
गांवों में पारंपरिक जल संचयन प्रणाली कारगर उपाय Publish Date : 27/06/2025
गांवों में पारंपरिक जल संचयन प्रणाली कारगर उपाय
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
भारत के परंपरागत जलस्रोत तेजी से खत्म हो रहे हैं, जो बचे हैं, उनके अधिकांश का पानी पीने योग्य नहीं है। बढ़ते प्रदूषण के कारण पानी की कमी के साथ ही उसकी गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है। ऐसी स्थिति में खासतौर से हमारे गांवों में शुद्ध पेयजल एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। विशेषज्ञों का मानना है कि हमें पारंपरिक तरीकों की ओर वापस जौटना होगा। भारत सरकार की ओर से इस दिशा में लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। मनरेगा के तहत ग्रामीण इलाकों में बड़े पैमाने पर तालाब और कुओं का निर्माण किया गया है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में पेयजल के आधारभूत ढांचे को बचाने के लिए सामुदायिक भागीदारी बेहद जरूरी है।
संस्कृति के विकास में जलस्रोतों का बड़ा योगदान रहा है। जहां पानी है वहीं जिंदगी है। प्राचीनकाल से आबादी की बसावट नदियों के किनारे होती रही है। आज भी जिस भी स्थान पर व्यक्ति बसता है, वहां पहले पानी का इंतजाम करता है। लेकिन भारतीय परिवेश में शुद्ध पेयजल एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है खासतौर से ग्रामीण इलाकों में।
ग्रामीण इलाकों में पेयजल के तमाम परंपरागत स्रोत या तो खत्म हो गए है या प्रदूषित हैं। इसका खामियाजा हमें ही भुगतना पड़ रहा है। हम तमाम जल-जनित बीमारियों की चपेट में आ रहे है। वैज्ञानिक भी पानी बचाने का एकमात्र जरिया पारंपरिक जल स्रोतों का संरक्षण ही बता रहे हैं। इसलिए केंद्र एवं राज्य सरकार की ओर से पानी को एकत्रित करने पर जोर दिया जा रहा है। मेडबंदी के जरिए खेत का पानी खेत में ही रोका जा रहा है तो तालाब के जरिए रिचार्ज क्षमता बढ़ाई जा रही है। तालाबों को शुद्ध एवं स्वच्छ रखने के लिए लोगों को जागरूक किया जा रहा है। लेकिन ये प्रयास वहीं सफल हो रहे हैं जहां लोग जागरूक है और सामुदायिक नागीदारी से अपने क्षेत्र में शुद्ध पेयजल की चुनौती से निपट रहे हैं।
हमारे पास जो पानी है उसमें एक बड़ा हिस्सा अशुद्ध पानी का है जिसका प्रयोग करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। बढ़ते प्रदूषण के कारण पानी की कमी के साथ ही उसकी गुणवता भी प्रभावित हुई है। ऐसे में विशेषज्ञों का भी मानना है कि हमें पारंपरिक तरीकों की ओर वापस लौटना होगा। तालाब और कुओं को अहमियत दिए बगैर इस समस्या से निजात मिलना मुश्किल है। पुराने तालाबों की मरम्मत के साथ ही नए तालाबों पर भी ध्यान देना होगा। साथ ही उनमें होने वाली गंदगी को खत्म करना होगा।
भारत में भूजल का 90 फीसदी हिस्सा खेती में प्रयोग किया जाता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 1997 में भारत में करीब 600 क्यूबिक किलोमीटर वार्षिक पानी था और करीब इतनी ही मांग मी थी। 2050 तक उपलब्ध पानी 100 क्यूबिक किलोमीटर प्रतिवर्ष रह जाएगा, लेकिन मांग दोगुनी होकर 1200 क्यूबिक किलोमीटर प्रतिवर्ष पर पहुंच जाएगी। वर्ष 1997 में सतही जल 300 क्यूबिक किलोमीटर प्रतिवर्ष था जी 2050 में 50 क्यूबिक किलोमीटर प्रति वर्ष रह जाएगा। ऐसे में इस पानी को बचाने की दिशा में काम करने की जरूरत है। पानी बचे और शुद्ध रहे, यह देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब साठ फीसदी बीमारियों की मूल वजह जल प्रदूषण है। अपशिष्ट उपचार संयंत्र के बगैर फैक्ट्रियों से निकलने वाले अवशिष्ट का पानी में मिलना सबसे बड़ा कारण है। ये रासायनिक तत्व पानी में मिलकर मानव या जानवरों में जल-जनित बीमारियां पैदा करते हैं। कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम् आयरन, मैग्नीज की अधिकता और क्लोराइड, सल्फेट, कार्बोनेट, बाई कार्बोनेट, हाइड्रोक्साइड नाइट्रेट की कमी मानव जीवन को प्रभावित करती है। जल प्रदूषण से बचने के लिए समय-समय पर नियम-कानून भी बनाए गए, लेकिन जिस अनुपात में जल प्रदूषण बढ़ रहा है, ये नियम कानून कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं।
हमारे देश में नदी अधिनियम 1951, 1961 में जल प्रदूषण पर व्यवस्थित तरीके से नियंत्रण स्थापित किया गया। इसके बाद प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1984 बना। लेकिन ये कानून पूरी तरह से जल प्रदूषण रोकने में कारगर साबित नहीं हो पा रहे है। गंगा, यमुना, गोमती सहित विभिन्न नदियों की सफाई के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं, लेकिन बढ़ती आबादी के बीच सामूहिक भागीदारी के अभाव की वजह से ये अभियान लक्ष्य तक नहीं पहुंच पा रहे।
नदियों के पानी का शुद्ध न होना और उनके पानी में कमी और लगातार जलदोहन की वजह से जलस्तर भी तेजी से गिर रहा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार पिछले दस साल में उत्तर प्रदेश में गोमती के तट पर बसे लखनऊ, गंगा तट के कानपुर नगर, उन्नाव, इलाहाबाद, वाराणसी, यमुना किनारे मथुरा, गाजियाबाद आदि स्थानों पर भूजल स्तर में छह से दस मीटर तक की गिरावट पाई गई है। सबसे अधिक गिरावट गंगा की तलहटी में बसे मिर्जापुर में 16.31 मीटर पाई गई। नोएडा में 40 मीटर के नीचे तक पानी की गुणवत्ता क्षारीय हो गई है।
इस संकट से उबरने के लिए सरकार की ओर से भूजल पुनर्भरण और संचयन पद्धति को प्रत्येक 200 वर्गमीटर के भूखंड में लागू कर दिया गया है। शहरों में रूफटाप रेनवाटर हार्वेस्टिंग और ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षाजल के संचयन को सख्ती से लागू करने की कोशिश की जा रही है।
हैंडपंप को बचाना होगा
ग्रामीण इलाकों में पेयजल का सबसे उपयुक्त स्तंभ है कुएं और हैंडपंप। कुएं तेजी से खत्म हो रहे हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि हमें हैंडपंप बचाने के लिए आगे आना होगा। हैंडपंप सुरक्षित जल का सबसे उपयुक्त साधन है। हैंडपंप से कम से कम 15 मीटर दूर तक कचरा मलमूत्र का निस्तारण रोकना होगा। हैंडपंप के बहते पानी को बागवानी आदि के काम में लेने से दो फायदे होगे। एक ती सिंचाई होती रहेगी और दूसरे हैंडपंप के आसपास गंदा पानी नहीं मरेगा। हैंडपंप लगाने के लिए बोरवेल की गहराई पर खास ध्यान रखें। जिन गांवों में बाढ़ का खतरा रहता है वहां ऊंचे सुरक्षित रूपल पर एक हैंडपंप होना चाहिए, ताकि पीने का पानी उपलब्ध रहे। दूसरी सावधानी यह बरतनी होगी कि जलस्रोतों को जीवाणुरहित करना होगा। इसके लिए बचे हुए कुएं में ब्लीचिंग पाउडर का घोल डलवाने की भी जिम्मेदारी निभानी होगी।
तालाबों को बचाने के लिए आगे आएं
पहले हर गांव में तालाब होते थे, लेकिन अब वे खत्म हो रहे हैं। लेकिन जो तालाब बचे हैं, उन्हें संरक्षित करने की जरूरत है। यह काम भी सामूहिक भागीदारी से किया जा सकता है। जिन तालाबों का पानी पीने के काम आता हो उनकी पशुओं एवं अन्य संक्रमणों से रक्षा करें। तालाब के निकट शौच न करें। बरसात के मौसम के बाद में जल के जीवाणु परीक्षण करवाएं। यह सुविधा नजदीकी जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग में उपलब्ध है।
राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम
राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम केंद्र और राज्य के बीच 50-50 की हिस्सेदारी वाली योजना है। इस कार्यक्रम के लिए साल 2017-18 से 2019-20 की अवधि के लिए 14वें वित्त आयोग के तहत 23050 करोड़ रुपये की राशि मंजूर की गई है। इस कार्यक्रम में देश की ग्रामीण आबादी को पेयजल आपूर्ति करने का प्रावधान है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।