ऊँच-नीच के प्रति हमारा व्यवहार      Publish Date : 09/10/2025

                        ऊँच-नीच के प्रति हमारा व्यवहार

                                                                                                                                                                               प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहेब जी देवरस तो बचपन में ही संघ की शाखा में आते-आते और जाति के भेद भाव को नकारने में इतने साहसी हो गए थे कि अपने स्वयं के घर में अपनी मां के विरोध के बाद भी उन्हें इस बात के लिए तैयार कर लिया था कि उनके जो भी मित्र आएंगे वह सभी उनके साथ उनकी रसोई में बैठकर ही भोजन करेंगे। उस दौर में यह कोई बात सामान्य नहीं थी।

अतः उनकी माता ने जब इसके लिए मना किया, तब उन्होंने जिद पूर्वक कहा कि आज से मेरे साथ भी वैसा ही व्यवहार करना जैसा मेरे मित्रों के साथ करना चाहती हो। पुत्र की यह जिद देखकर माता को भी अपने घर की परंपरा को आखिरकार बदलना ही पड़ा।

हम सबको यह विचार करना चाहिए कि हमारे व्यवहार में किसी भी प्रकार से ऊंच नीच जैसी कोई भावना है क्या? यदि है तो उसका कारण क्या है? क्योंकि इस संसार में ऊंच नीच भेदभाव या छुआछूत के लिए कोई भी कारण उचित नहीं हो सकता। यदि कोई यह कहता है कि यह बात परंपरा तो सदियों से चली आ रही है तो हमें यह समझना है कि परंपरा से चलने वाली ऐसी बातों को अपने विवेक के आधार पर आज के संदर्भ में विचार करना होगा कि यह परंपरा ठीक है या नहीं। वैसे भी भेदभाव की कोई परंपरा किसी भी काल के लिए ठीक नहीं कही जा सकती है।

हमे इस विचार को ही समाप्त करना है और संपूर्ण समाज में समरसता का वातावरण निर्माण करना हम सभी का दायित्व है। जब हम किसी से मिलते हैं तो वह किस जाति का है किस स्थान का है इसके आधार पर हमारे मन में उसके प्रति कैसा विचार उत्पन्न हो रहा है, क्या हम पर इस बात का कोई फर्क पड़ रहा है कि वह किस जाति का हैं यदि हां तो निश्चित ही हम कहीं न कहीं ईश्वर की अवहेलना कर रहे हैं, क्योंकि यह विचार किसी भी रूप में ठीक नहीं कहा जा सकता है।

इसका प्रकटीकरण इस प्रकार से हो सकता है कि हमारे मित्र सभी प्रकार के वर्गों से है या नहीं और हमारी घनिष्टता सबसे है या नहीं, किसी को कोई काम करता हुआ देखने पर उसके प्रति मेरा व्यवहार एक समान रहता है या उसके कार्य के प्रकार के आधार पर बदलता रहता है। जैसे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को देखने पर उसके एक व्यक्ति के होने नाते क्या वही भाव है जो इस ऑफिस के प्रथम श्रेणी ऑफिसर को देखकर हमोर मन में आता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।