
प्रो. पंचानन माहेश्वरी, भारत में ऊतक संवर्द्धन प्रोद्योगिकी के प्रणेता Publish Date : 12/06/2025
प्रो. पंचानन माहेश्वरी, भारत में ऊतक संवर्द्धन प्रोद्योगिकी के प्रणेता
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
भारतीय वनस्पति विज्ञान को विश्व में प्रतिष्ठा दिलाने वालों में दिल्ली विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष स्व. प्रो. पंचानन माहेश्वरी का नाम उल्लेखनीय है। विज्ञान के क्षेत्र की इस विलक्षण प्रतिभा का जन्म 9 नवंबर, 1904 को राजस्थान की गुलाबी नगरी के नाम से प्रसिद्व, जयपुर में हुआ था। आपके पिता एक साधारण लिपिक थे तथा उस समय इनके घर की आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी।
प्रो. पंचानन माहेश्वरी की प्रारंभिक शिक्षा जयपुर में हुई तथा बाद में उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए भेजा गया। उन्होंने ईविंग क्रिश्चियन महाविद्यालय से बी.एससी. तथा इलाहावाद विश्वविद्यालय से एम.एससी. परीक्षा वनस्पति विज्ञान में सन् 1927 में उत्तीर्ण की। इविंग क्रिश्चियन महाविद्यालय में आपका भारतीय वनस्पतिशास्त्र सोसाइटी के संस्थापक स्व. डॉ. विनफील्ड डजन से हुआ, जिनके निर्देशन में उन्होंने तीन वर्ष तक आवृतबीजी (Angiosperm) के संरचना विज्ञान, भ्रूण विज्ञान (Embryology) एवं आकृति विज्ञान (Morphology) पर अनुसंधान कर सन् 1931 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डी. एससी. की उपाधि प्राप्त की। वस्तुतः उनके गुरू डॉ. विनफील्ड ने ही उन्हें इस ओर प्रेरित किया था तथा वे उनको बराबर प्रोत्साहन भी देते रहते थे।
इस प्रकार डॉ. विनफील्ड एवं डॉ. पंचानन के संबंध पिता-पुत्र जैसे सुदृढ़ हो गये थे। वर्ष 1931 में जब उन्हें सर्वाेच्च डी.एससी. की उपाधि मिली तो उसे अपने गुरू के चरणों में रखते हुए पंचानन ने गुरू दक्षिणा का प्रस्ताव रखा। तब विनफील्ड ने कहा ‘पंचानन, तुम मेरे पुत्रतुल्य हो, मेरी गुरू दक्षिणा भी यही होगी कि तुम भी अपने विद्यार्थियों से वैसा ही व्यवहार करना जैसा कि मैंने तुम्हारे साथ किया था।’ मैंने तुम्हारे जैसा एक योग्य विद्यार्थी तैयार कर दिया है।
प्रो. माहेश्वरी ने वर्ष 1928 में इविंग क्रिश्चियन महाविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में अपना जीवन प्रारंभ किया। तत्पश्चात् ये आगरा महाविद्यालय में नियुक्त हुए। वर्ष 1936 में वे यूरोप यात्रा पर गए तथा लौटने पर ईविंग क्रिश्चियन महाविद्यालय तथा लखनऊ विश्वविद्यालय में भी सेवारत रहे। नवम्बर 1939 में उनकी नियुक्ति ढाका विश्वविद्यालय में प्रवाचक (रीडर) के पद पर हुई। प्रो. माहेश्वरी इसी विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष एवं विज्ञान संकाय के अधिष्ठाता भी बने।
वर्ष 1949 में सर मौटिस ग्वायर के निमंत्रण पर नव स्थापित दिल्ली विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान के विभागाध्यक्ष के रूप में आप दिल्ली आए और मृत्यु पर्यन्त वहीं रहे। प्रो. माहेश्वरी के निर्देशन में एशिया के ही नहीं वरन् अमेरिका और आस्ट्रेलिया के शोधार्थी भी अनुसंधान करने आते थे। वे हमेशा सरल उपकरणों व यंत्रों से शोध करवाना चाहते थे, परंतु शोध को उन्होंने कभी सरल अथवा कम महत्वपूर्ण नहीं समझा था।
वनस्पतिशास्त्र की आकृति विज्ञान तथा भ्रूण विज्ञान शाखाएँ प्रो. माहेश्वरी के प्रिय क्षेत्र थे। उनकी विशेष रुचि आवृत्तबीजी के भ्रूण विज्ञान में थी। प्रो. माहेश्वरी की सबसे रोचक खोज थी परखनली में बीजों की उत्पत्ति। उनके निर्देशन में जिन विषयों पर महत्वपूर्ण अनुसंधान हुए उनमें लौरेंथेसी, सैंटेलेसी जैसे परोपजीवी कुलों का अध्ययन, पौधों का विवेचन, पौधों के रंध्रों का विकास, विन्यास एवं अनावृत्त बीजी पौधों की आकारिकी आदि प्रमुख हैं। ऊतक संवर्द्धन प्रयोगशाला की स्थापना तथा परखनली कल्चर पर शोध निबंध प्रस्तुत करने पर वर्ष 1965 में उन्हें लंदन की रॉयल सोसाइटी ने फैलो (FRS) की सर्वाेच्च उपाधि से अलंकृत किया।
प्रो. माहेश्वरी ने भ्रूण विज्ञान पर विश्व की सबसे प्रमाणिक पुस्तक ‘एन इन्ट्रोडक्शन टू दि एम्ब्रियालॉजी ऑफ एन्जियोस्पर्मस (An Introduction to the Embryology of Angiosperms) लिखी। वर्ष 1951 से ही वे फाइटोमारफोलॉजी (Phytomorphology) जैसी समृद्ध वैज्ञानिक अनुसंधान पत्रिका के सम्पादक भी रहे थे।
प्रो. माहेश्वरी के निर्देशन में एक सौ से अधिक शोधार्थियों ने पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की तथा उनके लगभग सात सौ अनुसंधान पत्र विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे। प्रो. माहेश्वरी अपनी शोध प्रयोगशाला में इतने लीन रहते थे कि अस्वस्थता की स्थिति में भी उन्हें वहीं रहना अच्छा लगता था।
प्रो. माहेश्वरी ने कई विदेश यात्राएँ की। वर्ष 1936-37 में उन्होंने कील विश्वविद्यालय में अनुसंधान किया तथा इंग्लैण्ड और यूरोप के कई विश्वविद्यालयों का भ्रमण किया। इसके पश्चात् उन्होंने अमेरिका, स्टॉकहोम, पेरिस, कनाडा, इंडोनेशिया, मिस्र, रूस, आस्ट्रेलिया तथा जर्मनी की यात्रा की। प्रो. माहेश्वरी को विदेशों में भी बहुत सम्मान मिला तथा विश्व के उत्कृष्ट वनस्पति विज्ञानियों में उनकी गिनती होती थी।
प्रो. माहेश्वरी भारतीय विज्ञान अकादमी, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान संस्थान तथा भारतीय वनस्पति संस्था के चयनित सदस्य तथा अमेरिकन कला-विज्ञान अकादमी के सम्मानित विदेशी सदस्य थे। वर्ष 1959 में मांट्रियल विश्वविद्यालय, ने उन्हें डी.एससी. की सम्मानोपाधि से विभूषित किया था। इसी वर्ष उन्हें बीरबल साहनी स्वर्ण पदक से भी अलंकृत किया था। भारतीय विज्ञान संस्थान ने उन्हें ‘सुन्दरलाल होरा पदक’ भी प्रदान किया। भारत सरकार द्वारा समय-समय पर गठित अनेक विज्ञान समितियों में प्रो. माहेश्वरी सदस्य रहे।
प्रो. पंचानन माहेश्वरी का व्यक्तित्व बहुत सरल, शांत तथा सुलझा हुआ था। वे मातृभाषा व राष्ट्रभाषा हिन्दी के पक्षधर थे तथा हिन्दी में भी लोकप्रिय लेख लिखते थे। जनवरी 1966 में उन्होंने चंडीगढ़ में आयोजित भारतीय विज्ञान कांग्रेस में हिन्दी में ही अपना व्याख्यान देकर वैज्ञानिक समुदाय को चकित कर दिया। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् द्वारा गठित कई समितियों में अध्यक्ष पद को स्वीकार कर जीवविज्ञान के क्षेत्र में अनेक पुस्तकों का हिन्दी में लेखन कार्य करवाया। विज्ञान को लोकप्रिय करने में भी प्रो. माहेश्वरी ने विशिष्ट योगदान दिया।
इस अंतर्राष्ट्रीय सुप्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी की मस्तिष्क शोध के कारण 18 मई, 1966 को दिल्ली में जीवन लीला समाप्त हुई। निस्संदेह प्रो. पंचानन माहेश्वरी ने राजस्थान प्रदेश एवं देश दोनों को गौरवान्वित किया।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।