कृषि, बागवानी और खाद्य सुरक्षा एवं पशुपालन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव      Publish Date : 25/07/2025

कृषि, बागवानी और खाद्य सुरक्षा एवं पशुपालन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

                                                                                                                                   प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता

आधुनिक सभ्यता की विकास गतिविधियों के चलते, आज पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से चिन्तित हो रहा है। विश्व स्तर पर चल रहे गहन चिन्तन के बावजूद भी इसके कम होने के कोई ठोस संकेत अभी तक सामने नहीं आये हैं। भारत में गर्मी के बढ़ रहे स्वरूप पर अब कहीं से कोई सर्देह नहीं रह गया है।

ग्लोबल वर्मिंग का दुष्प्रभाव वन-जीवन, कृषि, रोग वृद्धि, स्थानीय मौसम, समुद्र तल वृद्धि इत्यादि पर स्पष्ट रूप से पड़ रहा है। उत्तरी भारत तो कुछ ज्यादा ही प्रभावित हुआ है। बढ़ती आबादी, तीव्र शहरीकरण, औद्योगिकरण, निर्वनीकरण और अपशिष्टों का निष्कासन आदि ये सभी प्राकृतिक संसाधनों पर भारी पड़ रहे हैं और इससे भूमि, जल, वायु, जैव विविधता, वनों और जैव संसाधनों में गुणात्मक और मात्रात्मक कमी आती जा रही है।

ऐसे संसाधनों के क्षीण होने से जो पुनः अपनी पूर्व अवस्था में नहीं आं सकते, खेती व खेती योग्य भू-भागों में कमी क्षेत्रीय विषमता वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों का कम होना तथा जैव-अजैव दबाव में वृद्धि जैसी परिस्थितियों ने कठिनाईयों को और अधिक बढ़ाया है।

हमारी मृदा का लगभग 70 प्रतिशत भाग जैविक कार्बन व अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों के अभाव युक्त है। रसायनों व कीटनाशकों के प्रयोग और औद्योगिक अपशिष्टों से जल व मृदा में विषाक्तता बढ़ रही है। वर्षों से कृषि में होने वाले घाटे ने नयी पीढ़ी को अन्य व्यवसायों की ओर आकर्षित एवं साथ ही दूसरे व्यवसायों के लिए बुनियाद का काम भी किया है।

भूमि सुलभता व कृषि उत्पादन में कमी बढ़ती आबादी के भरण-पोषण पर बहुत बड़ी चुनौती है। सयुंक्त राष्ट्र प्रर्यावरण कार्यकम (यू.एन.ई.पी.) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में ‘आऊट लुक फॉर ग्लेशियर स्नो’ ने भविष्यवाणी की है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण वर्ष 2050 तक हिमालय क्षेत्र के 15,000 हिमनद और 9000 हिमतालों (ग्लेशियर लेक) में से आधे और 2100 तक लगभग सारे ही समाप्त हो जायेगें।

यह स्थिति केवल हिमालयी क्षेत्र की ही नही अपितु पूरे विश्व के ग्लेशियर्स क्षेत्र की है। इतनी तेजी से ग्लेशियर्स पिघलने से विश्व की सभी छोटी बड़ी नदियों में पहले बाढ़ आयेगी और फिर वे सूख जायेंगी। परिणामतः विश्व के विभिन्न हिस्सों में जलापूर्ती नहीं हो पायेगी। भूमितल पानी व अन्य जल स्रोत पहले ही समाप्त होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में भविष्य में बहुत बड़ा जल संकट आयेगा और सभी जानते हैं कि पानी के बिना किसी भी तरह के जीवन की कल्पना तक भी नहीं की जा सकती है।

                                                           

जलवायु विभिन्नता/असमानताः- विगत कुछ वर्षों से देश असम्भावित मौसम का सामना कर रहा है। देश के मौसम-स्टेशनों से उपलब्ध विश्लेषण बताते हैं कि मध्य मासिक-तापमान बढ़ने तथा सापेक्षिक आद्रता, वार्षिक वर्षा व वर्ष में दैनिक वर्षा घटने की दिशा में है। विगत 3-4 दशक के दौरान कार्बन डाई-ऑक्साइड के वातावरण में घुलने की दर तीस गुणा तक बढ़ी है। कुछ राज्यों जैसे बिहार, आसाम, कर्नाटक के कुछ भाग सूखे के दौर से गुजर रहे हैं तो वही दक्षिणी गुजरात, महाराष्ट्र के कुछ भाग बिहार, आन्ध्र प्रदेश, लद्दाख व पश्चिम कर्नाटक बाढ़ की मार झोल रहे हैं।

केवल वर्ष 2007 में ही 170 लाख लोग बाढ़ की भेंट चढ़े थे। वर्ष 2006 के दौरान कश्मीर घाटी में इतनी गर्मी रही जो पिछले तीन दशकों में देखने में नही आई थी। चेरापूँजी जो कि अधिकतम बारिश के लिए मशहूर रहा है, वर्ष 2005 में वहाँ भी कम बारिश हुई।

जलवायु परिवर्तन का प्रभावः- जलवायु परिवर्तन ने भारत को बुरी तरह प्रभावित कर रखा है। जिसकी अनेकों चिन्ताजनक स्थितियाँ हैं जैसे अनियमित मानसून, कृषि-मॉडल का पलायन, महामारी जैसे रोगों में वृद्धि, समुद्र तल का ऊपर उठना, स्वच्छ जल उपलब्धता में बदलाव, सूखा, गर्म हवाएँ, ओला, तूफान और बाढ़ इत्यादि की बारम्बारता। आकस्मिक जलवायु परिवर्तन, देश के बड़े भागों को निवास योग्य नहीं रहने देगें। प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित कृषि एवं संबंधित क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव निम्न हैं:-

ग्लोबल वार्मिंग एवं पर्यावरण-तंत्र का बिगड़ना एक दूसरे से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। लगभग 130 मिलियन हैक्टेयर भूमि ह्रास के विभिन्न स्तरों से निम्न श्रेणी में चली गई है जैसे जल अपरदन, वायु अपरदन, मरूस्थलीकरण, लवणीकरण, जल मग्नता और पोषक तत्व न्यूनीकरण जो कमशः 32.8, 10.8, 68.1, 7.0, 8.5, और 3.2 मिलियन हैक्टेयर भूमि में है।

यदि आवश्यक निवारक कदम नहीं उठाए गये तो इसका गम्भीर दुष्प्रभाव कृषि उत्पाद पर पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर अगले एक दशक में समुद्र तल का बढ़ना, कहने के लिए तो यह केवल एक मीटर ही होगा लेकिन इसके प्रभाव से लाखों लोगों को प्रवासी बनना होगा। समुद्र तल के बढ़ने से खारे पानी का आना जिससे तटीय क्षेत्रों का सतही व भूमिगत जल खारा होगा। लगभग 50 प्रतिशत जीव-जन्तु ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित हो सकते हैं।

यदि यही वर्तमान गर्मी दर बनी रही तो वर्ष 2050 तक पक्षियों सहित पृथ्वी की एक चौथाई प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएगी। जल तापमान का बढ़ना और अधिक तीव्रता वाला तूफान समुद्री जीवन को प्रभावित करेगा। मरूभूमि का बढ़ना एक गम्भीर समस्या है। उष्ण परिस्थिातियाँ भारत को मरूस्थलीकरण की और प्रवृत करती हैं। प्राकृतिक वनस्पतियों की कमी तथा सीमान्त भूमि व बालू के टीले पर खेती मृदा अपरदन को अधिक तीव्र करती हैं।

ये प्रवृतियाँ इगिंत करती हैं कि 25 प्रतिशत कृषि उत्पादकता कम होगी, जो वर्षा आधारित कृषि में बढ़कर 50 प्रतिशत तक भी हो सकती है। छोटी जोत के छोटे-मझोले किसान इस जलवायु के बदलाव से और अधिक खराब स्थिति में चले जायेगें।

गर्मियों में पाया जाता है कि गर्मी से जानवरों की प्रजनन क्षमता प्रभवित होती है, जैसे नर में सूखा सहने की क्षमता और मादा में दूध देने की क्षमता। इन विदेशी जानवरों में गर्मी से अनेक कमजोरियाँ आती हैं जैसे शारीरिक वृद्धि, दूध उत्पादन में कमी व रोगों का बढ़ना इत्यादि। खाद्य सुरक्षा पर भी जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव पड़ेगा। खाद्य कीमतें बढ़ेगी क्योंकि खाद्य (अनाज, पशु उत्पाद, मछली) उपलब्धता कम होगी। गैर लाभान्वित क्षेत्र, सामाजिक व आर्थिक तौर पर पिछड़े लोग ज्यादा प्रभावित होगें। निचले क्षेत्रों के तटीय कटान व सैलाव, बुआई की भूमि और मछली पालन क्षेत्रों की कमी से खाद्य सुरक्षा और भी अधिक मुश्किल होगी।

प्रभावों को कम करने की रणनीतियाँ:- ग्लोबल वार्मिंग के नियंत्रण हेतु वैश्विक सर्वसम्मति की जरूरत है। क्योटो प्रोटोकॉल द्वारा यह लक्षित है कि वर्ष 1990 में जो उत्सर्जन स्तर था उसमें वर्ष 2012 तक 5 प्रतिशत की कटौती तथा 2020 तक 15-30 प्रतिशत की कटौती हो जानी चाहिए। पिछले कुछ दशकों से जलवायु परिवर्तन ने खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल रखा है। इसके काफी दुष्प्रभाव हैं। जलवायु परिवर्तन के बढ़ते उत्सर्जन को कम करने हेतु ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करना एवं इसके दुष्प्रभावों को कम करने वाले उपायों को अपनाना है।

देश की प्रथम मांग जल संचयन और संरक्षण है। पानी को जरूरत भर ही प्रयोग किया जाये। बूंद-बूंद सिंचाई व जल छिड़काव विधि, मल्चिंग व बैड पौध रोपण, चैकडैम व गड्ढा बनाना बहुत सी ऐसी विधियां हैं जिससे जल संचयन और संरक्षण किया जा सकता है।

एक ऐसा कार्यक्रम जो जानवरों के चरने पर रोक के साथ भारी मात्रा में पौध रोपण के लिए हो मरूस्थलीकरण की प्रक्रिया को कम कर देगा। ऐसे मौसम के साथ जिसका किसान अनुमान ही न लगा सकें, उन्हें फसल प्रबन्धन प्रणाली, अभ्यासों को बदलना पड़ेगा। पौधे की सख्त प्रजातियों को उगाना होगा और साथ ही उनको अपनी कार्यप्रणाली में सदैव परिवर्तन के लिए तत्पर रहना होगा।

परम्परागत खेती के साथ नयी (सूखा/गर्मी प्रतिरोधक) प्रजातियों को लगाना उन नये तरीकों को अपनाना जो खेती के प्रबन्धन में सहयोगी हो भूमि के प्रयोगों में परिवर्तन, वाटरशेड प्रबन्धन, छोटे कर्ज और कृषि बीमा इत्यादि कुछ ऐसे उपाय हैं जो भविष्य में जलवायु परिवर्तन के बोझ को कम करने में मदद करेगें। खासतौर पर बरसात के पानी से सिंचित होने वाले क्षेत्रों में कौन सा पौधा लगाना है इसकी योजना बनाते समय मानसून की पूर्वसूचना काफी महत्वपूर्ण होती है।

सूखा, अतिवृष्टि, कीट प्रकोप व बीमारी जैसी घटनाओं से किसानों को आगाह करने के लिए मौसम आधारित सही पूर्वानुमान (छोटी या लम्बी अवधि हेतु) के लिए सुनियोजित तैयारी होनी चाहिए।

जानवरों द्वारा छोड़े गये मीथेन के स्तर को कम करने में पशुचारा बदल देना एक प्रभावकारी उपाय सिद्ध होगा। पशुओं हेतु खाद्य और चारे की योग्य पादप प्रजातियाँ जरूर खोज निकाली जा सकती हैं, जो मीथेन उत्सर्जन को कम करें। उर्जा पैदा करने हेतु सुरक्षित तकनीकियों, स्थायित्व की पथ प्रदर्शक हो सकती हैं। हमें कम प्रदुषण वाले अच्छे नमूने के वाहन की ओर रूख करना चाहिए। गोबर को अधिकाशतः बायो गैस उत्पादन में लगाया जाना चाहिए। यातायात के लिए बैल जैसे पशुओं का प्रयोग कार्बन डाई-आक्साइड की प्रभावकारी मात्रा के उत्सर्जन को कम कर सकती है।

साधारण सी लगने वाली यह बातें जैसे कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों हेतु जागरूकता ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन स्तर को काफी हद तक कम कर सकती है। क्लीन डेवलपमेण्ट मैकेनिज्म (सी.डी.एम.) तथा कार्बन ट्रेडिंग भी ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने में मदद कर सकते हैं। यदि लोग वातावरण के प्रति संवेदनशील बने, साधनों के प्रति न्यायपूर्ण रवैया अपनायें तथा साफ वातावरण का महत्व समझें तो भी ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कमी आ जायेगी।

अच्छा होगा कि स्कूली स्तर के शिक्षा में वातावरण के अध्ययन को शामिल किया जाये तथा जागरूकता के लिए संवाद में स्थानीय भाषा का प्रयोग हो तो यह और भी अच्छा होगा।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।