
एसआईआर पर भरोसा क्यों नहीं हो रहा Publish Date : 27/08/2025
एसआईआर पर भरोसा क्यों नहीं हो रहा
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
लोग ऐसा क्यों मान रहे हैं कि विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) योग्य नागरिकों को मतदान के लिए सक्षम बनाने का कोई प्रयास नहीं है। क्या यह गरीबों, हाशिए पर पड़े या प्रवासी नागरिकों को मताधिकार से वंचित करने की एक साजिश है?
यदि देखा जाए तो वर्ष 1991 से 1996 के बीच मतदान होता था, तो उस समय भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को निश्चित रूप से सबसे अच्छी और सबसे प्रभावी संस्था माना जाता था। यहां तक कि संवैधानिक न्यायालयों से भी ऊपर। मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) टी. एन. शेषन के कारण, भारत के चुनाव आयोग की स्वतंत्रता, अखंडता और निष्पक्षता से (तीन ‘आई’) को सार्वभौमिक रूप से सराहा गया था।
शेषन के बाद, जिन मुख्य चुनाव आयुक्तों ने इन तीनों ‘आई’ का दृढ़ता से बचाव किया, उनमें से एम. एस. गिल, जे. एम. लिंगदोह, टी. एस. कृष्णमूर्ति, नवीन चावला और एस. वाई. कुरैशी आदि प्रमुख थे। अन्य मुख्य चुनाव आयुक्त तो केवल आते-जाते ही रहे, वह कभी झुकते तो कभी अडिग भी दिखाई देते। लेकिन पिछले 12 वर्षों में जो भी मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किए गए, उन्हें अगर संविधान के चश्मे से देखा जाए तो वे एक प्रकार से आपदा ही रहे थे।
स्वतंत्रताः चुनाव आयोग एक स्वायत्त संस्था है। शुरुआती वर्षों में, चुनावों का संचालन एक बड़ी चुनौती नहीं मानी जाती थी। क्योंकि उस समय लोग स्थानीय क्षत्रपों की इच्छा के अनुसार मतदान करते थे और कुछ वर्गों को तो मतदान करने की अनुमति तक भी ही नहीं हुआ करती थी। ये वर्ग इतने गरीब और कमजोर थे कि किसी की शिकायत भी नहीं कर सकते थे। कांग्रेस के लिए कोई राजनीतिक चुनौती नहीं थी लेकिन वर्ष 1967 के बाद चुनाव चुनौतीपूर्ण होते चले गए। वर्ष 1965 से 2014 के बीच की सरकारों ने चुनाव आयोग के कामकाज में कोई हस्तक्षेप नहीं किया, न ही मुझे ऐसा कोई आरोप याद आता है। कुछ विधानसभा चुनावों में धांधली के आरोप लगे थे, लेकिन ये आरोप केंद्र में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के खिलाफ नहीं, बल्कि भारत निर्वाचन आयोग की अक्षमता के खिलाफ थे।
र्व्ष 2014 का लोकसभा चुनाव एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव था। तब से, लोकसभा या राज्य विधानसभाओं के अधिकांश चुनाव अक्षमता, धांधली, धोखा-धड़ी और इससे भी अधिक आलोचना का विषय रहे हैं। वर्ष 2014 से, भारतीय चुनाव आयोग को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है और इससे आयोग की प्रतिष्ठा को भी भारी नुकसान पहुंचा है। नवंबर 2024 में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव के संबंध में मतदाता सूची विवाद का विषय बन गई। आरोप ये हैं कि (i) मतदाता सूचियों में असामान्य रूप से बड़ी संख्या में नए और शायद गलत नाम जोड़े गए और (ii) मतदान का समय समाप्त होने के बाद भी काफी देर तक असामान्य रूप से बड़ी संख्या में लोगों को मतदान करने की अनुमति दी गई। चुनाव आयोग ने दोनों आरोपों से अपना बचाव करने की कोशिश की है, लेकिन अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है।
अखंडताः बिहार में विधानसभा चुनाव का एक और कड़ा मुकावला होने वाला है और अगले साल और भी राज्यों में चुनाव होने हैं। बिहार एक परीक्षा की स्थिति है। राज्य में चार महीने बाद चुनाव होने वाले हैं और इससे पहले, चुनाव आयोग ने मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) शुरू कर दिया है। यह असामान्य और अभूतपूर्व है। नई मतदाता सूची आमतौर पर साल की 1 जनवरी को जारी की जाती है और चुनाव की पूर्व संध्या पर सारांश संशोधन किया जाता है। संक्षिप्त संशोधन में नए और अपंजीकृत मतदाताओं के नाम शामिल किए जाएंगे और मृत या स्थायी रूप से पलायन कर चुके मतदाताओं के नाम वर्तमान मतदाता सूची से हटा दिए जाएंगे।
वर्तमान मतदाता सूची का अधिकांश भाग पहले जैसा ही रहेगा। इसके अलावा, नाम जोड़ने और हटाने की प्रक्रिया राजनीतिक दलों की पूरी जानकारी और भागीदारी से की जाएगी। नाम जोड़ने के प्रत्येक मामले की सावधानीपूर्वक जांच की जाएगी और नाम हटाने के प्रत्येक मामले पर पूरी बहस और सुनवाई के बाद ही कोई निर्णय लिया जाएगा।
विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) अलग है। यह प्रभावी रूप से मौजूदा मतदाता सूचियों को ही रद्द कर देता है। इस दावे के बावजूद कि एसआईआर 2003 की मतदाता सूचियों पर आधारित है, यह प्रभावी रूप से शून्य से शुरू होकर प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए नई मतदाता सूचियां तैयार करता है। इसके अलावा जिम्मेदारी मतदाता पर आ जाती है, भले ही उसका नाम मौजूदा मतदाता सूची में हो और उसे 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव या 2024 के लोकसभा चुनाव में वोट देने का अधिकार हो और उसने वोट भी दिया हो, इसके बाद भी उसे अपनी नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेजों के साथ सूची में शामिल होने के लिए आवेदन करना होगा और ये सब 25 जून से 26 जुलाई के बीच किए जाने की उम्मीद है।
निष्पक्षताः इस प्रक्रिया का उद्देश्य नामांकन को आसान बनाना नहीं, बल्कि नामांकन और मतदान के रास्ते में बड़ी वाधाएं खड़ी करना है। चुनाव आयोग ने नागरिकता के ‘प्रमाण’ के रूप में 11 दस्तावेज निर्धारित किए हैं। उनमें से चार में जन्म स्थान की जानकारी नहीं है और उनमें से दो बिहार में किसी भी व्यक्ति को जारी नहीं किए गए हैं। इस प्रकार, प्रभावी रूप से किसी की नागरिकता साबित करने के लिए केवल पांच दस्तावेज (राजस्व अधिकारियों द्वारा जारी जाति प्रमाण पत्र सहित) हैं। पासपोर्ट, जन्म प्रमाण पत्र या सरकारी कर्मचारी पहचान पत्र बिहार की केवल 2.4 से 5 प्रतिशत आवादी के पास ही उपलब्ध हैं। इनकी अनुपस्थिति स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैः (1) आधार (2) चुनाव आयोग द्वारा जारी मतदाता पहचान पत्र (ईपीआईसी) और (3) राशन कार्ड।
जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से पूछा कि इन तीन गायब दस्तावेजों को एसआईआर के लिए क्यों शामिल नहीं किया जा सकता, तो चुनाव आयोग के पास इसका कोई जवाब नहीं था। विडंबना यह है कि राजस्व अधिकारियों द्वारा आधार कार्ड के आधार पर निवास और जाति प्रमाण पत्र जारी किए जाते हैं; जबकि निवास या जाति प्रमाण पत्र एसआईआर के लिए वैध है और आधार कार्ड अवैध है!
एसआईआर का एकमात्र तर्कसंगत हिस्सा यह है कि मृत व्यक्तियों और दोहरी प्रविष्टि वाले नामों को हटाया जाना चाहिए। चुनाव आयोग का अनुमान है कि 17.5 लाख मतदाता पलायन कर गए हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे अब बिहार के मूल निवासी नहीं हैं या मतदान करने के लिए वापस नहीं आएंगे। बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने 15 जुलाई को बाहरी राज्यों के मतदाताओं के नामांकन के लिए एक फॉर्म अपलोड किया है और उम्मीद है कि यह प्रक्रिया 26 जुलाई तक पूरी हो जाएगी। निष्कर्ष यह है कि एसआईआर योग्य नागरिकों को नामांकन और मतदान के लिए सक्षम बनाने का कोई प्रयास नहीं है। यह लाखों गरीबों, हाशिए पर पड़े या प्रवासी नागरिकों को मताधिकार से वंचित करने की एक भयावह साजिश है। गौरतलब है कि 28 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई होगी।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।