भारतीय कृषि और कृषक को संकट से उबारने की चुनौती      Publish Date : 19/06/2025

    भारतीय कृषि और कृषक को संकट से उबारने की चुनौती

                                                                                                                           प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 वर्षा रानी

वर्ष 2018-19 में खाद्यान्न उत्पादन 281-37 मिलियन टन (द्वितीय अग्रिम अनुमान), बागवानी फसलों का उत्पादन 314-67 मिलियन टन (प्रथम अग्रिम अनुमान) रिकॉर्ड स्तर पर रहने के बावजूद भारतीय कृषि और कृषक दोनों ही गहरे संकट के दौर से गुजर रहे हैं। लगभग प्रत्येक राज्य में कृषकों के बकाया ऋणों को माफ कर दिए जाने की घोषणा। कृषकों को उनकी उपज का यथोचित मूल्य दिलाने के लिए लागत से डेढ़ गुना स्तर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा।

न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषकों के वलहनी एवं तिलहनी उत्पाद को क्रय कर लिए जाने की प्रधानमंत्री-आशा (PM-AASHA) योजना, सभी कृषकों के खातों में ₹2-2 हजार की तीन किश्तों में प्रतिवर्ष ₹6000 हस्तान्तरित किए जाने की प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (PM-KISAN), तैलंगाना की रायधू बन्धू योजना, ओडिशा की कालिया योजना, आन्ध्र प्रदेश की अन्नदाता सुखीभव योजना और प0 बंगाल की कृषक बन्धु योजना आदि प्रारम्भ किए जाने के सकारात्मक परिणाम प्राप्त नहीं हो रहे हैं। भारतीय कृषकों को मुख्य रूप से निम्नलिखित मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है-

  • खाद्यान्नी फसलों एवं बागवानी फसलों का रिकॉर्ड उत्पावन होने से अत्युत्पादन की स्थिति।
  • अधिकांश कृषि उत्पादों की उत्पादन लागत में भारी वृद्धि-सिंचाई, बीज, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, परिवहन लागतों, मजदूरी की दरों जैसे आगतों की कीमतों में वृद्धि का परिणाम स्वरूप।
  • खेतों में तैयार फसल के मूल्य एवं उपभोक्ताओं के द्वारा चुकाए गए इन्हीं उत्पादों के क्रय मूल्य में भारी अन्तर के बावजूद कृषकों को उनकी उपज का पूरा मूल्य प्राप्त न हो पाना।
  • व्यापक स्तर पर ऋण माफी से वाणिज्यिक बैंकों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों एवं प्राथमिक कृषि सहकारी साख समितियों द्वारा कृषकों-विशेष रूप से सीमान्त एवं लघु कृषकों को ऋण वितरण में हीला हवाली करना।
  • यथोचित शीत भण्डारों एवं शीत श्रृंखला की कमी से शीघ्र नाशवान बागवानी फसलों की बाध्यतापूर्ण विक्री।
  • वर्षाधीन खेती के अन्तर्गत बड़ा रकबा होने के बावजूद सिंचाई सुविधाओं का विस्तार न हो पाना।
  • नाइट्रोजनीय उर्वरकों के अधिकता से प्रयोग तथा कार्बन एवं जैविक तत्वों की अधिकता वाली हरी खाद, कम्पोस्ट खाद, गोबर की खाद आदि के न्यून उपयोग से मृदा की उर्वरा शक्ति में स्थिरता आना।
  • कृषि विपणन में बिचौलियों-आढ़तियों, व्यापारी, दलालों का सशक्त संगठन।

अत्युत्पादन-नीचा प्रतिफल

विगत दस वर्षों (2009-10 से 2018-19) के दौरान खाद्यान्न उत्पादन 2.57 प्रतिशत चक्रवृद्धीय वार्षिक दर से तथा बागवानी उत्पादन में 3.49 प्रतिशत चक्र-वृद्धीय वार्षिक दर से वृद्धि हुई है तथा ये दोनों आजादी प्राप्ति के बाद से रिकॉर्ड स्तर पर है।

माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त को नकारते हुए भारत में खाद्य पदार्थों के उत्पादन की वृद्धि दर जनसंख्या की वृद्धि इस प्रकार है-

खाद्य पदार्थों के उत्पादन की वृद्धि दर (प्रतिशत में)

2007-08 2017-18 2015-18 और 2017 की दर से अधिक रही है। 2007-08 एवं 2017-18 के बीच भारत की जनसंख्या में 1.5 पतिशत वार्षिक की तथा 2015-16 एवं 2017-18 के बीच 1-3 प्रतिशत वार्षिक की वृद्धि हुई है। केवल तिलहनों को छोड़कर (2007-08 एवं 2017-18 के बीच) अन्य सभी संवर्गों की जिन्सों उत्पादन वृद्धि दर दोनों ही अवधियों में जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक रही है।

समस्या की जड़ कहाँ है?

जब खाद्यान्न उत्पादन तथा बागवानी उत्पादन दोनों ही ऐतिहासिक रूप से रिकॉर्ड स्तर पर हैं, तो खेती-किसानी और कृषकों में बढ़ते असन्तोष की जड़ कहाँ है? इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है-

1. कृषि उत्पादन में वृद्धि होने के बावजूद कृषकों की आय में यथोचित वृद्धि नहीं हो सकी है नीचे दिए गए ग्राफ से पता चल रहा है कि भारत में सी2 लागत पर बाजारी कीमतों पर कृषकों को रुपया प्रति हेक्टेयर लाभ 2014-15 एवं 2017-18 के बीच धान के मामले में 2.1 प्रतिशत चक्रवृद्धीय औसत वार्षिक वृद्धि दर, गेहूँ में 5-2%, चना में 135% चक्रवृद्धीय औसत वार्षिक दर से बढ़ा है, जबकि मूँग में 184-6 प्रतिशत, तूर में 334-6 प्रतिशत, उड़द में 138-4 प्रतिशत, सोयाबीन में 127-6 प्रतिशत और कपास में 29-3 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है

कृषकों की आय में अपेक्षित वृद्धि केन्द्र सरकार के बजट में न्यूनतम समर्थन मूल्य को खेती की लागत के डेढ गुना रखे जाने की घोषणा की गई थी, लेकिन वित्त मन्त्री ने यह स्पष्ट नहीं किया था कि लागत की गणना किस आधार पर की जाएगी? कृषि लागतें एवं मूल्यों पर आयोग ने 2018-19 के लिए लगाए गए प्रोजेक्शनों के आधार पर तो कहा जा सकता है कि A2+FL लागतों के सापेक्ष सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य लगभग डेढ़ गुना है, लेकिन सी2 लागतों के सापेक्ष नहीं है।

अप्रैल 2014 एवं दिसम्बर 2018 के बीच खाद्य पदार्थों की थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्वास्फीति की दर का चलन भी कृषकों के समक्ष एक विरोधाभासी स्थिति उत्पन्न हुई है, जहाँ एक ओर उनकी हाड़ तोड़ मेहनत से कृषि जिंसों का उत्पादन रिकॉर्ड स्तर पर है वहीं कृषि आगतों के मूल्यों में वृद्धि होते जाने से खेती-किसानी की लागत में वृद्धि होती जा रही है. परिणामतः प्रतिफल की निबल दर गिरती जा रही है।

3. 2009 एवं 2018 के बीच केवल 4 वर्षों-2010, 2011, 2013 एवं 2016 में ही मानसून सामान्य या सामान्य से अधिक रहा है, शेष वर्षों में वर्षा या तो सामान्य से नीचे रही है या काफी कम रही है। जब वर्षा कम या विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आ जाने से यह आशा की गई थी कि भारत से कृषि निर्यातों में वृद्धि कांगो, जिसका लाभ कृषकों को मिलेगा, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। 2018-19 में कृषि एवं सहायक क्रियाएं क्षेत्र का कुल निर्यात 72,73,703 करोड़ रूपये था, जो 2017-18 के निर्यातों की तुलना में मात्र 1.10 प्रतिशत अधिक था। इस निर्यात में भी सबसे बड़ी हिस्सेदारी समुद्री उत्पादों (₹47,621 करोड़), भैंस का मांस (₹25,091 करोड़), चीनी (₹9,518 करोड़), तेल की खली (₹10,438 करोड) रूपये की थी, जिनका सम्बन्ध कृषकों से नहीं है। इसके विपरीत वर्ष 2018-19 में ₹1,35,939 करोड़ के कृषि उत्पादों का आयात किया गया, जो 2017-18 की तुलना में 9-8 प्रतिशत अधिक है।

आज के इस दौर में आर्थिक और राजनीतिक कारणों से भारतीय कृषि और कृषक उस स्थिति में पहुँच गए हैं जहाँ लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई कोई भी सरकार उनकी उपेक्षा नहीं कर सकती। कृषकों के बकाया ऋणों को माफ कर देना या उनके खातों में कुछ धन भेजे जाने से कृषकों का भला नहीं होने वाला है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।