बदलते मौसम का खतरा      Publish Date : 29/04/2025

                        बदलते मौसम का खतरा

                                                                                                            प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु

समुद्र के तटवर्ती नगरों में आई बाढ़ को पर्यावरण असंतुलन से जोड़कर देखा जा रहा हैं गुजरात, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में समुद्र के तटवर्ती नगरों में आई भीषण बाढ़ बदलते मौसम का कहर है। सूरत सहित दक्षिणी गुजरात ने ऐसी भीषण बाढ़ पहले कभी देखी नहीं थी। भारत और बांग्लादेश के समुद्र तटीय क्षेत्रों में समुद्री तूफान आने का सिलसिला पिछले कुछ वर्षों से शुरू हो चुका है। अब इसमें अधिक तेजी से वृद्धि हो रही है। इससे भारत के भी कई समुद्रतटीय नगरों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो गया है।

सूरत में आई विनाशकारी बाढ़ इस खतरे की चेतावनी है कि हमारे दूसरे समुद्र तटीय नगर भी अब खतरे में हैं। मुंबई भी भारी वर्षा का कहर पिछले दो सालों में झेल रही है। आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र सुरक्षित नहीं है।

चीनी वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट) के ग्लेशियर तापमान बढ़ने के कारण तेजी से पिघल रहे हैं। वैज्ञानिकों को पता चला है कि सागरमाथा का एक ग्लेशियर केवल 2 वर्ष में 50 मीटर तक पिघल चुका है। यह सामान्य के मुकाबले दोगुना अधिक है।

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में भी कहा गया है कि तापमान बढ़ने के कारण हिमाचल क्षेत्र की 40 से अधिक ग्लेशियर झीलें फटने के कगार पर हैं। धरती के गरमाने से ग्रीनलैंड के पहाड़ों पर बर्फ पिघलने लगी है। अंटार्कटिका के पास समुद्र में तैरता बर्फ का 1200 वर्गमील का टापू देखते ही देखते पिछल गया। इस बर्फीले टापू के पिघलने की घटना से फिलहाल कोई संकट अभी नहीं दिखाई दे रहा है, लेकिन जब हम इसमें भयावह भविष्य का चेहरा देखते हैं तो मन कांप उठता है।

समुद्र का जल स्तर 7 मीटर तक बढ़ सकता है। इससे ग्रीनलैंड सहित दुनिया के कई देश और द्वीप जलमग्न हो जाएंगे। भारत, बांग्लादेश सहित एशिया के सात देशों के सामने जलवायु परिवर्तन का खतरा पैदा हो गया है।

वैज्ञानिकों ने दुनिया को चेताया है कि ग्लोबल वार्मिंग की मौजूदा रफ्तार 21वीं सदी के आखिर में हमें प्रलय के नजारे दिखा सकती है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार 22वीं सदी के शुरू होने तक हमारी पृथ्वी के तापमान में लगभग छह डिग्री वृद्धि हो जाएगी और उससे प्राकृतिक संतुलन इस कदर बिगड़ जाएगा कि उसे सुधारना असंभव हो जाएगा। धरती के गरमाने और जलवायु में परिवर्तन से ही अफ्रीका महाद्वीप का एक बहुत बड़ा भाग अकाल की चपेट में है।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार वर्ष 2030 तक भारत में गर्मियों में एक डिग्री सेंटीग्रेड और सर्दियों में 3.4 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की वृद्धि हो सकती है। तापमान में सबसे अधिक वृद्धि उत्तरी भारत में होने की आशंका है। समुद्र तटीय तापमान में विशेष वृद्धि नहीं होगी। तापमान बढ़ने से पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और केरल के तटवर्ती क्षेत्रों के समुद्र के तल में वृद्धि होगी। इससे समुद्र का खारा पानी जमीन में घुस जाएगा और उन स्थानों पर की मिट्टी अनुपजाऊ हो जाएगी, साथ ही बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा।

भारत के उत्तर पूर्व और दक्षिणी प्रायद्वीप में गर्मियों में अपेक्षाकृत अधिक वर्षा होगी। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में मानसून की वर्षा में कमी आएगी।

मौसम वैज्ञानिकों की चेतावनी के अनुसार भारत की उर्वर भूमि वाले उत्तरी क्षेत्र में गेहूं की पैदावार कम हो सकती है। जलवायु में परिवर्तन की विभिन्न भविष्यवाणियों के अनुसार धरती का तापमान चढ़ने से उर्वर क्षेत्रों में नमी का स्तर बहुत ज्यादा कम हो सकता है। इससे ऐसे अनेक क्षेत्र सहारा की तरह रेगिस्तान बन सकते हैं। वनों के अंधाधुंध कटान के कारण ही भारत में भूमि की उर्वरा शक्ति के कम होने की मात्रा प्रतिवर्ष विश्व भर में सबसे ज्यादा है।

इसके चारागाहों पर चराई अधिक होने से मिट्टी को रोके रखने वाली वनस्पति बहुत कम रह गई है। है। जब वर्षा होती है तो मिट्टी बह जाती है और भूमि की उर्वरा शक्ति और अधिक कम हो जाती है।

तेज हवाएं भी भू-क्षरण के माध्यम से नुकसान पहुंचाती है। इसलिए समय रहते हुए अभी जलवायु परिवर्तन के प्रकोप से बचने के कदम नहीं उठाए गए तो हम बच नहीं सकते। इसके लिए पेट्रोल, डीजल की जगह वैकल्पिक साधनों की खोज जरूरी है। सौर ऊर्जा के उपयोग से भी ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव को कम किया जा सकता है।

प्रकृति से खिलवाड़ करने का परिणाम कितना भयानक होगा, इसकी कल्पना करना कठिन है, लेकिन मौसम में बदलाव के इस खतरे को नजरअंदाज किया गया तो हम भीषण तबाही से बच नहीं सकते हैं। जेनेवा में विश्व मौसम विज्ञान संघ के अध्यक्ष ओ पी ओवासी ने कहा है कि हम सामान्य रवैया नहीं अपनाए रह सकते हैं। यह तथ्य है कि वायुमंडल का संतुलन गड़बड़ा गया है। कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा अन्यथा लोग पर्यावरण की मार से त्रस्त हो उठेंगे।

एशिया के सात देशों के सामने जलवायु में परिवर्तन के कारण संकट पैदा हो गया है। इन देशों की एक चौथाई आबादी विनाश और तचाही के कगार पर है। यह खतरा पर्यावरण के विनाश से पैदा हुआ है। वाशिंगटन के ‘क्लाइमेट इंस्टीट्यूट’ की रिपोर्ट में एशिया के जलवायु परिवर्तन के बारे में यह चेतावनी दी गई है। आठ देशों के सरकारी और निजी संस्थानों के 60 से भी अधिक मौसम विशेषज्ञों ने कहा है कि भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम और फिलीपींस जलवायु परिवर्तन के दुश्चक्र में फैस गए हैं। जलवायु में इस परिवर्तन से इन देशों के तटवर्ती क्षेत्रों में समुद्र का जल स्तर धीरे-धीरे बढ़ रहा है। भूमि क्षरण हो रहा है और समुद्र का खारा पानी धीरे-धीरे धरती के मीठे पानी में रिस रिस कर मिल रहा है।

इससे समुद्री तूफान उठेंगे और तटवर्ती क्षेत्रों में कहर बरपा कर चले जाएंगे। करोड़ों लोग शरणार्थी बनकर जीने के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हो जाएंगे। बांग्लादेश और भारत के केरल, आंध्र प्रदेश तटवर्ती क्षेत्रों के समुद्री तूफान आने का सिलसिला तो पहले से ही शुरू हो चुका है। बांग्लादेश में हर साल आने वाली बाढ़ एक विकराल समस्या बन गई है। समुद्र के जल स्तर के ऊपर उठने से ज्वार-भाटा तथा इसकी लहरों में परिवर्तन हो जाएगा।

इससे तूफानों की उग्रता बदल सकती है। समुद्र के तटीय क्षेत्रों को बार-बार समुद्र का प्रकोप झेलना पड़ेगा। समुद्र का पानी खेती-बाड़ी और घर बार को तहस नहस कर देगा। इस खतरे का पूर्वानुमान लगाकर कुछ देशों ने तो अपने समुद्री तटों पर अवरोधक बनवाने भी शुरू कर दिए हैं।

समुद्री जल स्तर में वृद्धि से भूमिगत जल की गुणवत्ता पर भी खराब असर पड़ सकता है। भूगर्भ में समुद्री जल के प्रवेश से पेयजल खारा हो सकता है। इसके अलावा सीवेज प्रणाली पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। तटीय क्षेत्रों की तो पूरी जलवायु ही बदल जाएगी।

वाशिंगटन के वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट के अनुसार मोटर गाड़ियों और कल कारखानों से निकलने वाली गैसों से पृथ्वी गरम कर रही है। इन गैसों से ग्रीन हाउस प्रभाव बढ़ रहा है जिससे पृथ्वी के दोनों ध्रुवों और पर्वत मालाओं पर बिछी हिम चादर तेजी से पिघलने लगी है। पर्वतों पर जमी यह बर्फ सूर्य किरणों को वापस अंतरिक्ष भेजकर हमारी पृथ्वी को ठंडा बनाए रखती है।

कई किलोमीटर मोटी और लाखों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली इस हिम चादर के पिघलने से महासागरों का जल स्तर कई फिट ऊंचा उठ जाने का अर्थ होगा दुनिया की आधी से अधिक आबादी को शरण देने वाले तटीय क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा पैदा हो जाना। उत्तरी धु्रव के पास अंटार्कटिक क्षेत्र के हिमचादर की मोटाई साठ के दशक के मुकाबले 40 फीसदी कम हो चुकी है।

पृथ्वी की कुल बर्फ का 91 प्रतिशत हिस्सा अपने पास रखने वाला अंटार्कटिक हिम क्षेत्र पिछले पांच सालों में 3000 वर्ग किलोमीटर तक सिकुड़ चुका है। ध्रुवों से दूर महासागरों में भी तैरते विराट हिम खंड पतले होकर टूट रहे हैं। वर्ष 1972 के बाद से वेनेजुएला स्थित छह हिम नदियों में चार का गायब हो जाना कोई मामूली घटना नहीं है। इस प्रकार हमें वैश्विक स्तर पर तापमान की इस वृद्धि से सचेत रहने की आवश्यकता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।