
ग्रामीण भारत में अपशिष्ट का जैविक प्रबंधन Publish Date : 17/07/2025
ग्रामीण भारत में अपशिष्ट का जैविक प्रबंधन
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
“समर्पित बायोमास नीति से कचरा बनेगा कंचन, स्वच्छ और समृद्ध बनेंगे हमारे गांव”
ग्रामीण समुदाय कचरे के जैविक अपशिष्ट प्रबंधन को अपनाकर कचरे से कंचन बनाने की परिकल्पना को साकार कर सकते हैं, जिससे गांव स्वच्छ, समृद्ध और आत्मनिर्भर बनकर उभर सकते हैं। समर्पित बायोमास नीति और सहकारी संस्थाएं इस अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण (एसबीएम-जी) और शहरी (एसबीएम-यू), स्वच्छ शौचालय निर्माण और खुले में शौच मुक्त वातावरण पर बनाने पर केंद्रित हैं, जो मानव मल के सुरक्षित निपटान को बढ़ावा देते हैं। ग्रामीण समुदायों के द्वारा स्वच्छता को अपनाने के लिए सामुदायिक भागीदारी और समुदाय-प्रेरित सम्पूर्ण स्वच्छता (सीएलटीएस) तकनीक पर जोर दिया जा रहा है, जिससे एसबीएम-जी के कार्यान्वयन में उल्लेखनीय सुधार भी आया है।
स्वच्छ भारत मिशन का मुख्य लक्ष्य ऑन-प्लॉट और ऑफ-प्लॉट तकनीकों से मानव मल के सुरक्षित निपटान को बढ़ावा देना है। शोध बताते हैं कि मानव मल के असुरक्षित निपटान और गैस्ट्रो आंत्र संबंधी बीमारियों में गहरा संबंध है। हालांकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित कई अन्य अध्ययनों के अनुसार, बीमारियों को रोकने के लिए केवल मानव मल का प्रबंधन करना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि पशुजन्य सूक्ष्मजीव (ई-कोली, एंटरोकोकस, रोटावायरस और क्रिप्टोस्पोरिडियम) आदि भी रोग फैलाते हैं। इसलिए, ग्रामीण और उपनगरीय क्षेत्रों में रोगजनक सूक्ष्मजीवों पर लगाम लगाने के लिए पशुपालन, कृषि, बागवानी जैसे क्षेत्रों के जैविक अपशिष्ट प्रबंधन पर ध्यान देना लाभकारी सिद्व होगा।
सहकारिता से स्वच्छता और हरित भविष्य
भारत सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) के दिशा-निर्देशों को संशोधित कर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में ठोस व तरल अपशिष्ट प्रबंधन को अनिवार्य किया है। सहकारिता मंत्रालय और एनसीईएल, एनसीओएल, बीबीएसएसएल व बी-पैक्स जैसी सहकारी समितियों के जरिए अपशिष्ट प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी बढ़ाई जा सकती है, जिससे स्वच्छता एवं हरित ऊर्जा को बढ़ावा मिलेगा। यह पहल सीओपी-28 के ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेंटीग्रेड तक कम करने के लक्ष्य का समर्थन भी करती है।
अपशिष्ट से हरित ऊर्जा उत्पादन करके ग्रामीण समुदायों की खाना पकाने की जरूरतें पूरी हो सकती हैं और पर्यावरण-अनुकूल बिजली आपूर्ति को बढ़ावा मिल सकता है। इसी तरह, ग्राम स्तर पर जैविक व हरी खाद निर्माण के साथ इनका उपयोग सुनिश्चित कर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दे सकते हैं, जिससे कृषि स्थिरता में सुधार होगा।
पशुओं के अपशिष्ट का उचित प्रबंधन
पशुपालन से जुड़ी गतिविधियों हवा, पानी, मिट्टी और जैव विविधता को बहुत प्रभावित करती हैं। इससे जल प्रदूषण, झीलों-नदियों में कचरे एवं पोषक तत्वों का जमाव (यूट्रोफिकेशन) और प्रवाल भित्तियों को नुकसान होता है। साथ ही, नाइट्रोजन-फॉस्फोरस प्रदूषण से बच्चों में ब्लू बेबी सिंड्रोम जैसी बीमारी होती है। पशुओं का गोबर और अपशिष्ट पीने के पानी को दूषित करता है, खासकर रोटावायरस के कारण, जो छोटे बच्चों की बीमारी और मृत्यु का बड़ा कारण होता है।
भारत में 80 करोड़ पशुओं की आबादी है, लेकिन 60% से अधिक गोबर बिना प्रबंधन के ही नष्ट दिया जाता है या खुले में फेंक दिया जाता है। इससे पानी और मिट्टी खराब होती है, और कालाजार जैसी बीमारियां फैलने का खतरा बढ़ता है। आमतौर पर, गोबर खुले गड्ढों में डाला जाता है, जो धूप और बारिश में क्रमशः सूखता या बह जाता है, जिससे पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचता है। कृषि और बागवानी का कचरा भी ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण को बढ़ाता है। ग्रामीण भारत में पशु अपशिष्ट प्रबंधन और स्वच्छता अभियानों की कमी एक बड़ी समस्या है।
जैविक अपशिष्ट से मीथेन फार्मिंग
ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जैविक कचरे, विशेषकर गोबर को उपलों में बदलकर ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है या फिर खुले में घूरे पर फेंक दिया जाता है, जिससे कार्बन उत्सर्जन बढ़ता है और ओजोन परत को नुकसान होता है। यह गोबर के उच्च कैलोरी मूल्य का अकुशल उपयोग है। गोबर और अन्य जैविक कचरे से अवायवीय अपघटन के जरिए मीथेन गैस बनाई जा सकती है, जो कि एक हरित ईंधन है।
एक गाय के गोबर से सालाना 225 लीटर पेट्रोल के बराबर मीथेन उत्पन्न की जा सकती है, जो ग्रामीण घरों में खाना पकाने के लिए एलपीजी और केरोसिन का विकल्प बन सकती है, साथ ही लघु उद्योगों में हीटिंग ईंधन और जैविक खेती के लिए जैविक-घोल प्रदान कर सकती है।
यह ‘मीथेन फार्मिंग’ जीवाश्म ईंधन का स्थान ले सकती है, जो 30-40 वर्षों में समाप्त हो सकते हैं। यह ग्रामीण स्वरोजगार को भी बढ़ावा दे सकती है। पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने सतत योजना शुरू की है। इसने हरित अर्थव्यवस्था की एक नई खिड़की खोल दी है। यह योजना ‘कचरे से कंचन’ की अवधारणा को बढ़ावा देती है, जो परिवहन और हरित अर्थव्यवस्था के लिए लागत प्रभावी हरित ईंधन उपलब्ध करा सकती है।
हरित ऊर्जा उत्पादन की प्रौद्योगिकी
गोबर से मीथेन गैस प्राप्त करना एक सरल प्रक्रिया है। जैविक अपशिष्ट (गाय का गोबर और वनस्पति पदार्थ) को इन्सुलेटेड, वायुरोधी कंटेनरों में डालकर इसे अवायवीय प्रक्रिया में डालना संभव है, जिन्हें डाइजेस्टर कहते हैं। यह दो प्रकार के होते हैं। इनमें से एक बैच-लोड डाइजेस्टर है, जिसे एक साथ भरकर सील कर देते हैं। जब कच्चा माल गैस बनाना बंद कर देता है तो इसे खाली कर दिया जाता है। दूसरा, निरंतर-लोड डाइजेस्टर, जिसमें थोड़ा-थोड़ा, नियमित रूप से निश्चित अंतराल पर गोबर या जैविक अपशिष्ट डाला जाता है ताकि गैस और बायो-स्लरी का लगातार उत्पादन होता रहे।
अपशिष्ट और पानी का मिश्रण (स्लरी) डाइजेस्टर में डालते हैं, जहां बैक्टीरिया इसे पचाते हैं, जिससे 62-65 प्रतिशत मीथेन, 31-32 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड, 1.5-2 प्रतिशत हाइड्रोजन सल्फाइड और जलवाष्प युक्त गैस बनती है। कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड और जलवाष्प को क्रमशः चूने के पानी, लोहे के भराव और फिटकरी से हटाकर मीथेन को शुद्ध करते हैं। यह मीथेन खाना पकाने, हीटिंग प्रोसेस, औद्योगिक उपयोग और सीएनजी के रूप में ऑटोमोबाइल में उपयोग की जा सकती है। आप यह जानकर हैरान जाएंगे कि भारत की 30.74 करोड़ गायों की आबादी का गोबर लगभग 691.65 करोड़ लीटर पेट्रोल के बराबर हरित ऊर्जा का उत्पन्न करने में सक्षम हो सकता है।
बायोमास उत्पादन के लिए समर्पित नीति
जैविक कचरे के प्रबंधन से ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में कई फायदे हो सकते हैं। खाना पकाने की पुरानी विधियों को बायोगैस आधारित ईंधन में बदलकर धुएं और ग्लोबल वार्मिंग को कम कर सकते हैं। यही नहीं, यदि बायोगैस को बढ़ावा दिया जाए तो गांवों में उज्ज्वला योजना का सरकारी बोझ कम सकता है। इसके साथ ही, बिजली पर निर्भरता भी कम हो सकती है। जैविक खेती को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे मिट्टी की गुणवत्ता बेहतर होने के साथ ही फसल की गुणवत्ता और किसानों की कमाई में भी सुधार हो सकता है।
जैविक अपशिष्ट पर आधारित स्वच्छ ईंधन उत्पादन के इस मॉडल से गांव पूरी तरह स्वच्छ हो सकते हैं। इसका एक बड़ा फायदा यह है भी कि गायों को फिर से ‘गोधन’ माना जाने लगेगा। यह मॉडल सही तकनीक, स्वच्छता, जैविक खेती और ऊर्जा आत्मनिर्भरता के माध्यम से ग्रामीण समुदायों को समृद्ध बना सकता है।
यह सही है कि सरकार कृषि अवसंरचना कोष और सब्सिडी के के माध्यम से संपीड़ित बायो-गैस इकाइयों के निर्माण को प्रोत्साहन देती है। लेकिन, देश में बायोमास उत्पादन के लिए कोई समर्पित नीति नहीं है, जो एक बड़ी कमी है। इस कमी को दूर नहीं किया गया, तो स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन से जुड़े लक्ष्य पूरे नहीं होंगे और निवेश बर्बाद हो सकता है।
ग्रामीण भारत में जैविक अपशिष्ट प्रबंधन के हैं विभिन्न लाभः
ऊर्जा सुरक्षाः व्यक्तिगत या 7-8 लोगों के परिवार में प्रतिदन गोबर व जैविक कचरे का 20-25 किग्रा फीड है तो घरेलू ईंधन की जरूरत पूरी हो सकती है। इससे सरकार द्वारा संचालित उज्ज्वला योजना के तहत दिए जाने वाले गैस सिलेंडर के खर्च मे काफी बचत होगी।
बिजलीः एक जेनरेटर को 1 किलोवाट/घंटा बिजली बनाने के लिए 200 ग्राम पेट्रोल चाहिए होता है । ग्रामीण क्षेत्रों में सालाना प्रति व्यक्ति 180.4 किलोवाट/घंटा बिजली खपत होती है। बायोगैस जेनरेटर से घरेलू और कृषि जरूरतों के लिए ऑफ-ग्रिड बिजली मिल सकती है।
जैविक खादः 30.74 करोड़ गायों के गोबर से 7 करोड़ टन जैविक खाद बन सकती है, जो 16 करोड़ हेक्टेयर भूमि की उर्वरक जरूरतें साल में दो बार पूरी कर सकती है।
पर्यावरणः मीथेन को ईंधन में बदलने से कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन उत्सर्जन कम होगा, जिससे ग्लोबल वार्मिंग में कमी आएगी।
स्वच्छताः पशु और जैविक कचरे के प्रबंधन से गांवों में स्वच्छता और स्वास्थ्य में सुधार होगा।
रोजगारः मीथेन संयंत्र गांवों में महिला स्वयं सहायता समूह या उद्यमी चला सकते हैं, जिससे स्वरोजगार और ऊर्जा सुरक्षा बढ़ेगी।
आर्थिक लाभः जैविक कचरे से मीथेन बनाकर ग्रीनहाउस गैस कम होगी और कार्बन क्रेडिट से ग्रामीण समुदायों को आर्थिक लाभ होगा।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।