
भारतीय चीनी उद्योग की स्थिति Publish Date : 23/07/2025
भारतीय चीनी उद्योग की स्थिति
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता
‘‘भारत की अर्थव्यवस्था में चीनी उद्योग का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है और भारतय चीनी उद्योग में वर्तमान समय तक लगभग 95 हजार करोड़ रूपये की पूंजी विनियोजित है और चीनी उद्योग में प्रत्यक्ष रूप से लाखों लोग कार्य कर रहें हैं। हालांकि जानकारों का मानना है कि भारतीय चनी उद्योग को अन्तर्राष्ट्रीय चीनी बाजार के अनुरूप ढालने के लिए प्रौद्योगिकी में सुधार और प्रबन्धकीय कुशलता पर विशेष रूप से ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही चीनी उत्पादन की लागत को कम करने हेतु चीनी उत्पादन प्रक्रिया के अपव्ययों को समाप्त करते हुए इसके सह-उत्पादों का भी समुचित प्रबन्धन करने की आवश्यकता है।’’
भारतीय अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत कृषि-आधारित उद्योगों में सूती वस्त्र उद्योग के बाद चीनी उद्योग का स्थान काफी महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में भारतीय चीनी उद्योग में लगभग 95 हजार करोड़ रूपये की पूंजी का निवेश किया गया है तथा इस उद्योग में लाखों लोगों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्राप्त हो रहा है। इस उद्योग से भारत को लगभग 500 करोड़ रूपये के वार्षिक राजस्व की प्राप्ति होने के साथ ही 40 लाख से अधक गन्ना उत्पादक किसानों को भी प्रत्यक्ष रूप से आय प्राप्त हो रही है। इसके साथ ही इस उद्योग में सह-उत्पादों से जुड़े तमाम उद्योगों को विकसित करने की अपार क्षमता है।
भारत में प्राचीन काल से ही खाण्ड़सारी, भूरी शक्कर तथा गुड़ आदि का उत्पादन भी किया जाता रहा है। गन्ने से शक्कर बनाने की विधि भारत की देन है। 15वीं शताब्दि से 19वीं शताब्दी तक भारत में भूरी शक्कर का उत्पादन, परंपरागत विधियों से किया जाता रहा है। वर्ष 1903 से भारत में चीनी के आधुनिक कारखानों का आरम्भ किया गया था, परन्तु वर्ष 1930 तक इन उद्योगों की प्रगति काफी धीमी रही और इसके चलते पूरे देश में मात्र 32 चीनी मिलों की ही स्थापना की जा सकी। वर्ष 1932 में सरकारी संरक्षण के प्राप्त होने के बाद चीनी उद्योग की प्रगति होनी शुरू हुई, जिसके परिणामस्वरूप देश में चीनी कारखानों की संख्या 32 से बढ़कर वर्ष 1938-39 में 130 हो गई और चीनी का उत्पादन 1.6 लाख टन से बढ़कर वर्ष 6.4 लाख टन तक पहुँच गया। वर्ष 1939 में द्वितीय विश्व युद्व के चलते चीनी की मांग में भी भारी वृद्वि हुई और चीनी कारखानों की स्थिति में सुधार होने लगा। इस युद्य काल के दौरान चीनी उद्योग ने संतोषजनक प्रगति प्राप्त की और वर्ष 1945 में भारत में चीनी का उत्पादन दस लाख टन से भी ऊपर पहुँच गया।
स्वतंता प्राप्ति के समय वर्ष 1947 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आग्रह पर केन्द्र सरकार ने चीनी के उत्पादन एवं इसके वितरण पर से नियंत्रण हटा लिया, लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि चीनी के मूल्यों में तेजी से वृद्वि होने लगी जिसके चलते सरकार को वर्ष 1948 में एक बार फिर से चीनी पर पुनः नियंत्रण लागू करना पड़ा। उस समय से लेकर आज तक अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से चीनी पर नियंत्रण नियंत्रण लगातार बना हुआ है और चीनी के मूल्यों में अनावश्यक वृद्वि को रोकने हेतु समुचित प्रयास किए जाते रहे हैं।
हालांकि, उदारीकरण के दौर में देश में चीनी के बढ़ते उपयोग को देखते हुए केन्द्र सरकार के द्वारा ‘खुली सामान्य लाइसेंसिंग प्रणाली’ के अन्तर्गत चीनी का शुल्क-मुक्त आयात करने की अनुमति प्रदान कर दी गई थी किन्तु 14 जनवरी, 1999 से देश में चीनी के आयात पर मूल्यों के अनुसार 20 प्रतिशत शुल्क लागू कर दिया गया था। चीनी पर प्रति टन की दर से 580 रूपये के प्रतिकारी शुल्क को किमलाकर देखें तो वर्तमान में चीनी के आयात पर कुल शुल्क 27 प्रतिशत तक का है।
योजनाबद्व विकास के गत 5 दशकों में केन्द्र सरकार की नियंत्रण विनियंत्रण और पुनर्नियंत्रण नीति के चलते चीनी के उत्पादन में अस्थिरता के होने के उपरांत भारतीय चीनी उद्योग की प्रगति अत्यंत ही उत्साहवर्द्वक रही है। इस अवधि योना के अािध्कारिक दस्तावेज में भी यह स्वीकार किया गया है कि इस अवधि में न केवल चीनी के उत्पादन में वृद्वि दर्ज की गई है, बल्कि चीनी के कारखानों की संख्या में भी उत्तरोत्तर वृद्वि हुई है। नियोजित विकास के दौर में चीनी उद्योग का विकास नीचे दी गई तालिका में स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है।
तालिकाः नियोजन काल के दौरान चीनी उद्योग का विकास
योजना |
उत्पादन का लक्ष्य (लाख टन) |
वास्तविक उत्पादन (लाख टन) |
कारखानों की संख्या |
प्रथम योजना (प्रथम वर्ष) |
18 |
19.34 |
138 |
द्वितीय योजना (अंतिम वर्ष) |
25 |
30.29 |
175 |
तृतीय योजना (अंतिम वर्ष) |
35 |
35.32 |
200 |
चतुर्थ योजना (अंतिम वर्ष) |
47 |
39.50 |
229 |
पांचवीं योजना (अंतिम वर्ष) |
54 |
58.42 |
298 |
छठी योजना (अंतिम वर्ष) |
76 |
61.78 |
356 |
सातवीं योजना (अंतिम वर्ष) |
102 |
109.90 |
414 |
आठवीं योजना (अंतिम वर्ष) |
143 |
122.92 |
422 |
नवीं योजना (प्रथम वर्ष) |
148 |
128.24 |
450 |
दिसम्बर, 1998 में देश में कुल 55 लाख टन चीनी का स्टॉक उपलब्ध था। इस प्रकार वर्ष 1999 में चीनी का भण्ड़ार 210 लाख टन के सापेक्ष चीनी की खपत 150 लाख टन होने की आशा की गई थी।
अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में चीनी का मूल्य भारतीय चीनी के मूल्य से सदैव ही अधिक रहा है और विदेशों में चीनी पर आयात शुल्क भी अधिक ही है। भारत में चीनी का आयात शुल्क मात्र 20 प्रतिशत है, जबकि यूरोपीय संघ में यह मूल् 300 प्रतिशत, मैक्सिको में 173 और थाईलैएड में 104 प्रतिशत है। एक लम्बे समय से भारतीय चीनी उद्योग की मांग रही है कि चीनी पर आयता की दर को बढ़ाया जाए जिससे कि चीनी के आयात को हतोत्साहित किया जा सके। समझा जाता है कि जनवरी 1999 में मंत्रीमंडल की बैठक में खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री के द्वारा चीनी के आयात पर 40 प्रतिशत शुल्क लगाने की सिफारिश की गई थी जिसको स्वीकार नहीं किया गया था।
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में चीनी के उत्पादन में उत्तर प्रदेश गत कई वर्षों से देश में अव्वल बना हुआ है। वर्ष 1997-98 में उत्तर प्रदेश में 37 लााख टन तथा महारष्ट्र में 33 लाख टन चीनी का उत्पादन हुआ था। पहले देश में चीनी मिलों की स्थापना हेतु लाइसेंस लेना अनिवार्य था, किन्तु 20 अगस्त, 1998 को केन्द्र सरकार ने चीनी उद्योग पर वर्ष 1931 से लागू की गई लाइसेंस की व्यवस्था को समाप्त कर दी गई। वर्तमान समय में दो चीनी मिलों के मध्य 15 किलोमीटर की दूरी की शर्त को यथावत ही रखा गया है, जबकि नई चीनी मिलों पर क्षमता से सम्बन्धित कोई शर्त लागू नहीं की गई है, किन्तु पूर्व में स्थापित की गई चीनी मिलों के लिए यह बाध्यता बनी रहेगी। सरकार के द्वारा यह भी निश्चय किया गया है कि 2,500 टन दैनिक पेराई क्षमता से कम क्षमता रखने वाली इकाईयों को लाइसेंस प्रदान नहीं किए जा सकेंगे। इसके साथ ही सरकार ने चीनी के निर्यात को पूरी तरह से मुक्त रखने का निर्णय भी लिया है। इस निर्णय के चलते अब चीनी मिलें चीनी का निर्यात सीधे अपने ही स्तर पर सकती हैं। अभी तक चीनी का निर्यात केवल भारतीय चीनी एवं सामान्य उद्योग आयात-निर्यात निगम के माध्यम से ही चीनी का निर्यात किया जाता रहा है।
18 मई, 1999 में मूल्यों पर मंत्रीमण्डलीय समिति के द्वारा मूल्यवर्द्वित उत्पाद (क्यूब्स एवं उपभोक्ता पैक आदि के रूप में) के रूप में 25 हजार टन तक चीनी के निर्यात करने की अनुमति प्रदान की गई है। निर्यात की यह सीमा यूरोपीय संघ एवं अमेरिका के लिए पहले से ही आवंटित किए गए 30 हजार टन के कोटे से अतिरिक्त है।
जून 1999 में देश के कपड़ा मंत्रालय के द्वारा जूट पैकेजिंग आदेश के दायरे को बढ़ाते हुए समस्त चीनी उत्पादों की विशिष्ट किस्म के जूट के बोरों में पैकिंग करना अनिवार्य कर दिया गया। इस निर्णय का चीनी उद्योग के द्वारा कड़ा विरोध किया गया, इस सम्बन्ध में चीनी मिल मालिाकें का कहना है कि कपड़ा मंत्रालय के इस कदम से चीनी उद्योग पर वार्षिक तीन सौ करोड़ रूपये का अतिरिक्त भार पड़ेगा। इस मामले में खाद्य मंत्रालय भी चीनी उद्योग के साथ ही है और उसने जूट पैकेजिंग सामग्री अधिनियम, 1987 के तहत चीनी चीनी उद्योग को छूट देने की सिफारिश की है। भारतीय चीनी मिल संघ ने जूट पैकेजिंग में छूट देने के अलावा चीनी पैकेजिंग एवं मार्किंग आदेश को भी हटाने की मांग की है। इस आदेश के तहत चीनी मिलों को चीनी सौ किलो के विशिष्ट आकार और मार्किंग के जूट के बोरों में ही पैकिंग करना अनिवार्य किया गया है। हालांकि घरेलू चीनी उद्योग की कुछ और भी पीड़एं हैं। चीनी मिलों को अपने कुल चीनी उत्पादन का 40 प्रतिशत सरकार को कम भाव पर लेवी के लिए देना पड़ता है तथा सरकार के द्वारा निर्धारित मूल्यों पर ही गन्ना खरीदना पड़ता है और यह लगातार बढ़ता ही जा रहा है। चीनी उद्योग पर आवश्यक उपभोक्ता कानून भी लागू होता है और इसे सस्ते आयात से प्रतिस्पर्धा भी करनी पड़ रही है। आयतित चीनी पर न तो लेवी का नियम लागू होता है और न ही उस पर स्टॉक सम्बन्धी कोई प्रतिबन्ध लागू होता है। यही कारण है कि चीनी उद्योग चीनी का आयात शुल्क चालीस प्रतिशत तक करने की मांग कर रहा है।
भारत में चीनी उत्पादन लगात अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रचलित 240 डॉलर प्रति टन से काफी अधिक है। सरकारी संरक्षण के उपरांत भारत के अन्य उद्योगों की भांति चीनी उद्योग ने भी कभी तबनीकी और प्रबन्धकीय सुधारों की ओर पर्याप्त ध्या नही नहीं दिया है। उदारीकरण के चालू दौर में भी वह आयात पर प्रतिबन्ध के माध्यम से अपना भार उपभोक्ताओं पर डालना चाहता है।
उपरोक्त समस्याओं के अतिरिक्त भारतीय चीनी उद्योग उन्नत किस्म के गन्ने की कमी, परिवहन सम्भावनाओं कमी, चीनी का बढ़ता हुआ घरेलू उपभाग, गन्ने की कम उत्पादकता, उत्पादों की समस्या, आधुनिकीकरण, अस्थाई मूल्य नीति का अभाव, ईंधन की कमी, शोध और अनुसंधान कार्यों का अभाव, चीनी मिलों का अवैज्ञानिक वितरण और निर्यात-संवर्धन हेतु प्रभावी व्यूह रचना का अभाव आदि अनेक प्रकार की संरचनाओं एवं आधारभूत समस्याओं के चलते वांछित विकास कर पाने में असमर्थ है।
भारतीय चीनी उद्योग को अंतर्राष्ट्रीय चीनी बाजार के प्रभावों के अनुरूप ढालने तथा प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता को विकसित करने हेतु जहां एक ओर प्रौद्योगिकी में सुधार तथा प्रबन्धकीय कुशलता की दिशा में पर्याप्त ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है, वहीं चीनी के उत्पादन की लागत को कम करने के लिए इसकी उत्पादन प्रक्रिया के अन्तर्गत होने वाले अपव्यय को कम करते हुए सह-उत्पादों का भी समुचित प्रबन्धन करने की महत्ती आवश्यकता है। इसी प्रकार गन्ने की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए किसानों को गन्ने का उत्तम बीज उपलब्ध कराने के साथ ही साथ उन्हें कृषि के उन्नत तरीको और रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के अति प्रयोग के प्रति भी प्रेरित करने की आवश्यकता है। देश में चीनी उद्योग की महत्वता को ध्यान में रखते हुए चीनी मिलों के आधुनिकीकरण तथा शोध एवं अनुसंधान कार्यों पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
गन्ना शोध संस्थान, कोयम्बटूर के द्वारा विकसित गन्ने की किस्म दक्षिण भारत के लिए तो उपयोगी है, परन्तु यह तथ्य स्थिति-विशिष्ट शोध पर भी बल देता है। कहने का अर्थ यह है कि उत्तर भारत के लिए भी ऐसे ही शोध कार्य कर गन्ने की उन्नत किस्मों का विकास करने की आवश्यकता है। विकसित राष्ट्रों की भांति कृत्रिम चीनी (एच.एफ.एस. अर्थात अधिक फल व शर्करयुक्त शरबत) बनाने के कारखानों की स्थपना की ओर ध्यान देना चाहिए। देश मेें चीनी के मूल्यों में होने वाले उतार-चढ़ाव का नियंत्रण करने हेतु पर्याप्त स्टॉक का निर्धाश्रण करना भी आवश्यक है। इसके साथ ही देश में चीनी के बढ़ते घरेलू उपभोग को नियंत्रित करने तथा चीनी उद्योग के त्वरित विकास हेतु एक व्यवहारिक, दीर्घकालिक तथा स्पष्ट मूल्य एवं वितरण नीति का होना भी बहुत आवश्यक है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।