
उपेक्षा के शिकार हमारे बुर्जुग Publish Date : 16/09/2025
उपेक्षा के शिकार हमारे बुर्जुग
प्रोफेसर आर सेंगर एवं अन्य
पिछले दिनों एक बुजुर्ग दम्पत्ति की खबर बहुत अधिक चर्चा में थी। घटना उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले से सम्बन्धित थी। घटनाक्रम के अनुसार, बेटे और बहु की उपेक्षा एवं उत्पीड़न सें परेशान होकर एक बुजुर्ग ने नहर में छलांग लगा दी थी। इसके साथ अपने पति को बचाने के लिए उनकी पत्नि भी नहर में कूद गई और उनका हाथ पकड़े हुए वह नौ किलोमीटर तक तैरती रही, लेकिन तमाम प्रयासों के बाद भी वह अपने पति को नहीं बचा पाई। इस घटना के कुछ दिन बाद ही छत्तीसगढ़ के जशपुर से खबर आई कि एक बेटे ने अपनी मां को कुल्हाड़ी से काटकर उसके टुकड़े कर दिए। ऐसी ही एक अन्य खबर के अनुसार, उपेक्षा से त्रस्त पिता ने अपनी बेटियों के अपमान और लालच से तंग आकर अपनी चार करोड़ की सम्पत्ति को मंदिर में दान कर दिया।
इस प्रकार की तमाम घटनाएं दिन प्रति दिन धटित हो रही हैं। हमारे समाज में आज भी श्रवण कुमार को आदर्श माने जाते हैं। हर मां-बाप की कामना होती है कि उनका बेटा श्रवण कुमार हो, परन्तु वर्तमान समय में भारतीय समाज से श्रवण कुमार की अवधारणा समाप्त होती जा रही है।ऐसे में बुजुर्गों की बदहाल स्थिति और वृद्व आश्रमों की बढ़ती संख्या इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है और यह प्रवृत्ति दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है।
भारत में वृद्व जनों की सेवा और रक्षा के लिए विभिन्न कानून उपलब्ध हैं। केन्द्र सरकार के द्वारा वरिष्ठ नागरिकों के लिए वर्ष 2007 में वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण अधिनियम लागू किया गया था। भारत के रजिष्ट्रार जनरल की ओर से नमूना पंजीकरण प्रणाली रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रजनन दर घटी है, जिसके चलते 0-14 वर्ष की आबादी कम हो रही है और 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की संख्या 10 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है।
केरल राज्य सरकार के द्वारा इसी बढ़ती आबादी और बुजुर्गों के जीवन की समस्याओं को देखते हुए राज्य वृद्व आयोग का गठन किया गया है, जो कि एक सराहनीय कदम है, लेकिन दुर्भाग्यवश तमाम सुविधाएं, नियम और कानून अधिकतर कागजों तक ही सीमित होकर रह जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में बुजुर्गों सं जुड़े विभिन्न प्रकार के मामले सामने आते रहें हैं। इनमें से अधिकतर बुजुर्ग विधवा अथवा विधुर होने के कारण अकेले थे। इनका पति अथवा पत्नि का सहारा तो ऊपर वाले ने छीन लिया था तो बच्चों का सहारा उनकी किस्मत ने छीन लिया था। जिस बुढ़ापे के लिए बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया था, बुढ़ापे में उन्होंने ही उनका जीवन दूभर कर दिया और वह भी थोड़ सी सम्पत्ति के लिए।
दुर्भाग्यवश इस प्रकार की घटनाओं में बुजुर्ग नियमानुसार मदद मांगने के लिए जाएं तो भी उन्हें कोई सहायता नहीं मिल पाती है। कई मामलों में बुजुर्गों ने सबसे पहले वन स्टेप सेंटर में अपनी शिकायत दर्ज करायी तो वहां भी हमारी अदालतों की तर्ज पर तारीखें मिलने लगी और तारीख पर दोनों पक्षों को बुलाया जाता। थक हारकर शिकायत मुख्यमंत्री ग्रिवांस सेल, एसडीओ, कलेक्टर, एसपी, डीजीपी, कमिश्नर, मानवाधिकार आयोग, डीएलएसए और हेल्पलाईन नम्बर भी की गई। सामाजिक सुरक्षा निदेशालय को भी सूचना भेजी गई, जहां से जिलाधिकारी को उचित कार्यवाई कर रिपोर्ट भेजने का निर्देश दिया गया किन्तु यह सारी कवायद व्यर्थ ही रही।
आश्चर्य की बात तो यह है कि कई अधिकारियों और पुुलिस वालों को भी वरिष्ठ नागरिक भर-पोषण अधिनियम की जानकारी तक नहीं होती है। ऐस ही एक अधिकारी केवल इतना ही जानते थे कि 10,000 रूपए भरण-पोषण के लिए दिया जाता है। जबकि इस अधिनियम के तहत माता-पिता के द्वारा दुर्व्यवहार की शिकायत किए जाने पर संतानों को दण्ड़ और जुर्माने के साथ ही उन्हें सम्पत्ति से बेदखल किए जाने और हस्तांरित की गई सम्पत्ति को वापस लेने का भी प्राविधान किया गया है, हालांकि यह बात अलग है कि इसका उपयोग शायद ही कभी किया गया हो।
शारीरिक और आर्थिक असमर्थता के बीच अधिकारियों और थाने के चक्कर लगा-लगाकर बुजुर्ग टूट जाते हैं और वह अपना जीवन अवसाद में व्यतीत करने लगते हैं। हमें यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि यह वहीं बुजुर्गवार हैं, जिनकी कहानियां बच्चों में संस्कारों की नींव रखती थी, जिनकी लोरियां उन्हें उन्हें सुखद नींद में परियों के देश की यात्राएं कराती थी। यदि बच्चे के मां-बाप उसको डाटते तो उन्हें उस समय अपने दादा-दादी का ही आश्रय लेना पड़ता था। एकल परिवार की इस संकल्पना ने बच्चों से बुजुर्गों का आसरा और बुजुर्गों से उनकी छत को छीन लिया है।
भागम-भाग के बीच संतानें अपने मां-बाप को समय नहीं दे पाती हैं, जिसके चलते बुजुर्गों में अकेलापन और अवसाद बढ़ रहा है। इसके साथ ही हिंसात्मक घटनाओं में भी वृद्वि हो रही है। अधिकतर मां-बाप अपने बच्चों के विरूद्व कोई शिकयत नहीं करना चाहते और यदि वह शिकायत कर भी दें तो तब तक कोई कार्यवाई नहीं की जाती है जब तक कि कोई अनहोनी घटना नहीं घट जाती है, क्योंकि कार्यवाई करने वाले भी तो किसी की संतान ही हैं। इस प्रकार प्रशासन का रवैया वृद्वों के मनोबल को तोड़ देता है, जिसके चलते वह वृद्वाश्रम जाने अथवा आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं।
बुढ़ापे में बुजुर्गों की आर्थिक समस्याएं भी बढ़ जाती हैं। सरकार नौकरी करने वाले बुजुर्ग तो अपना जीवनयापन पेंशन के माध्यम से कर लेते हैं, परन्तु जिन लोगों की पेशन नहीं होती है, उनका जीवनयापन करना बेहद कठिन होता है। आज हमारे देश में वृद्व आश्रम और डे-केयर सेंटर्स काफी कम संख्या में हैं और जो कुछ हैं भी उनमें से अधिकांश की हालत खस्ता ही है। बुजुर्गों के संरक्षण सम्बन्धित कानूनों को कठोरता से लागू किया जाना चाहिए और कानून का पालन नहीं करने वाले व्यक्ति पर कठोर सजा का प्राविधान किया जाना चाहिए।
इसके साथ ही बुजुर्गों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाई जानी चाहिए और उन्हें घर पर सारी सुविधाएं दी जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त बुजुर्गों को वृद्वाश्रम भेजने पर जोर न देकर उनके अधिकारों का संरक्षण करने की पहल की जानी चाहिए। इन सभी उपायों के साथ चेतनाशून्य होते जा रहे हमारे समाज को जगाना भी एक बहुत ही आवश्यक कदम है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।