राई-सरसों की गुणवत्ता युक्त किस्मों की विशेषताएं और उनके प्रजनन का स्तर      Publish Date : 03/10/2025

राई-सरसों की गुणवत्ता युक्त किस्मों की विशेषताएं और उनके प्रजनन का स्तर

                                                                                                                                                          प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता

देश में तिलहनी फसलों में मूंगफली के बाद राई-सरसों का प्रमुख स्थान है। इसके अन्तर्गत तोरिया (लाही), पीली सरसों, भूरी सरसों, राई, गोभी सरसों एवं करन सरसों आदि की फसलों को खाद्य तेलों के लिए उगाया जाता है। गोभी सरसों एवं करन सरसों को अभी देश के कुछ भागों में ही उगाना प्रारम्भ किया गया है। राई सरसों की खेती योग्य भूमि के लगभग 13 प्रतिशत भाग में की जाती है और इनका योगदान कुल तिलहन उत्पादन का लगभग 30 प्रतिशत है, जोकि कुल राष्ट्रीय उत्पाद का 5 प्रतिशत एवं कृषि उत्पाद का लगभग 10 प्रतिशत है।

विगत कुछ वर्षों में राई-सरसों के उत्पादन में आशातीत प्रगति हुई है। वर्ष 1985-86 में राई-सरसों का कुल उत्पादन 26.80 लाख टन तथा उत्पादकता 650 कि. ग्रा./हैक्टेयर थी, जो कि वर्ष 1996-97 में बढ़ कर 69.00 लाख टन तथा उत्पादकता 1002 कि.ग्रा./हैक्टेयर हो गई है।

राई-सरसों की गुणवत्ता- राई-सरसों से खाद्य तेल व खली प्राप्त होती है। इसके बीजों में तेल की औसत मात्रा 32-46 प्रतिशत तक होती है। भारत में उगाई जाने वाली राई सरसों की सभी किस्मों में पाए जाने वाले वसा अम्लों का लगभग 50 प्रतिशत इरुसिक अम्ल होता है। शोध के आधार पर यह पाया गया है कि इस अम्ल की यह मात्रा खाने से शरीर पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।

जैसे व्यस्कों में दिल की बीमारी तथा बच्चों में लिपिडोसिस बीमारी होने की संभावना अधिक होती है। इसलिए राई-सरसों पर अनुसंधान द्वारा अम्ल की मात्रा 2 प्रतिशत के नीचे लाकर, स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी व अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में स्पार्धात्मक बनाया जा सकता है।

राई-सरसों की खली मुख्यतः- पशु-आहार के रूप में प्रयोग की जाती है। बीज में पाया जाने वाला तत्व ग्लूकोसायनोलेट व उसके विघटन से बनने वाले तत्व तेल में तीखापन (झार) लाते हैं और पशु-आहार के प्रयोग में ली जाने वाली खली को पशुओं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बनाते हैं।

यह खली विशेषकर मुर्गियों व सुअरों के आहार के रूप में उपयुक्त नहीं होती है। ग्लूकोसायनोलेट वाली खली अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कम कीमत पर खरीदी जाती है, क्योंकि वहाँ इसका उपयोग अधिकतर मुर्गियों व सुअरों के आहार के रूप में किया जाता है। यहाँ यह जानने योग्य तथ्य है कि इनके हानिकारक प्रभाव से पशुओं में विकास अवरुद्ध हो जाता है क्योंकि ये गलग्रन्थि तथा जिगर में विकास पैदा करते हैं।

इसके फलस्वरूप, पशुओं की भूख कम हो जाती है तथा उनके वजन (भार) में निरन्तर कमी आने लगती है। राई-सरसों की खली भारतवर्ष में विदेशी मुद्रा अर्जित करने का प्रमुख स्रोत है। इसके निर्यात से हमारे देश ने वर्ष 1995-96 में 261.5 करोड़ रुपयों की विदेशी मुद्रा प्राप्त की है। भारत में उगाई जाने वाली राई-सरसों की किस्मों में ग्लूकोसायनोलेट की मात्रा की सीमा 80/160 माइक्रोमोल प्रति ग्राम तेल रहित खल है, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में वांछित मात्रा की सीमा 30 माइक्रोमोल प्रति ग्राम तेल रहित खल है।

यदि हम अपनी किस्मों में यह गुण ला सकें तो हमें इसके निर्यात से कम से कम 50 प्रतिशत अधिक विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है। भारतवर्ष में राई-सरसों की किस्मों में इन गुणों के सुधार हेतु अनुसंधान कार्य प्रगति पर है।

                                                                  

अनेक अनुसंधान केन्द्रों विशेषतः- गोविन्द बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पंतनगर, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय,. लुधियाना, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार, चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय, कानपुर, नरेन्द्र देव कृषि विश्वविद्यालय, फैजाबाद, नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर, टाटा ऊर्जा अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली एवं राष्ट्रीय सरसों अनुसंधान केन्द्र, भरतपुर राजस्थान आदि ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है।

इस अनुसंधान के फलस्वरूप तेल व खली की हानि रहित तत्वों वाली प्रभेदों का विकास किया गया है जिसे सारणी-1 में प्रदर्शित किय गया है। हालांकि यह सभी परीक्षण अभी अपनी अवस्था में है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद- नई दिल्ली तिलहन एवं दलहन तकनीकी मिशन (कृषि मंत्रालय, भारत सरकार) ने संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के आर्थिक सहयोग से इस प्रकार की किस्मों का परीक्षण किसानों के खेतों पर तथा प्रशिक्षण के माध्यम से किसानों को ऐसी किस्मों के महत्व की जानकारी तथा उनको उगाने के लिए प्रोत्साहित करने एवं उनमें इसके प्रति जागरूकता लाने हेतु एक परियोजना 2 वर्ष के लिए स्वीकृत की गई थी। इस कार्यक्रम को लागू व सफल बनाने की ज़िम्मेदारी राष्ट्रीय सरसों अनुसंधान केन्द्र, भरतपुर को सौपी गई थी।

इस कार्यक्रम के अन्तर्गत पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के चयनित जिलों में प्रदर्शन एवं प्रशिक्षण आयोजित कर जानकारी दी गई। इस कार्यक्रम के सफल होने से स्वास्थ्यकारी तेल व हानिकारक खली का उत्पादन और उपयोग बढ़ने की संभावना बन जाती है।

इसके साथ ही राई-सरसों की इन किस्मों की बिक्री अधिक मूल्य पर होने से किसानों की आर्थिक दशा में भी पर्याप्त सुधार होगा और देश अधिक विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकेगा। गुणवत्ता किस्मों के विकास संबंधी अनुसंधान कार्य प्रगति पर है।

राई-सरसों की गुणवत्ता और भौतिक गुणः

बीजः सुडौल बीज का बाज़ार में मूल्य अच्छा मिलता है। सरसों के पीले रंग के बीजों में तेल की मात्रा लगभग 2 प्रतिशत अधिक होती है तथा इनसे प्राप्त तेल का रंग हल्का पीला होता है साथ ही खली में प्रोटीन की मात्रा अधिक एवं रेशे की मात्रा कम होती है।

तेलः हल्के पीले रंग का तेल उपभोक्ताओं द्वारा अधिक पसंद किया जाता है। तेल में झार (पन्जेन्सी) एलायल-आइसो थाओसाइनेट नामक रसायन के कारण होती है। पूर्वी भारत में अधिक झार का तेल पसन्द किया जाता है, जबकि उत्तर एवं पश्चिमी भारत के लोग कम झार वाला तेल अधिक पसंद करते है।

खली (केक): खली में प्रोटीन की अधिक मात्रा (60-65 प्रतिशत), (8-10 प्रतिशत) तथा रेशे की कम मात्रा पशुओं के लिए अच्छी मानी जाती है। पीले दानों वाली किस्मों में काले एवं भूरे दानों की किस्मों की अपेक्षा प्रोटीन की मात्रा अधिक तथा रेशे की मात्रा कम होती है।

रासायनिक गुण-

तेलः इस खाद्य तेल में इरुसिक अम्ल नामक वसा अम्ल की मात्रा (अन्तर्राष्ट्रीय स्तर) के अनुसार 2 प्रतिशत से कम होनी चाहिए। इरुसिक एसिड की अधिक मात्रा होने से व्यस्कों में माइक्रोडियल फाइब्रोसिस की समस्या हो जाती है तथा रक्त में कोलेस्ट्रोल की मात्रा भी बढ़ जाती है। बच्चों में लिपिडोसिस नाम बीमारी होती है। इस प्रकार इरुसिक अम्ल की अधिक मात्रा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। भारतवर्ष में उगाई जाने वाली राई-सरसों की किस्मों में इरुसिक एसिड की मात्रा 40-50 प्रतिशत तक होती है। जिन किस्मों में इरुसिक एसिड की मात्रा 2 प्रतिशत से कम होती है, उन्हें हम “a” किस्में कहते है।

खलीः राई-सरसों की खली जानवरों के लिए प्रोटीन का अच्छा स्त्रोत है। भारत वर्ष में उगाई जाने वाली राई-सरसों की किस्मों में ग्लूकोसाइनोलेट नामक रसायन की मात्रा 80-160 माक्रोमोल/ग्राम तेल रहित खल होती है। यह मात्रा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर में जानवरों के लिए 30 माइक्रोमोल/ग्राम तेल रहित खल से कम निर्धारित है। ग्लूकोसाइनोलेट (माइरोसिनेज इन्जाइम की उपस्थिति में विघटित होने पर आइसो थायोसाइनेट, - थायोसाइनेट, नाईट्राइट एवं सल्फर नामक रसायन उत्पन्न करते हैं, जिससे जुगाली करने वाले पशुओं की थायराइड ग्रन्थि बढ़ जाती है और उनकी बढ़वार तथा प्रजनन पर कुप्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त लीवर का क्षति ग्रस्त होना, लीवर का बढ़ जाना एवं शरीर का वज़न कम हो जाना भी पाया गया है।

कैनोलाः राई-सरसों की गुणवत्ता का ट्रेड नाम है। राई-सरसों की जिस किस्म में इरुसिक एसिड की मात्रा 2 प्रतिशत से कम तथा ग्लूकोसानोलेट की मात्रा 30 माइक्रोमोल/ग्राम तेल रहित खल से कम हो उसे कैनोला कहते हैं। सामान्य रूप से इसे ‘‘00’’ (डबल ज़ीरो) भी कहते हैं। कनाडा एवं यूरोप में कैनोला स्तर 1980 के दशक में पूर्ण रूप से परिवर्तित कर लिया गया था। वैज्ञानिकों का मत है कि चीन इसे 2005 तक कर लेगा, परन्तु भारतवर्ष में इससे भी अधिक समय लग सकता है।

सारणी 1 हानिकारक तत्वों रहित राई सरसों के प्रभेद परीक्षण में

प्रजाति

विशेषता

संस्थान जहां विकसित किया गया

सरसों

पी.बी.सी.एम.-3590

"0" इससिक अम्ल

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना

ईसी.-287711

"0" इरुसिक अम्ल व कम ग्लूकोसिनोलेट

राष्ट्रीय सरसो अनुसंधान, के-3 भरतपुर

हीरा

"0" इरुसिक अम्ल

नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर

शिवा

"0" इरुसिक अम्ल व ग्लूकोसिनोलेट

नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर

टेरी (ओ.ई.) एम-08

"0" इरुसिक अम्ल

टाटा ऊर्जा अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली

टेरी (ओ.ई.) एम-21

"0" इरुसिक अम्ल

टाटा ऊर्जा अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली

येबिन

"00" इरुसिक अम्ल व ग्लूकोसिनोलेट

हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, कांगड़ा

गोभी सरसो

हायोला-401 (संकर)

"00" इरुसिक अम्ल व ग्लूकोसिनोलेट

टाई टी सी जैनका, बैंगलोर

एच.पी.एन.-3

"00" इरुसिक अम्ल व ग्लूकोसिनोलेट

हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, कांगड़ा

टेरी (ओ.ई.) आर-03

"0" इरुसिक अम्ल

टाटा ऊर्जा अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली

टेरी (ओ.ई.) आर-15

"0" इरुसिक अम्ल

टाटा ऊर्जा अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।