
असमय गर्मी, तूफान और आकाशीय आपदाओं का तांडव
आज देश के तमाम हिस्सों में समय से पूर्व ही गर्मी अपना कहर ढाने लगी है और बसंत ऋतु सिकुड़ता जा रहा है। भारत की तकरीबन आधी आबादी, भीषण गर्मी की चपेट में आ रही है। इसके साथ ही लू, आंधी-तूफान और आकाशीय आपदाओं में असमय ही अनेक जानें काल के गाल में समा जा रही हैं। केवल गत वर्ष ही, आंधी तूफान और आकाशीय आपदा में 1200 से अधिक जानें चली गई हैं। हाल के वर्षों में, पहले से ज्यादा आने वाले, मानसून-पूर्व के उष्णकटिबंधीय चक्रवाती विपदाओं ने भी अत्यधिक तांडव मचाया है। वर्तमान में, ग्रीनहाउस गैस, सतह का तापमान, समुद्र की गर्मी व ग्लेशियर के पीछे हटने के रिकॉर्ड टूटते जा रहे हैं।
पूर्वानुमानों के जारी किए जाने वाले अलर्ट और तमाम एहतियाती इंतजामों के बावजूद, चरम मौसमी घटनाओं के भयानक मंजर आए दिन दिखाई देते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र (यूएन) महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का कहना है कि रिकॉर्ड गर्मी, बर्फ की हानि, जंगल की आग, बाढ़ और सूखा ने दुनिया भर के समुदायों, राष्ट्रों तथा अर्थव्यवस्थाओं को बुरी तरह प्रभावित किया है, तथापि यह सिलसिला जारी है। इस पर अतिशीघ्र अंकुश लगाना ही होगा।
मौसम पूर्वानुमान की एजेंसियां
डेटा कवरेज और वैश्विक प्रभाव के आधार पर आज मौसम अनुमान की दुनिया में कई बड़ी एजेंसियां कार्य कर रही हैं। इनमें से कुछ प्रमुख निम्नवत हैं:-
विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO): यह एक अंतर सरकारी संस्था है जो राष्ट्रीय मौसम विज्ञान सेवाओं को समन्वयित करती है और जलवायु डेटा इकट्ठा करती है।
यूरोपीय सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ECMWF): यह एक स्वतंत्र वैज्ञानिक संगठन है जो वैश्विक मौसम और जलवायु मॉडल विकसित करता है।
नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA): यह अमेरिकी संघीय एजेंसी है जो मौसम और जलवायु डेटा इकट्ठा करती है और पूर्वानुमान जारी करती है।
जापान मौसम विज्ञान एजेंसी (JMA): यह जापान की राष्ट्रीय मौसम विज्ञान सेवा है जो पूर्वानुमान और चेतावनी जारी करती है।
चीन मौसम विज्ञान प्रशासन (CMA): यह चीन की राष्ट्रीय मौसम विज्ञान सेवा है जो पूर्वानुमान और चेतावनी जारी करती हैं।
इनके अलावा, कई अन्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मौसम विज्ञान एजेंसियां हैं जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
आईएमडीः मौसम की भविष्यवाणी और आपदा प्रबंधन में भारत का स्तंभ
भारत में, भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी), जो अपनी स्थापना के 150वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है, का शुमार दक्षिण एशिया के क्षेत्रीय जलवायु केंद्र के रूप में किया जाता है, क्योंकि यह न केवल भारत वरन् समस्त पड़ोसी क्षेत्र के लगभग 13 देशों हेतु पूर्वानुमानों का ऐसा केंद्र बन चुका है, जिसकी जानकारियों का उपयोग चक्रवात प्रबंधन प्रणालियों के संचालन में सहायक बन रहा है। वर्ष 1875 में दो विनाशकारी चक्रवातों के आने के पश्चात, भारत में, आईएमडी के अस्तित्व में आने के बाद विकसित हुए चेतावनी तंत्रों ने पूर्व में होने वाले जीवन एवं संपत्ति के विनाश पर काफी अंकुश लगाया है।
आईएमडी भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अंतर्गत मौसम विज्ञान एवं संबद्ध विषयों से संबंधित सभी मामलों में एक प्रमुख एजेंसी के रूप में कार्यरत एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय मौसम विज्ञान सेवा है। आज आईएमडी देश भर में अपने अनेक स्थायी वेधशालाओं व स्वचालित मौसम स्टेशनों के साथ एक विशाल संगठन के रूप में विकसित हो चुका है। साथ ही, वह संयुक्त राष्ट्र के श्सभी के लिए पूर्व चेतावनी ‘(Early Warning for All)' कार्यक्रम में योगदान देने के लिए साझेदारी भी कर रहा है।
अल नीनो और ला नीनाः जलवायु व मौसम पैटर्न पर वैज्ञानिक समझ
यद्यपि, प्रशांत महासागर के तापमान और वायुमंडलीय दबाव में बदलाव लाने वाली दो प्राकृतिक जलवायु घटनाएं ‘अल नीनो’ और ‘ला नीना’ दुनिया भर में मौसम के पैटर्न को मुख्य रूप से प्रभावित करती हैं तदापि वैज्ञानिक अभी भी इन घटनाओं की भविष्यवाणी कर पाने की अपनी क्षमता में सुधार करने हेतु काम कर रहे हैं। मानव गतिविधियों से सीधे तौर पर इन घटनाओं का संबंध नहीं जोड़ा जा सका है। वैज्ञानिक आज भी इन घटनाओं के बारे में पूरी तरह से समझने का प्रयास कर रहे हैं कि ये कैसे जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो सकते हैं।
इन घटनाओं से, वैश्विक स्तर पर, चरम मौसम घटनाओं में वृद्धि, समुद्री तल में वृद्धि, मछली पकड़ने में व्यवधान जैसी बातें सामने आती हैं।
ज्ञातव्य है कि अल नीनो पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में सतह के पानी के असामान्य रूप से गर्म होने की घटना है। इसके कारण, भारत में, कम वर्षा, सूखा, कमजोर मानसून आदि समस्याएं पैदा होती हैं। वहीं, ला नीना की घटना में पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में सतह का पानी के असामान्य रूप से ठंडा हो जाता है, जो भारत के विभिन्न स्थानों पर अधिक वर्षा, बाढ़, तीव्र मानसून आदि का कारण बनता है। यह दोनों ही घटनाएं, आमतौर पर 9 महीने से 2 साल तक रहती हैं, किन्तु कभी-कभी 18 महीने तक भी रह सकती हैं।
कुछ हालिया अनुसंधानों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन, अल नीनो और ला नीना जैसी घटनाओं को अधिक तीव्र बना रही हैं, जिसके फलस्वरूप चरम मौसम की घटनाएं अधिक हो रही हैं। साथ ही, यह संभावना भी व्यक्त की गई है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र की सतह का तापमान बढ़ने से अल नीनो घटनाएं अधिक गर्म और ला नीना घटनाएं अधिक ठंडी होने में सहायक बन रही हैं।
यही नहीं, कुछ अध्ययनों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन को इन घटनाओं की समयावधि में भी उलटफेर के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, जिससे अल नीनो घटनाएं देर से शुरू हो सकती हैं और लंबे समय तक रह सकती हैं, जबकि ला नीना घटनाएं पहले शुरू हो सकती हैं और कम समय तक रह सकती हैं। यदि क्षेत्रीय प्रभावों में बदलाव की बात की जाय तो कुछ क्षेत्रों में, इन घटनाओं से होने वाले प्रभाव अधिक गंभीर हो सकते हैं, जबकि अन्य क्षेत्रों में कम प्रभाव महसूस हो सकता है।
किन्तु यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण होगा कि ये केवल संभावित प्रभाव हैं और अभी भी वैज्ञानिकों द्वारा इन घटनाओं पर जलवायु परिवर्तन के पूर्ण प्रभाव को समझने हेतु अनुसंधान जारी है।
विश्व मौसम संगठन के महासचिव प्रोफेसर पेट्टेरी तालस का मानना है कि मानव प्रेरित जलवायु परिवर्तन, प्रकृति की शक्ति जितना ही शक्तिशाली होता जा रहा है और ला नीना घटना के अस्थायी शीतलन प्रभाव के बावजूद पिछले कुछ वर्षों में सबसे मजबूत अल नीनो वार्मिंग घटनाएं देखी जा रही हैं। 1980 के दशक के बाद से, प्रत्येक दशक पिछले दशक की तुलना में गर्म होता जा रहा है। होट-ट्रैपिंग गैसें, विशेषतया कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) वातावरण में रिकॉर्ड बढ़े हुए स्तर पर बनी हुई हैं, जिससे पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।
वैज्ञानिकों ने मौजूदा सदी में तापमान में 3 से 5 डिग्री सेल्सियस तक की भयावह वृद्धि के बारे में चेतावनी दी है। इस प्रकार, पृथ्वी अब अधिक गंभीर गर्मी की लहरों और सूखे, बड़े और चरम जंगल की आग और औसतन लंबे व अधिक शक्तिशाली तूफान के मौसम लाने हेतु प्रवण हो रही है। आज ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) की सांद्रता तीस लाख वयों में अपने उच्चतम स्तर पर है और हाल के वर्षों में भयानक रूप से नए उच्च रिकॉर्ड भी परेशानी का सबब बन रहे हैं।
चिंता बढ़ाते विनाशकारी उष्णकटिबंधीय चक्रवात और भारत
दरअसल उष्णकटिबंधीय चक्रवात के वे शक्तिशाली तूफान हैं, जो कम दबाव वाले क्षेत्रों में विनाशकारी हवाओं, भारी वर्षा और तूफानी लहरों के साथ आते हैं, जिसके परिणामस्वरूप जानमाल का भारी नुकसान हो सकता है। अक्सर, जब उष्णकटिबंधीय सागरों का पानी 28.5°C से अधिक गर्म हो जाता है, तब वहां इन तूफानों का जन्म होता है और वे गति करना शुरू कर देते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन उष्णकटिबंधीय चक्रवातों को अधिक तीव्र बना सकता है।
यदि भारत की बात की जाय तो अरब सागर, अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर से प्रभावित होता है।
पश्चिमी घाट और हिमालय की ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं प्रशांत महासागर से आने वाली तेज हवाओं को रोकती हैं, जिसके परिणामस्वरूप अरब सागर में चक्रवातों का निर्माण कम होता है। दूसरी ओर, बंगाल की खाड़ी और प्रशांत महासागर के बीच कम भू-भाग होने के कारण चक्रवाती तूफान आसानी से तटीय क्षेत्रों तक पहुंच जाते हैं और भारी वर्षा लाते हैं। ऐतिहासिक रूप से, पूर्वी तट वाले राज्य जैसे पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु चक्रवातों से अधिक प्रभावित रहे हैं। पश्चिमी तट वाले राज्य जैसे गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा और केरल भी समय-समय पर चक्रवातों का सामना करते रहे हैं।
पहले, बंगाल की खाड़ी में सालाना चार चक्रवात आते थे,जबकि अरब सागर में आमतौर पर एक ही चक्रवात बनता था। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण, यह अनुपात बदलते देखा जा रहा है। अगर बंगाल की खाड़ी की तुलना में पहले अरब सागर अधिक ठंडा रहता था, किन्तु ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) की बढ़ती सांद्रता के कारण, पृथ्वी के गर्म होने से अरब सागर के सतह के तापमान (एसएसटी) में खास वृद्धि दर्ज की गयी है।
भारत में मानसूनः प्रकृति का अनमोल उपहार किन्तु अनिश्चितता का साया
भारत पर मानसून, व्यापक पैमाने पर एशियाई मानसून के हिस्से के रूप में, देर से वसंत ऋतु के आखिर में, सूर्य के तेज ताप के कारण बनता है क्योंकि उस समय सूरज भूमध्य रेखा से उत्तर की ओर बढ़ता है। नतीजतन, उत्तरी हिंद महासागर के समुद्र के सतह का तापमान उत्तर भारत के मैदानी इलाकों और तिब्बती पठार के साथ गर्म हो जाता है। यह बाद वाला क्षेत्र, क्षोभ-मंडल (ट्रोपोस्फीयर) में 4500 मीटर से अधिक की औसत ऊंचाई पर तीव्र गर्म हो जाता है।
भूमध्य रेखा के दक्षिण में हिंद महासागर तुलनात्मक रूप से ठंडा है, इसलिए तापमान और दबाव की प्रवणता दक्षिण से उत्तर की ओर बनती है। दबाव प्रवणता, भूमध्यरेखीय प्रवाह करती हुई जब पृथ्वी के घूर्णन के साथ जुड़ती है तब निचले क्षोभ-मंडल में उत्तरी ग्रीष्मकालीन मानसून की हवाएं उत्पन्न करती हैं।
ये हवाएं, गर्म हिंद महासागर से वाष्पित नमी को बंगाल की खाड़ी तक ले जाने से पूर्व, भारत के पश्चिमी तट के पहाड़ों पर अभिसरण करती हैं, जहाँ वे उत्तर की ओर मुड़ती हैं और पश्चिम की ओर, उत्तरी भारत के निम्न दवाव के ‘मानसून गर्त’ के चारों ओर मुड़ जाते हैं, जहाँ अधिक वर्षा होती है। यह समझना आवश्यक होगा कि पृथ्वी की जलवायु प्रणाली अत्यधिक जटिल होता है।
आज जलवायु वैज्ञानिक, जलवायु अनुकरण (सिमुलेशन) के अपने कम्प्यूटर मॉडलों में अधिकाधिक कारकों का इनपुट कर पूर्वानुमान घोषित करते हैं, किन्तु चाहकर भी वे समस्त कारकों को पूरी तरह से शामिल नहीं कर पाते। अतः, वे भविष्यवाणियां सदैव ही अनिश्चितता के अधीन होती हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में पृथ्वी का तापमान और वर्षा पैटर्न कैसे बदल सकता है आदि जैसी बातें भी इन्हीं जलवायु मॉडलों में विभिन्न कार्बन उत्सर्जन परिदृश्यों इत्यादि के इनपुट डालकर, भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग किस हद तक हो सकती है, यह भी जानने का प्रवास किया जाता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग के कारण अरब सागर के तापमान में होने वाली वृद्धि उसे चक्रवातों के लिए अधिक प्रवण बनाता है। भौगोलिक अवस्थिति, क्षारीयता, जलवायु परिवर्तन व अन्य विभिन्न कारक, ऐसे चक्रवातों की पुनरावृत्ति की दर को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
आपदाओं के युग में पूर्व चेतावनी प्रणालियों का सुरक्षात्मक किला
आज उन्नत मॉडलिंग तकनीकों और डेटा संग्रह में वृद्धि के साथ, मौसम विज्ञानियों ने मौसम की भविष्यवाणी करने की अपनी क्षमता में महत्वपूर्ण सुधार किया है तथा इन पूर्व चेतावनी प्रणालियों व तैयारियों में प्रगति ने हजारों लोगों की जान बचाने के साथ-साथ सैकड़ों अरब डॉलर का नुकसान होने से भी बचाया है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने 2027 तक पृथ्वी पर प्रत्येक व्यक्ति को प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली द्वारा संरक्षित करने का आस्वान किया है।
सभी प्रकार के जोखिमों में कमी लाने और जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन सम्बन्धी उपायों में, प्रारंभिक चेतावनी एवं तत्संगत कार्रवाई, इस तरह की आपदाओं से होने वाली मौतों और धन-हानि को कमतर करने हेतु सबसे सिद्ध व किफायती तरीकों में से एक है। हालांकि अभी वैश्विक स्तर पर, दुनिया के केवल आधे देश ही बहु-जोखिम पूर्व चेतावनी प्रणालियों द्वारा संरक्षित हैं। विकासशील देशों के लिए यह संख्या और भी कम है, जबकि अल्प विकसित देशों में से आधे से भी कम तथा छोटे द्वीपीय-विकासशील देशों में से केवल एक-तिहाई देशों में ही बहु-जोखिम वाली पूर्व चेतावनी प्रणाली उपलब्ध है। इस पर तेजी से काम करने की जरूरत है।
जोखिम न्यूनीकरण रणनीतियों में रिस्क गवर्नेस में निवेश की जरूरत
आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (यूनाइटेड नेशंस ऑफिस फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन-यूएनडीआरआर) तथा विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) के हाल के अपने एक संयुक्त रिपोर्ट में, प्रभावी प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को अधिक कारगर बनाने हेतु सम्बंधित देशों को रिस्क गवर्नेस (जोखिम शासन) में निवेश करने की सिफारिश करते हैं, क्योंकि ऐसा देखा गया कि जिन देशोंके पास बहु-जोखिम पूर्व चेतावनी प्रणाली के साथ-साथ राष्ट्रीय आपदा जोखिम न्यूनीकरण रणनीतियों भी रही थीं उन्होंने बेहतर सुरक्षात्मक परिणाम दिए।
महासागर व वन अर्थात घरती के जीवन रक्षक नीले एवं हरे फेफड़े का रखना होगा ध्यान
वैज्ञानिकों ने महासागरों व समुद्रों को ‘ब्लू लंग ऑफ द प्लेनेट’ (‘ग्रह का नीला फेफड़ा’) की संज्ञा दे रखी है, जो बड़ी मात्रा कार्बन और गर्मी को अपने भीतर अवशोषित कर लेते हैं। उधर, आर्कटिक में उपस्थित समुंद्री बर्फ, वहां के वायुमंडल को गर्म होने से भी बचाती है। यहां बर्फ अपनी चमक के कारण, सूर्य की ऊष्मीय ऊर्जा को भी परावर्तित करने में सक्षम होती है, जिसकी अनुपस्थिति की स्थिति में, यही ऊर्जा गहरे पानी द्वारा अवशोषित होकर, समुद्र की सतह को और अधिक गर्म करने लगती है। गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज (GISS) के एक अद्यतन अध्ययन में पाया गया है कि धरती के शेष भागों की तुलना में आर्कटिक, औसतन तीन गुना अधिक तेजी से गर्म हो रहा है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के ढाँचे के भीतर स्थापित ग्रीन क्लाइमेट फंड (GCF) अपने जलवायु हेतु वित्तीय कोष द्वारा वनों के संरक्षण पर निवेश बढ़ा रहा है, क्योंकि आज वनों का विनाश एक महत्वपूर्ण वैश्विक चुनौती बन गया है। ग्रीन क्लाइमेट फंड, खासतौर पर विकासशील देशों की सहायता में जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन एवं न्यूनीकरण गतिविधियों में वनों को कार्बन सिंक के रूप में पहचान करते हुए उनके संरक्षण के लिए कृत संकल्प है।
सीओपी 28 के बाद वॉन (जर्मनी) में आयोजित सम्मेलन (3-13 जून 2024) की हालिया प्रगति
जैसा कि विदित है कि 2023 के संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) पर पार्टियों के 28वें अधिवेशन अर्थात् सीओपी 28 में जीवाश्म ईंधनों पर न्यायोचित तरीके से, व्यवस्थित तथा समावेशी परिवर्तनों के साथ धीरे-धीरे निर्भरता घटाने की वैश्विक सहमति बनी तथा पहली बार ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) में पेरिस समझौते की निगरानी और सहमत लक्ष्यों की दिशा में सामूहिक प्रगति का आंकलन भी किया गया। 3 जून से 13 जून, 2024 के दरम्यान, अभी हाल ही में बोन (जर्मनी) में संम्पन्न, बोन क्लाइमेट चेंज कांफ्रेंस में पार्टियां इस पहले ग्लोबल स्टॉकटेक से सीखे गए सबक, पेरिस समझौते के उन्नत पारदर्शिता ढांचे के तहत रिपोर्टिंग टूल विकसित करने पर प्रगति और इसी वर्ष प्रस्तुत किये जाने वाले द्विवार्षिक पारदर्शिता रिपोर्ट का मसौदा तैयार किया गया है।
चूंकि मौसम विज्ञानी आने वाले वर्षों में अधिक तीव्र गर्मी की लहरें, उष्णकटिबंधीय चक्रवातों जैसे चरम मौसमी घटनाओं की भविष्यवाणी कर रहे हैं, अतः समय की मांग है कि यह तैयारी केवल सटीक पूर्वानुमानों और आपदा प्रबंधन तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसके मूल कारणों के तह में जाकर इसे हल करना होगा। उदाहरण के लिए, उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन व अन्य निर्धारकों पर अधिकाधिक अनुसन्धान और कार्य करना होगा।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।