हिंदू जीवन      Publish Date : 25/09/2025

                                      हिंदू जीवन

                                                                                                                                                                              प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

यदि जीवन को उस मूलभूत दर्शन की कसौटी पर कसा जाए जो शाश्वत आनंद की प्राप्ति में सहायक होगा, तो क्या यह कहा जा सकता है कि - यह तथाकथित आधुनिक सामाजिक जीवनशैली, जो घातक प्रतिद्वंद्विता, ईर्ष्या और हिंसा से भरी है, मनुष्य को कभी सुखी बना सकती है? क्या यह मनुष्य को मन की शांति और संतुष्टि प्राप्त करने में सहायक हो सकती है? बिल्कुल नहीं क्योंकि यह केवल मनुष्य की इच्छाओं को भड़काती है।

यह सामाजिक संरचना केवल इच्छाओं, वासनाओं और कामनाओं को ही भड़काती है और जब इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, तो मन अशांत हो जाता है। मन स्थिर नहीं रहता और वस्तु-भोगों के पीछे भागता रहता है तो ऐसा मन कभी भी शांत नहीं हो सकता ।

हिंदू दर्शन में सभी संस्कारों का लक्ष्य मन की शांति लाना है। योगशास्त्र में कहा गया है कि मनुष्य को दूसरों के सुख, धन, मान-सम्मान या गुणों से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसे प्रसन्नता का अनुभव करना चाहिए और इन गुणों की सराहना करनी चाहिए।

परंतु आज देखने में आता है कि मनुष्य परिश्रम करके अधिक गुण अर्जित करने के स्थान पर दूसरों के गुणों से ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता जैसी दुर्भावनाओं को अपने मन में पोषित करता रहता है। भोग के बाह्य साधनों को कैसे और कितना एकत्रित करना है, इस बारे में विवेकशील होना चाहिए।

                                                            

यदि यह विवेक नष्ट हो जाए, तो मनुष्य अपने सुख की खोज में दूसरों के आनंद को नष्ट करने में कभी कोई संकोच नहीं करेगा जैसा हर तरफ आज अनुभव होता है। लेकिन इस प्रक्रिया में हम स्वयं अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं और स्वयं अपना आनंद भी नष्ट कर देते हैं।

दुःखी लोगों के प्रति स्वाभाविक रूप से करुणा का अनुभव होना चाहिए इसलिए हमें दूसरों के जीवन से दुःख दूर करने के लिए कठोर प्रयास करना चाहिए क्योंकि ऐसा होगा तो सर्वत्र संवेदना का प्रभाव रहेगा और किसी को कष्ट नहीं होगा।

आधुनिक पाश्चात्य जीवनशैली की विशेषता यह है कि यहां बातें तो मुक्त जीवन की होती हैं लेकिन वास्तव में मनुष्य के जीवन को साधनों व्यसनों दुर्गुणों का आदी बनाने की तरफ ढकेलना है और यह व्यवस्था मन की शांति और स्थिरता के सर्वथा प्रतिकूल है।

हमारे प्राचीन शास्त्रों में वर्णित है कि एक समय ऐसा था जब किसी पर कोई नियम और प्रतिबंध नहीं थे; लेकिन बाद में इसने मनुष्य-मनुष्य के बीच ईर्ष्या, प्रतिद्वंद्विता और संघर्ष को जन्म दिया और अराजकता, अव्यवस्था और अनैतिकता का प्रसार किया । जिसके परिणामस्वरूप मन को अशांत करने वाली भावनाएँ, जैसे अस्थिरता, चिंता, भय, ईर्ष्या आदि उत्पन्न हुईं । इसलिए, मन को स्थिरता प्रदान करने और ऐसी बुरी भावनाओं को पनपने से रोकने के लिए कठोर अभ्यास की आवश्यकता रहती है ।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।